मेरे उस दिन न होने पर भी मेरी कविताएं तो होंगी! गीत होंगे ! सूरज की ओर मुंह किए खडा कनैल का झाड़ तो होगा!
Friday, December 31, 2010
रामधारी सिंह दिनकर मेरे प्रिय कवि रहे हैं। उनकी स्मृति में यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूं.। शायद मेरा यह प्रयास आप सब के दिल में थोड़ी सी जगह पा जाए। आप सबको मेर प्रयास कैसा लगा,अवगत कराएगें ताकि भविष्य में इस तरह की कविताएं प्रस्तुत करता रहूं। नववर्ष-2011 की अशेष शुभकामनाओं के साथ—प्रेम सागर सिंह, कोलकाता।
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बच्चे
ऱामधारी सिंह’‘दिनकर’
जीचाहता है सितारों के साथ
कोई सरोकार कर लूँ
जिनकी रोशनी तक हाथ नही पँहुचते,
उन्हे दूर से प्यार कर लूँ।
जी चाहता है फूलों से कहूँ,
यार ! बात करो।
रात के अँधेरे में यहां कौन देखता है,
जो अफवाह फैलायेगा
कि फूल भी बोलते हैं,
अगर कोई दर्द का मारा मिल जाए,
तो उससे अपना भेद खोलते हैं ?
आदमी का मारा आदमी
कुत्ते पालता है।
मगर मैं घबराकर
बच्चों के पास जाना चाहता हूँ,
जहाँ निर्द्वन्ध हो कर बोलूँ,
हँसुँ गाऊँ,चुहलें मचाऊँ
और डोलूँ।
बूढों का हलकापन
बू़ढों को पसन्द नहीं आता हैं ।
मगर, बच्चे उसे प्यार करते हैं।
भगवान की कृपा है
कि वे अभी गंभीरता से डरते हैं।
रामधारी सिंह दिनकर मेरे प्रिय कवि रहे हैं। उनकी स्मृति में यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूं.। शायद मेरा यह प्रयास आप सब के दिल में थोड़ी सी जगह पा जाए। आप सबको मेर प्रयास कैसा लगा,अवगत कराएगें ताकि भविष्य में इस तरह की कविताएं प्रस्तुत करता रहूं। नववर्ष-2011 की अशेष शुभकामनाओं के साथ—प्रेम सागर सिंह, कोलकाता।
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बच्चे
ऱामधारी सिंह’‘दिनकर’
जीचाहता है सितारों के साथ
कोई सरोकार कर लूँ
जिनकी रोशनी तक हाथ नही पँहुचते,
उन्हे दूर से प्यार कर लूँ।
जी चाहता है फूलों से कहूँ,
यार ! बात करो।
रात के अँधेरे में यहां कौन देखता है,
जो अफवाह फैलायेगा
कि फूल भी बोलते हैं,
अगर कोई दर्द का मारा मिल जाए,
तो उससे अपना भेद खोलते हैं ?
आदमी का मारा आदमी
कुत्ते पालता है।
मगर मैं घबराकर
बच्चों के पास जाना चाहता हूँ,
जहाँ निर्द्वन्ध हो कर बोलूँ,
हँसुँ गाऊँ,चुहलें मचाऊँ
और डोलूँ।
बूढों का हलकापन
बू़ढों को पसन्द नहीं आता हैं ।
मगर, बच्चे उसे प्यार करते हैं।
भगवान की कृपा है
कि वे अभी गंभीरता से डरते हैं।
Tuesday, December 28, 2010
अपनी अपनी
अपनी अपनी पसंद
जीवन में जो कुछ भी पाया, खोया, अनुभव किया, हारा, जीता या कभी-कभी जीत कर भी हार
गया और कभी-कभी हार कर भी जीत गया। इसी संदर्भ में ऱामधारी सिंह की निम्नलिखित
कविता के आलोक में आज तक कुछ पाता रहा हूं, एवं शायद भविष्य में भी पाता.............
हार
रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हार कर मेरा मन पछताता है।
क्योंकि हारा हुआ आदमी
तुम्हे पसंद नहा आता है।
लेकिन लडाई मे मैने कोताही कब की ?
कोई दिन याद है,
जव मै गफलत मै खोया हूं
यानी तीर-धनुष सिरहाने रख कर
कहीं छांव में सोया हूं
हर आदमी की किस्मत मे लिखी है।
जीत केवल संयोग की बात है ।
किरणें कभी- कभी कौंध कर
चली जाती हैं,
नहीं तो, पूरी जिंदगी
अंधेरी रात हैं।
Friday, December 17, 2010
प्रेम सागर सिंह
संस्मरण -III
प्रत्येक मनुष्य जब अपनी उमर के ढलान पर बढ़ने लगता है तो बच्चों के भविष्य की चिंता, उनकी शादी, परिवार, समाज, रिश्ते, मान, अपमान, सुख-दुख, प्रेमपरक जीवन के सुहावने दिन और जवानी की हँसीन रातें स्मृति-मंजूषा में चिर संचित अतीत की सुखद एवं दुखद स्मृतियां ही उसके जीवन यात्रा की प्रथम संगी बन कर रह जाती हैं। जीवन में छोटे-छोटे अहम हमें अपनों से दूर तो कर देते हैं किंतु जीवन की सांध्य- बेला में वही रिश्ते फिर याद आने लगते हैं।
बात उन दिनों की है जब मैं भारतीय वायु सेना से रिटायर होकर कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा था। किसी कानूनी विचार- विमर्श के दौरान मेरी मुलाकात जयप्रकाश जी से हुई थी। देखने में सरल एवं मृदुभाषी व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति जय प्रकाश जी एक बहुत बडे़ हायर परचेज कंपनी के मालिक थे। उनके आग्रह पर मैनें उस कंपनी की नौकरी स्वीकार कर ली थी। मैं वहां पर कानूनी सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया था। वे मुझे जरूरत से ज्यादा सम्मान देते थे एवं प्रत्येक सुझाव को ध्यान से सुनते थे। समय के प्रवाह के साथ उनका विश्वास बढ़ता गया। इसके कारण मैं दृढ़ प्रतिज्ञ होकर अपने कार्य में जुट गया था। पुराने अभिलेखों के अध्ययन के पश्चात पाया कि इस फर्म में कार्य करने वालों ने अपना कार्य सही ढंग से नही किया है। धीरे-धीरे अभिलेखों को अद्यतन करना शुरू किया एवं अंत में पाया कि इस फर्म को काफी नुकसान हुआ है। जयप्रकाश जी को फर्म की वर्तमान अवस्था से परिचित कराया तो उनका भी दिमाग चकरा गया। लगा वे मुर्क्षित हो जाएगें।मै कुछ देर तक शांत बैठा रहा। थोडी़ देर बाद माथे का पसीना पोछते हुए बोले- “सिंह जी,आपको मैं अपनी ओर से पूरी स्वतंत्रता देता हूं कि जो भी उचित लगे कीजिए एवं इस फर्म की डूबती नैया को आर्थिक भँवर से निकालें। मैं कल ही एक स्पेशल पाँवर ऑफ एटार्नी आपको दे दूंगा। अब मेरा शरीर काम नही करता है। इतने बड़े व्यवसाय का प्रबंधन अब मेरे द्वारा संभव नही है। अत मैं आपको पूरी जिम्मेदारी सौंप रहा हूं। “
अचानक इस अप्रत्याशित बात को सुनकर मैं नि:शब्द हो गया था। मन ही मन सोंचने लगा था इतना बडा उत्तरदायित्व संभाल पाऊंगा या नही। यदि कुछ सही गलत हो गया तो क्या होगा। परिवार समाज क्या कहेगा। उस समय मेरे मन में उत्पन्न हो रहे मानसिक द्वन्ध पर आत्म विश्वास ने सहजता से विजय प्राप्त कर लिया था। इस चुनौती को मैंने मन ही मन स्वीकार भी कर लिया था। कहते हैं- विधि के विधान को टाला नहीं जा सकता।“ ठीक वैसा ही हुआ। जयप्रकाश जी की शारीरिक अवस्था बिगड़ने लगी एवं ऑफिस आने जाने का क्रम प्राय बंद हो गया। बीमारी की अवस्था में एक बार उनके घऱ गया था। तिजोरी एवं अपने रूम की चाबी मुझे सौंपते हुए उन्होने कहा था-“आप मेरे रूम में ही बैठेगे एवं मालिक की हैसियत से अपना काम करेंगे।“
इस दायित्व ने मुझे आत्म-विश्वासी एवं संयमी बना दिया। मैं समय से ऑफिस आता एवं अपने द्वारा निर्धारित रूटीन के अनुसार कार्य निष्पादन का आदेश फर्म में कार्यरत कर्मचारियों को देता था। कार्य समीक्षा के दौरान पाया कि किसी ने भी अपना कार्य सही ढंग से नही किया है। कारण जानने पर सबने एक स्वर में नाना प्रकार के कारण दिखाए। मैं असमंजस में पड़ गया था। इस स्थिति में कोई निर्णय लेना आसान काम नहीं था।
दूसरे दिन सबको अपने कमरे में बुलाया एवं कार्य के प्रति उदासीनता का कारण जानना चाहा। मैं भी कुछ महसूस कर रहा था कि इतने सारे स्टाफ हैं पर काम क्यूं नही आगे बढ़ रहा है। चर्चा के दौरान पाया कि उस फर्म के सबसे विश्वासी कर्मचारी प्रभुनाथ जी ने बताया कि सर,हम लोगों को समय से न वेतन मिलता है,न बोनस, न एडवांस। यही कारण है कि हम लोग सक्रिय होकर भी निष्क्रिय हो जाते हैं। मैंने सबके सामने कैशियर को बुलाया एवं उसी दिन वेतन देने का आदेश दे दिय़ा एवं साथ- साथ यह भी निदेश दिया कि पूजा के पहले सभी लोगों को 500 रूपये बोनस भी दिया जाए। इसे सुनकर सभी लोग प्रसन्न मुद्रा में कमरे से बाहर आ गए।
कुछ ही दिनों में फर्म के काम में काफी प्रगति होने लगी। सभी लोग अपना काम सुचारू रूप से करने लगे थे। वसूली का कार्य भी तेजी से होने लगा। फर्म की चरमरा चुकी स्थिति में काफी सुधार होने लगा एवं कुछ ही महीनों में फर्म का काया पलट हो गया। मुझे भी अब अच्छा लगने लगा था।
एक दिन ऑफिस में खबर आया कि जयप्रकाश जी का निधन नर्सिंग होम में हो गया। हम सभी हतप्रभ होकर रह गए। मेरा भी मन घोर पीडा़ से व्यथित हो गया था। सारे अरमान अधूरे रह गए थे।‘श्राद्ध’ के दिन मै अन्य कर्मचारियों के साथ मालिक के निवास स्थान पर गया था। उनके अनेक रिश्तेदार दूर से आए थे। उनमें मालिक के दामाद रमेश जी से मेरा परिचय करवाया गया। इस शोक संतप्त एवं उदासी की घड़ी में उनसे कोई बात नहीं हुई। गमी के भोजन के पश्चात हम सभी अपन-अपने घर वापस आ गए थे। घर आकर मैं काफी चिंतित रहा। कुछ सोचते-सोचते न जाने कब निंद्रा देवी की गोद में सो गया। पता ही न चला। दूसरे दिन से रोजमर्रा की जिंदगी प्रारंभ हो गयी एवं कार्यालय में हर काम पूर्ववत होने लगा। हम सब इस फर्म को नई ऊंचाइयों पर पहुचाने के लिए कटिबद्ध हो गए। मालिक तो रहे नहीं, मालकिन हम सब के लिए मुख्य चिंता का विषय बन गयी थी। श्राद्ध के दिन वापस आते वक्त उन्होंने कहा था –“बेटा, अब तो मैं अभागिन बनकर रह गयी हूं, न जाने उस जनम में कौन सा पाप किया था जो आज सब कुछ रहने के बाद भी एक नारकीय जीवन से गुजरना पड़ेगा। ले देकर एक बेटा था वह भी जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही स्वर्गवासी हो गया। घर में जवान विधवा बहू है। उसके सामने जाने का मन नही करता है। “ इतना कहते हुए वे अत्यंत बोझिल हो गई थी एवं बगल के अधखुले दरवाजे पर अचानक नजर पड़ी तो देखा कि सौंदर्य की साक्षात प्रतिमूर्ति श्वेत वस्त्र में मुझे निहार रही थी। उसकी आखों में कितना दर्द छिपा था, मै समझ गया था। मैं आश्वासन देकर विदा हो गया था।
कुछ दिन कार्यालय में आने के बाद मालिक की स्मृतियां विस्म़तृ सी होने लगी थी। इसी बीच अचानक गांव पर बीमार चल रहे मेरे चाचा की शारीरिक अवस्था बिगड़ गई थी एवं घर वालों के आग्रह पर मुझे गांव जाना पड़ गया था। वहां सब कुछ व्यवस्थित कर एक सप्ताह बाद कोलकाता लौट आया था।
दूसरे दिन कार्यालय पहुंचा तो सभी लोग विस्मित होकर मुझे देखने लगे थे। कार्यालय में नीरवता छायी हुई थी। कमरे में एक अजनबी जैसे लगने वाले व्यक्ति को देखा तो भांप गया कि सिक्का बदल गया है अन्यथा कौन व्यक्ति इस कुर्सी पर बैठ सकता है। मालिक ने तो बैठने का अधिकार मुझे दिया था एवं मालकिन यशोदा देवी इसकी गवाह थी। फिर भी, कुछ देर बाद कमरे में प्रवेश किया तो देखा कि मिस्टर रमेश रॉयल चैलेंज की बोतल से ग्लास में पेग बनाने के लिए शराब उड़ेल रहे थे एवं दूसरे हाँथ में सिगरेट लिए थे। इसके पूर्व कि मै कुछ कहता- वे स्वयं कहने लगे-“मिस्टर सिंह कल से आप बाहर वाली अपनी कुर्सी पर बैठेगें एवं बिना बुलाए इस कमरे में नहीं आएगे।“ मेरा मन तिलमिला उठा। एक गजब सी बेचैनी और आंतरिक व्यथा ने मुझे संयम खोने पर वाध्य कर दिया एवं इसी वाध्यता के वशीभूत होकर मेरी धैर्य की सीमा भी टूट गयी। मेर तन-मन विद्रोह भाव से ज्वलित हो उठा। फिर भी संयम रखते हुए कहा- मिस्टर रमेश कान खोलकर सुन लीजिए कि मै एक भूतपूर्व-सैनिक हूँ। आत्म–सम्मान, ईमानदारी, अनुशासन, समर्पण एवं सत्यनिष्ठा मेरे जीवन का अविभाज्य अंग है। यहाँ काम करना मेरी मजबूरी नही है। मैं एक इंसानी रिश्ते को ढो रहा था। सोचने लगा था कि जिस घर को कितने कष्ट और समय देकर बनाया था उसी घर को कैसे विधाता ने नष्ट कर दिया। व्यथित हृदय से कहा था “रमेश जी इसमें मालिक का फोटो एवं गणेश जी की मूर्ति है. क्या आपको इसका भी ध्यान नही है?” इतना कहकर मैं वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया था। कुछ देर बाद आवश्यक कागजात प्रभुनाथ जी के हाथों उनको भेज दिया एवं साथ- साथ यह भी कहला भेजा कि कल से मैं इस फर्म में नही आऊँगा। मैं यह नौकरी छोड़ रहा हूँ। मिस्टर रमेश से बर्दाश्त नही हुआ और बाहर निकल कर बोले कि नकदी, तिजोरी की चाबी एवं स्पेशल पॉवर ऑफ एटर्नी देकर जाइए। मुझ से भी बर्दाश्त नही हुआ एवं कहा-“इन सारी चीजों को मालिक ने मुझे दिया था। आप कौन होते हैं? मै सब कुछ मालकिन को घर जाते समय सौंप दूँगा।“
सब कुछ सहेज कर ब्रीफकेश में रख लिया था। बाहर निकलने की तैयारी कर रहा था। ठीक उसी वक्त प्रभुनाथ जी मेरे पास आए एवं बोले- साहब,यह जगह काम करने लायक नही है। अच्छा होगा, आप यहां से वास्तव में चले जाए। यह नया मालिक हम सबको भी कई बार अपशब्द निकाल चुका है। हो सके तो मेरे लिए भी कोई काम मिले तो देखिएगा। अचानक मुझे याद आया कि प्रभुनाथ जी की बेटी की शादी अगले महीने में है एवं उन्हे सात महीने का बकाया वेतन भी देना है। मैं घोर मानसिक दबाव के बावजूद भी चेक बुक निकाला एवं 25 हजार रू का चेक काटकर उन्हे दे दिया। उनकी ऑखें सजल हो उठी एवं बड़े ही आत्मीय ढंग से उन्होने कहा था सिंह जी ,शायद ही मैं आपको भूल पाउँ। ऑफिस से बाहर निकलते समय अन्य स्टाफ से विदा लिया। सभी लोग कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही थे। केवल प्रभुनाथ जी मेरे साथ चटर्जी इन्टरनेशनल बिल्डिंग से नीचे आए। उत्सुकतावश उन्होने पूछा कि सिंह साहब,आपने मुझे चार हजार रूपये ज्यादा दिया है। प्रत्युत्तर में मैने केवल इतना ही कहा था कि वह मेरी ओर से था। इस पर वे अत्यंत द्रवित हो गए थे।
हर विषम परिस्थितियों में चिर प्रसन्न रहने वाले प्रभुनाथ जी आज अत्यंत उदासीन नजर आ रहे थे। उनसे विदा लेते समय मै भी भावुकता के अथाह सागर में अकस्मात फिसल गया। चाहकर भी हम दोनों ऑसुओं के अविरल प्रवाहित सैलाब को न रोक सके। इसके पूर्व कि हम दोनों भावनात्मक डोरी की गिरह में बध जाते,मिनी बस आ गई एवं संयमपूर्वक अश्रु-प्लावित ऑखों को पोछते हुए बस में चढ़ गया था सीट पर बैठने के बाद खिड़की से झांक कर देखा तो वे भी आसूँओं को पोछते हुए बेजान कदमों से ‘चटर्जी इन्टरनेशनल’ के मुख्य द्वार में प्रवेश कर रहे थे। उनका सामीप्य एवं सहज व्यक्तित्व मुझे अच्छा लगता था। वे कभी-कभी अवकाश के क्षणों में मेरे आग्रह पर भोजपुरी गीत गाया करते थे। उनकी आवाज में दर्द एवं मधुर स्वर लहरी थी। अपने पद-प्रतिष्ठा को भूलकर मै भी अन्य बिहारी लोगों के साथ उनके गीत का आनंद उठाता था। उनका एक प्रिय भोजपुरी गीत-“जा बेटी ससुराल तू जा,रो्अला से रीत न बदलेला, सेनुरा पड़ते ही मंगिया में नईहर से नाता टूटेला” मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। बस चली जा रही थी एवं स्म़ृतियां पीछे छूटती जा रही थी। कुछ देर बाद मालिक का घर आ गया था। मैं घर में जाकर मालकिन से सारी स्थिति का जिक्र किया एवं बुखार से ग्रस्त रहने के कारण उन्होने बहू को बुला लिया। उन्हे भी इस बात को कहा। उनकी बहू भी काफी समझदार थी। बड़े ही संजीदगी से कहा था -प्रेम जी, हम सब भी अब मजबूर हैं, दुखी हैं। मिस्टर रमेश जो कुछ भी कर रहे हैं, हम सब जानते हैं। वे हम सब का भला नही अनिष्ट करने आए हैं। अच्छा होगा कि आप हम सबके लिए कष्ट क्यों सहेगें। पढ़े लिखे आदमी हैं- आपको कही भी नौकरी मिल जाएगी। मैं मजबुरी को समझ गया। चेक बुक,पास बुक एवं करीब तीन लाख रूपये बहू के हांथ सुपुर्द कर दिया। इसके साथ वह ‘स्पेशल पॉवर ऑफ एटार्नी’ भी जिसे मालिक ने मुझे दिया था।
चलते वक्त बहू नो मुझे रोक लिया था। इसके पूर्व कि कुछ कह पाता उन्होने अपने एकाउन्ट से दिनांक, मेरा नाम भरा हुआ एवं स्वयं हस्ताक्षरित चेक मना करने पर भी मेरे पॉकेट में डाल दिया था। घर आकर देखा तो उस पर राशि लिखने वाली जगह खाली थी। आज भी वह चेक मेरे फाइल में वैसे ही पड़ा है। जब कभी उधर जाता हूं ‘चटर्जी इन्टरनेशनल’ आने के पहले ही अपनी दृष्टि विपरीत दिशा में कर लेता हूं।
आज करीब-करीब आठ साल बाद मैं पार्क स्ट्रीट कुछ कार्यवश गया था। घर लौटते वक्त अचानक मेरे कदम ‘चटर्जी इन्टरनेशनल बिल्डींग की तरफ मुड़ गए थे। वैसे तो उस फर्म की नौकरी छोड़ने के बाद फिर मुड़कर भी नही देखा था, न कुछ सोंचा था पर प्रभुनाथ जी एवं अन्य लोगों के बारे में हमदर्दी ने मुझे अनायास ही उधर खींच लिया। चलते- चलते नाना प्रकार के भाव मन में उत्पन्न हो रहे थे। सब कुछ याद आता गया एवं ऐसा लग रहा था जैसे कि आज मैं पुन: उसी रूप में आया हूं जैसे पिछले आठ साल पहले आया था। लिफ्ट से ऊपर आते वक्त मुझे एक अजीब सी बेचैनी ने घेर लिया। सोचने लगा था कि शायद मुझे वैसा ही माहौल एवं अन्य लोगों का सामीप्य मिलेगा। प्रभुनाथ जी, मोहन, भगवान सिंह सबसे मुलाकात होगी। मिस्टर रमेश से भी मिलूंगा। सबसे मिलने की अनिर्वचनीय खुशी से मेरा अंतर्मन भर आया था। इतने में लिफ्ट का दरवाजा खुला और मैं तीव्र गति से उस फर्म के मुख्य दरवाजे पर पहँच गया था।
मुख्य द्वार पर शीशा का गेट था। झांक कर देखा तो अंदर बिल्कुल अंधेरा था एवं ऐसा लगा था कि इस फर्म में कोई है ही नही। अच्छी तरह से देखा तो लगा कि पिछली ओर एक मद्धिम रोशनी में एक क्षीणकाय व्यक्ति सोय़ा पड़ा था। दरवाजे पर पुन: दस्तक देने के बाद वह व्यक्ति किसी तरह चल कर आया एवं दरवाजा खोला। मैं देखते ही पहचान गया कि प्रभुनाथ जी हैं। उन्होने भी मुझे पहचान लिया एवं भीतर लेकर चले आए। जिस खुशी और आत्मीयती ने मुझे यहां खींचकर लाया था अचानक उसकी जगह एक असीम वेदना ने मुझे प्रभावित कर दिया। प्रभुनाथ जी की शारीरिक अवस्था, अन्य लोगों का न होना तथा मालिक के रूम की दुर्दशा देख कर ही मैं भांप गया कि यह फर्म बंद हो गया है।
सुख-दुख में समभागी रह चुके प्रभुनाथ जी ने बताया कि सिंह जी आपका अनुमान सही है। य़ह फर्म अब बंद हो गया है एवं रमेश बाबू काफी पैसों का घोटाला कर चले गए हैं। कुछ देर तक उनके साथ रहा लेकिन शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण प्रभुनाथ जी अब पहले की तरह नही रह गए थे।
थोड़ी देर बाद मैं प्रभुनाथ जी से विदा लिया। लौटते वक्त अतीत की स्मृतियां एक-एक करके पीछा कर रही थी। जितना भी प्रयास करता था उतनी ही एक गजब सी बेचैनी संत्रस्त कर देती थी। सच ही कहा गया है -“पुरूष बलि नहीं होत हैं,समय होत बलवान।‘ बाहर आने के बाद उपर्युक्त सारी घटनाएं मेरे लिए एक सपना बन कर रह गयी हैं, जिससे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।
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Friday, December 3, 2010
एक पल का पागलपन
एक पल का पागलपन
संस्मरण-।।
प्रेम सागर सिंह
हर कोई अपने जीवन-यात्रा के प्रारंभ में नित नवीन स्वप्नों को मूर्त रूप में परिवर्तित करने के लिए निर्बाध गति से अग्रसरित होते रहता है। इस प्रक्रिया में उसे कई चरणों से होकर गुजरना पड़ता है। जीवन के सफर में अकेला होने के कारण अपनी स्मृतियों के पिटारे में बहुत सी सुखद एवं दुखद स्मृतियों को सहेज कर रख लेता है किंतु जब कभी ये सारी बातें याद आने लगती हैं तो वह भाव शून्य एवं अधीर हो जाता है।
ऐसी ही एक धटना ने मुझे भी प्रभावित कर दिया था। करीब तीस साल पहले मुझे अपने गांव जाना पड़ गया था। मेरी चचेरी बहन की शादी तय हो गयी थी। लेकिन दीदी के जिद्द करने के कारण एक अजीब सी समस्या उत्पन्न हो गयी थी जिसका निदान मेरे वृद्ध हो चले चाचा के वश में नही रह गया था। हम चार भाई कोलकाता में ही रहते थे। पिताजी की मृत्यु के बाद चाचा ने हम सबको भरपूर प्यार दिया एवं कभी भी ऐसा एहसास नही हुआ कि पिताजी नहीं हैं।
चाचा का पत्र आया था जिसमें उन्होने बड़े भैया को लिखा था कि तुम सब में से एक का गांव आना बहुत जरूरी है। मैं एक विकट समस्या में फंस गया हूं। मेरे दोनों लड़के भी नही आ रहे हैं। अच्छा होगा छोटका को (मुझे) भेज देना। बड़े भाई साहब एक दिन मुझे बुलाए एवं कहा- “बबुआ, चाचा अब वृद्ध हो चले हैं। पिताजी की मृत्यु के बाद उन्होने ही परिवार की शान-शौकत एवं इज्जत को अक्षुण्ण बनाए रखा है। उनके इस आग्रह पर हम में से किसी का वहां जाना नितांत आवश्यक है। अच्छा होगा, तुम यथाशीघ्र यहां से से गांव जाकर मुझे वस्तु-स्थिति से अवगत कराना। यदि तुम्हारे वश की बात नही होगी तो मुझे भी सूचित करना। मैं भी चला आउंगा ।“
भैया की बात टालने की हिम्मत मुझ में न हुई एवं उसी दिन ‘अमृतसर मेल’ से गांव के लिए रवाना हो गया। ट्रेन खुलने के बाद नाना प्रकार के विचार मन में आने लगे थे। बार-बार सोचता था- पर किसी भी निष्कर्ष पर नही पहुंच पा रहा था । यह बात मुझे काफी परेशान करती रही कि आखिर कौन सी मुसीबत आ गयी है कि चाचा इतने परेशान होकर हम सबको याद किए हैं। स्वभाव से शांत एवं गंभीर दिखने वाले चाचा अचानक इतने कैसे विकल हो गए। कौन सी ऐसी समस्या खड़ी हो गयी है जिसके कारण चाचा को हम सबकी जरूरत महसूस हुई है। पूरी रात इन्ही विचारों में खोया रहा। कभी नींद आती थी तो कभी खुल जाती थी।अगले दिन सुबह मैं अपने स्टेशन पर उतर गया था।
स्टेशन से बाहर निकल कर सोचा चाय पीकर गांव जाने वाली जीप पकड़ूंगा। चाय की दुकान पर पहुंच कर देखा तो गांव के कुछ लोग वहां पहले से ही मौजूद थे। सबको नमस्कार किया एवं चाय पानी के बाद हम सब गांव के लिए रवाना हो गए थे। रास्ते में रामजी भाई ने कहा – “तुम्हारे चाचा विकट स्थिति में हैं। मंजू की शादी तय तो हो गयी है किंतु वह यह शादी करने से इंकार कर रही है। घर में हमेशा वाद-विवाद होते रहता है किंतु उसका जिद्द एवं आपसी मामला होने के कारण हम सब भी कुछ कहने, सुनने और समझाने की स्थिति में नहीं हैं। हम सबने उसे समझाने का सार्थक प्रयास किया लेकिन उस पर किसी भी बात का असर नही पड़ता है। वह किसी की बात मानने को तैयार ही नही है। तुम्हारे चाचा सबसे यही कहते हैं कि उसमे गलती नही है,गलती तो मुझमें है। पटना में पढ़ा-लिखा कर उसे योग्य बनाया। सोचा था - आज के युग में लड़के तो पढते नही है, मै अपनी बेटी को ऐसी शिक्षा दूंगा कि वह समाज के लिए एक आदर्श लड़की के रूप में अपने आप को प्रतिष्ठित कर सकेगी।
इतना सुनने के बाद मेरा मन एक असहनीय वेदना से उद्वेलित होने लगा था। सोचने लगा था कि मंजू दीदी एम.ए. तक पढने के बाद भी सामाजिक मान-मर्यादा कोताख पर ऱख कर ऐसा क्यों कर रही है! दीदी तो हमसे उम्र मे बड़ी है, मै उन्हे क्या समझाउंगा? पढ़ने में काफी अच्छी तथा देखने में भी काफी सुंदर थी लेकिन कौन सी बात है जो उसे इस तरह का व्यवहार करने के लिए मजबूर कर रही है। य़ह बात मेरे मन बार-बार कौंध कर आती और चली जाती थी। कुछ देर बाद जी गांव के सरहद में प्रवेश कर रही थी। मुझे भी उम्मीद बधने लगी कि घर पहुंचते ही वास्तविकता से परिचित हो जाउंगा। जीप हमारे दरवाजे पर खड़ी हो गयी। भाड़ा देने के बाद घर में प्रवेश करते ही देखा कि चाचा एक चारपाई पर बेजान से पड़े हैं एवं चाची पंखा हिला रही हैं। चरण-स्पर्श किया तो उनकी आंखें खुली। मुझे देखते ही उनकी आंखें नम हो गयी थी। उनकी आखों से बहते हुए आंसुओं को अविरल प्रवाहित देख कर जीवन में प्रथम बार अनुभव किया था कि ये आंसू कितने बेशकीमती होते हैं। मैं किसी तरह उन्हे सांत्वना दिया। चाचा की आंखों के आंसू मुझे भी भाव-विह्वल कर गए। मैं भी एक विकट स्थिति में पड़ गया था जिससे निकल पाना आसान काम नही था। बिरादरी के लोंगों की नजर मुझ पर ही केंद्रित थी। कुछ देर बाद चाची ने कहा- “बेटा, कलकता से आए हो। सफर में परेशानी हुई होगी। चलो, नहा खाकर आराम करो। शेष बातें शाम को होगी। ”
शाम तक इंतजार करने के लिए मेरे पास धैर्य नही रह गया था। मन के किसी कोने में सदा यह बात टीसती रही कि दीदी से मिलना जरूरी है. हर पल किसी न किसी प्रकारके अनचाहे विचार मन में कौंध कर आते और चले जाते थे। सोचता रहा कि सभ्यता संस्कृति, रीति-रीवाज एवं परंपरा की सीमाओं की अतिक्रमण करने वाली दीदी को कैसे समझाउं कि तुम्हारी सोच कितनी गलत है। अभी तक गांव में रीति-रीवाज बदले नही हैं। इस परिवेश में दीदी का शादी से इन्कार करना अन्य रिश्तेदारों को क्या संदेश देगा !परिवार, बिरादरी एवं गांव की इज्जत माटी में मिल जाएगी। हमारा परिवार मुंह दिखाने लायक नही रह जाएगा। रिश्तेदारों एवं सगे संबंधियों की निगाह में वह साख नही रह जाएगी जिसका हम वास्तविक रूप में हकदार हैं।
सोच-विचार की निरंतर प्रक्रिया में लीन अचानक मेरे कदम दीदी के कमरे की ओर बढ़ गए थे। स्वभाव से शांत,गंभीर एवं मृदुल-भाषी दीदी मेरी प्रेरणा स्रोत भी रही थी। अपने बड़े भैया के संग पटना में रह कर उन्होने एम,ए,(हिंदी) की परीक्षा भी पास कर ली थी। सोचता रहा कि उन्हे कैसे समझाउंगा कि जो कुछ भी तुम कर रही हो गलत है। फिर भी अपने आप को संभाले कमरे में प्रवेश किया। उस समय वह कोई किताब पढ़ रही थी। उनका चरण–स्पर्श किया पर वे कुछ नही बोली। फिर भी, मैं सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गया।
स्मृतियों के गवाक्ष से उन बीते दिनों की अविस्मरणीय स्मृतियां अतीत के चलचित्र की तरह सामने आती गयी। वह दिन भी याद आने लगा जब दीदी मुझे डांट कर अंग्रेजी पढाती थी एवं हिंदी का हैंडराइटींग सुपाठ्य न होने के कारण मारती भी थी। बचपन से ही उनका मेरे प्रति एक विशेष लगाव रहा था। जब कभी गांव से कलकता वापस आता था। वह उदास रहने लगती थी। विदा लेते समय एक ही बात कहती थी-“पहुचते ही पत्र देना।”कुछ देर तक शांत–भाव से बैटा रहा किंतु मन में चल रहे भावों को मूर्त रूप देने के लिए सहसा पूछ बैठा-:दीदी क्या बात है कि घर के सभी लोग नाराज हैं! तुम शादी के लिए इंकार क्यों कर रही हो!
यह प्रश्न सुनते ही स्वभाव से शांत दिखने वाली दीदी आग बबूला हो उठी एवं देखते ही देखते उनका शांत एवं सौम्य मुख-मडल रक्ताभ हो उठा। गुस्से में शेरनी की तरह बिफरती हुइ चिल्लाने लगी। उनके इस अप्रत्याशित क्रोध का प्रथम साक्षात्कार देख कर मैं भी हतप्रभ होकर रह गया था। जितना भी शांत करने का अनुरोध करता रहा उतनी ही वे उग्र रूप धारण किए जा रही थी । एकाएक रोते-रोते बोल उठी-“ कान खोल कर सुन लो- मैं शादी करूगी तो अपनी मर्जी से। मैंने अपना वर चुन लिया है। वह भी राजपूत जाति का है एवं मेरा रिश्ता उसके घर से जुड़ गया है। इन रिश्तों को मैं अपने से अलग नही कर सकती हूं। तुम्ही बोलो उन चिर संजोए रिश्तों का क्या होगा जिन्हे मैं उनके मां, बाप एवं सगे-संबंधियों के पास छोड़ कर चली आयी हूं। ये रिश्ते अब तो मेरे मन-मदिर में रच बस गए हैं। सबको मैं एक अटूट रिश्ते में बांध चुकी हूं। उन रिश्तों को कैसे भूल सकती हूं जिनके सहारे मैने अपने जीवन की बुनियाद डाल दी है एवं जीवन के सतरंगी सपने भी बुनेहैं। तुमको भी समझ गयी । मैं नही जानती थी कि यहां हर लोगों की तरह तुम भी पाषाण-हृदय निकलोगे। तुम अभी इस वक्त यहां से चले जाओ, इसमें ही तुम्हारी भलाई है। तुम्हारे किसी भी सुझाव की मुझे जरूरत नही है। अच्छा होगा, तुम कलकता लौट जाओ और अपनी दुनिया में खुश रहो। मैं अब किसी की परवाह करने वाली नही हूं।
इतना सुनते ही मेरा अंतर्मन एक असीम पीड़ा से व्यथित हो उठा। शोर-गुल के कारण घर और बिरादरी के लोग भी इकत्रित हो गए। उन सारे लोगों की उपस्थिति के कारण मैं अपने आप को अपमानित सा महसूस करने लगा था एवं न जाने किन भावनाओं के वशीभूत होकर दीदी को जोर से दो चार- थप्पड़ मार दिया था। वे फर्श पर गिर गयी थी। कहते हैं- ‘क्रोध आता है तो बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।‘ठीक वैसा ही मेरे साथ भी हुआ। मेरा भी मन ग्लानि एवं पश्चाताप की असहनीय अग्नि में झुलस सा गया था। पता नही कौन सा पागलपन सवार हो गया था। एक पल के पागलपन ने मुझे हमेशा-हमेशा के लिए दीदी से अलग कर दिया था। सब लोग किसी तरह समझा-बुझा कर मुझे वहां से बाहर लाकर दालान में बैठा दिए। चाची भी आ गयी और बोली-‘अब मैं सब कुछ जान गयी हूं। तुम बेकार में उसके मुंह लगे। चुपचाप रहो-अब हम सब वही करेंगे जैसा वह चाहती है।“इस घटना के बाद पंद्रह दिन तक गांव पर रहा एवं इन पंद्रह दिनों में क्या- क्या नही देखा, क्या –क्या अनुभव नही किया। दीदी मुझसे बात तक नही करती थी। जब भी कभी सामने पड़ती थी अपना मुंह दूसरी तरफ कर लेती थी। निराशा एवं अवसाद के इन दिनों को काट पाना मेरे लिए असंभव सा प्रतीत होने लगा। बड़े भैया को सूचित कर दिया था। देखते ही देखते मेरा दुखद एवं अशांतमय जीवन किस तरह बीत गया पता ही नही चला। इसी बीच भैया भी कलकता से आ गए। वस्तु-स्थिति को गंभीरता से चिंतन- मनन करने के बाद परिवार के सभी सदस्यों ने निर्णय लिया कि उसके कहे अनुसार ही शादी की रश्म पूरी की जाएगी। अंतत: उसकी शादी वहीं पर करने का अनंनतिम निर्णय ले लिया गया।
पंडित जी को बुलाया गया। लड़के वाले भी पटना से आए। वरीच्छा, तिलक एवं शादी का दिन एक महीने के अंदर रख दिया गया। मैं अब कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही था वल्कि इन सारी विधियों का मात्र एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह बन कर रह गया था । सब कुछ जान पाने के कारण भैया ने मुझे कलकता वापस जाने के लिए कह दिया। उनकी बातों को ध्यान में रख कर वहां से चलने का इरादा बना लिया क्योंकि मेरा भी मन अस्थिर रहने लगा था। मुझे आत्म-ग्लानि के साथ-साथ अपने किए पर पश्चाताप भी हो रहा था। मन ही मन सोचा था- चलते-चलते दीदी से माफी मांग लूंगा। दीदी तो काफी पढ़ी लिखी है, मुझे अवश्य मांफ कर देगी । आख्रिर उनसे मेरा एक अटूट रिश्ता भी तो जुड़ा है पर दूसरे ही पल इस बात का अहसास हुआ कि बचपन से लेकर आज तक जो रिश्ता मेरे साथ जुड़ा़ रहा वह मेरे विगत जीवन का एक अभिन्न हिस्सा था जो एक हव की खूशबू की झोके की तरह आया और चला गया । एक पल का पागलपन मेरी शेष जिंदगी को तहस- नहस कर दिया ।
दूसरे दिन कलकत्ता आने की तैयारी करने लगा । अब इन्हीं विचारों में खोया रहता था कि दीदी से मांफी मांग लूंगा । मेरा अंतर्मन एक असीम व्यथा से प्रभावित होने लगा था। मैं किसी तरह उनके पास गया एवं पैर पकड़कर माफी मांगने लगा । अपना पैर पीछे करते हुए दीदी ने रोते हुए कहा – “तुम यात्रा पर जा रहे हो । इस अवसर पर तुमसे उम्र में बड़ी होने के कारण कुछ भी नहीं कहुंगी, पर इतना याद रखना कि मेरी शादी में तुम मत आना। यदि तुम नहीं आओगे तो मुझे अत्यधिक खुशी होगी । दुख इस बात का है कि तुम छोटा होकर मेरे उपर हाथ उठाए हो। याद रखना तुमने अच्छा काम नहीं किया है। तुम तो मेरे बराबर पढ़े लिखे भी नहीं हो । कहां मैं एम.ए और कहां तुम स्नातक । तुम्हारी बुद्धि भी तो नहीं है। जब मेरे बराबर हो जाना तब सुझाव देना । बस, इतना ही काफी है। तुम्हारी दीदी तो उस दिन ही मर गई थी जिस दिन तुमने भरे समाज में मेरे मुंह पर थप्पड़ मारा था। वह थप्पड़ मुझे आजन्म याद रहेगा। तुम खुशी-खुशी अपनी जिंदगी में लौट जाओ।लेकिन याद रखना जब तक तुम मेरे बराबर नहीं हो जाते, अपना मनहुस चेहरा कभी भी मुझे दिखाने की कोशिश न करना।”
इन सारी बातों ने मुझे अत्यंत दुखी कर दिया । बहुत रोया, माफी मांगा पर दीदी का कलेजा पत्थर हो गया था। उन्होंने मुझे माफ नहीं किया। मन ही मन सोचने लगा था –इस जंग में दीदी तुम जीत गयी एवं मैं हार गया । समय हो चुका था। स्टेशन जाने वाली जीप दरवाजे पर खड़ी थी । चाचा, चाची एवं अन्य सगे संबंधियों को प्रणाम करने के बाद दीदी के कमरे की ओर गया पर मुझे आते देख उन्होंने अपना कमरा बंद कर दिया था। चाची पीछे से आयी और बोली कोई बात नहीं बेटा एक महीने बाद सब कुछ ठीक हो जाएगा। मन को दुखी मत करो, आखिर वह तो तुम्हारी बड़ी दीदी है। समय आने पर पत्थर का कलेजा भी पिघल जाता है। वह तो तुम्हारे तरह ही संबेदनशील है। पढ़ी- लिखी है, कुछ दिन में वह स्वयं अच्छे बुरे का निर्णय ले लेगी।
मैं पश्चाताप तथा घोर चिंता के साथ विदा तो ले लिया लेकिन एक पल आंखों को बंद करने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि दीदी कह रही है कि जिस ऊंचाई पर आज तुम्हारे पैर जमे हुए हैं,उसके नीचे की जमीन मेरे कारण ही सख्त है। मन में पुनः यह विचार भी आया कि जीप खुलते ही दीदी आएगी पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पश्चाताप एवं असीम वेदनाओं के साथ- साथ आंखों में आंसूओं का सैलाव लिए वहां से रवाना हो गया था। मैं कोलकाता पहुंचकर घर के सभी लोगों को इस संबंध में अवगत कराया । उसके बाद सामान्य जीवन अपने रूप से गुजरने लगा था। कुछ दिनों बाद भैया भी गांव से कोलकाता आ गए थे । अगले महीने में दीदी की शादी के कारण सभी लोग तैयारी में जुट गए थे। एक हफ्ते के अंदर सारा बाजार कर लिया गया। धीरे- धीरे वह दिन भी आ गया जब घर के सभी लोग गांव जाने की तैयारी में व्यस्त रहने लगे लेकिन मैंने भैया को बता दिया कि मैं इस शादी में नहीं जाउंगा क्योंकि मैं महसूस कर रहा था कि इतना लांछित और अपमानित होने के बाद मेरा दीदी की शादी में जाना अर्थहीन है एवं आत्म-सम्मान से धोखा भी ।
दूसरे दिन घर के सब लोग चले गए लेकिन अंतरमन में एक आत्मीय रिश्ते की भीनी- भीनी सुगंध एवं विगत स्मृतियां अपना वर्चस्व स्थापित करने में सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन समर्थ रहीं । करीब एक महीना गुजरने के बाद सभी लोग कोलकाता वापस आ गए। कुछ दिनों तक दीदी की शादी के बारे में चर्चा होती रही एवं उसके दौरान मैं भी कभी-कभी उनके बारे में जानने के लिए कोई प्रश्न कर बैठता था पर किसी ने भी इस बात का जिक्र नहीं किया कि वह मेरे बारे में भी कुछ कहती थी ।
समय के प्रवाह के साथ साथ तथा जीवन के व्यस्त क्षणों को व्यतीत करते करते दीदी की स्मृतियां धूमिल सी होने लगी थी। उदासी के इन क्षणों में जब कभी भी उनकी याद आती थी। मेरे धैर्य की सीमा टूट जाती थी एवं आंखे अश्रु-प्लावित हो जाती थी।यह सोचकर ही संतोष कर लेता था कि एक न एक दिन दीदी का मेरे प्रति स्नेह उभर जाएगा एवं मुझे वह जरूर एक पत्र लिखेगी । कहते हैं- इंतजार की घडि़यां काटने पर भी नहीं कटती हैं- ठीक वैसा ही हुआ । आज तक दीदी का कोई पत्र या किसी के मार्फत कोई संदेश तक नहीं आया। आज दीदी की याद और भी प्रबल हो उठी जब मेरा एम.ए हिंदी का रिजल्ट आया । इसे देखते ही दीदी का चेहरा स्पष्ट रूप से उभरकर मेरे सामने आने लगा जो प्रायः कई वर्षों तक मन के किसी कोने में उभर नहीं पाया था । रिजल्ट देखकर दीदी की वह बात याद आने लगी थी कि तुम केवल ग्रेजुएट हो। मेरे बराबर हो जाना तब किसी प्रकार का सुझाव देना। इतने दिनों तक इस दर्द को मन में दबाए रखने के बाद अब उसकी जगह एक अनिर्वचनीय खुशी से मन भरा रहता है – यह सोचकर की जिंदगी में कई अवसर आएंगे एवं शायद इस शेष जीवन के किसी भी मोड़ पर यदि दीदी से मुलाकात होगी तो उसके समकक्ष खड़ा तो हो पाउंगा। इतना कुछ होने के बाद भी उनके प्रति मेरी असीम श्रद्धा आज तक यथावत बनी रही है एवं मेरे लिए आज भी वे चिर पूजनीय है। यदि यह संस्मरण मेरी दीदी पढ़ेगी तो शायद मेरी मनोदशा से अवश्य परिचित हो जाएगी। इसके माध्यम से मैं अपनी दीदी से पुनः क्षमा प्रार्थी हूँ। दीदी मुझे माफ कर देना । मुझे पता नहीं था कि एक पल का पागलपन विगत कई वर्षों का समय मुझे इतना संत्रस्त, विकल एवं उदासीन करके बेदर्द हवाओं की तरह अपना रूख बदल कर मेरी जिंदगी की दशा और दिशा दोनों को एक अलग नाम दे देगा। भगवान से यही विनती करता हूँ कि मेरी श्रद्धेय दीदी जहां भी रहे, भगवान उन्हें धन धान्य एवं सुख-शांति से भरी जिंदगी दें एवं हर खुशी उनका चरण चुमें। इन विषम परिस्थितियों में भी यह सोचकर आशान्वित रहता हूं कि इस जीवन के किसी भी मोड़ पर यदि दीदी से मुलाकात हो जाएगी तो वह शायद मुझे अवश्य माफ कर देगी एवं कहेगी कि भाई, अब तक मै तुम्हारे बिना डार से बिछुड़ी पत्ती की तरह जीती रही हूं। काश! उन दिनों मै उनकी भावनाओं को समझ पाता। मेरी कामना रहेगी कि दीदी अपनी दुनिया में खुश रहें।उन्हें हर मुकाम और मंजिल हासिल हो।
आप जहां भी रहे आबाद रहे,
वैभव सुख-शांति साथ रहे,
पुनीत हृदय से कहता हूँ,
जग की खुशियां पास रहे ।
Wednesday, November 3, 2010
संस्मरण
प्रेम सागर सिंह
हर इंसान के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ होती है जो प्रायः उसे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अहर्निश प्रभावित करती रहती हैं । कहा जाता है कि जिंदगी की कुछ अहम बातें समय और उमर के साथ जुड़ी होती है और यदि उमर बीत जाए एवं वे बातें अनकही रह जाएं तो उन्हें फिर कभी नहीं कहना होता । लेकिन आज वे सारी बातें भावनात्मक ज्वालामुखी के रूप में स्वतः सामने आ गई । कल्पना ने टेलिफोन द्वारा सूचित किया कि उसकी नियुक्ति दिल्ली के किसी मंत्रालय में ‘विधि सलाहकार’ के पद पर हो गई है एवं वह कल दिल्ली जा रही है । शाम को घर आते हे मुझे उससे मिलने की उत्कट इच्छा जाग्रत होने लगी । उसके यहाँ से चले जाने की बात ने अचानक मुझे अतीत की स्मृतियों के विवर में झाँकने पर मजबूर कर दिया । मुझे 22 वर्ष पूर्व ‘सुरेन्द्र नाथ ला कॉलेज ‘ के वे दिन याद आने लगे जहाँ से हम दोनों ने साथ-साथ तीन वर्ष की पढ़ाई पूरी कर विधि-स्नातक की डिग्री हासिल की थी ।
उन दिनों मैं वायु सेना में ‘सीनियर नान-कमीशन्ड आफिसर’ के पद पर कार्यरत था एवं प्रोमोशन तथा आगे पढ़ने की इच्छा के कारण यह पाठ्यक्रम चुना था । प्रवेश फार्म लेते समय अचानक मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी जो काउन्टर के पास खड़ी अन्य लोगों को अपलक नयनों से नीहार रही थी । उसकी भाव- भंगिमा एवं आँखें, लगता था कुछ कहना चाह रही हैं । फार्म लेने के बाद न जाने किन भावनाओं के वशीभूत होकर मेरे कदम अचानक उसकी ओर बढ़ गए थे । मैं आज तक इसे समझ नहीं पाया । पास पहुँचकर मैंने उससे पूछा – “क्या तुम फार्म नहीं लोगी?” इस पर उसकी आँखें नम हो गई थी एवं उन नम हुई आँखों में झांककर मैं जो कुछ पढ़ा, अनुभव किया, वह मुझे समझाने के लिए काफी था । कालेज कैम्पस में शोरगुल के कारण मैं उसे अति आग्रह के साथ बाहर लाया एवं एक चाय दुकान में बैठकर बातों का सिलसिला शुरू हुआ । दोनों ओर से परिचय का आदान-प्रदान हुआ एवं मैं यह जान पाया कि उसका नाम कल्पना है एवं बिहार की रहने वाली है । उसका स्वाभाव एवं बातचीत करने का ढंग प्रथम मुलाकात के दौरान ही मुझे इतना आत्मीय बना दिया जैसे कि हम दोनों वर्षों से एक दूसरे से परिचित हैं। उसने अपनी हालातों का वर्णन कुछ इस तरह से किया कि मैं भी उसके बारे में जानने के लिए जिज्ञासु हो उठा। उसने बताया कि उसके पिताजी टी.बी. के मरीज हैं। वे भी ‘वायु सेना’ से बहुत पहले ही अवकाश प्राप्त कर पेंशनभोगी हैं। घर की आर्थिक स्थिति आपसी बँटवारा के कारण दयनीय हो गई है । पेंशन ही अब मात्र जीविका का सहारा है । मुझे बचपन से ही वकील बनने की तमन्ना थी किंतु खर्च का अनुमान एवं पैसे का इंतजाम संभव न होने के कारण मैं पूरी असमंजस की स्थिति में निर्णय नहीं ले पा रही हूँ ।
मैं उसकी बातों को सुनकर एकदम भावुक हो उठा । उसे मदद करने की बेचैनी की एक असहनीय वेदना मुझे प्रभावित करने लगी । मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि इस दुनिया में कौन इसकी अंतहीन व्यथा को सुनेगा, कौन है जो इसके सुख-दुख में समभागी बनेगा । लाखों लोगों के अपने-अपने अरमान होते है क्या सब लोगों के अरमान पूरे होते हैं ? कितने लोग आगे बढ़कर ऐसे लोगों की मदद करते हैं? मैं सोचने लगा कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति काम आ जाना ही सही संदर्भों में जिंदगी जीना होता है । अपने बारे में तो सभी सोचते हैं – अपना भविष्य निर्माण करते हैं – घर बसाते हैं, लेकिन इंसानियत यही कहती है कि यदि दूसरों के बारे में भी कुछ ऐसा ही सोचा जाए तो इंसानियत का अर्थ एक नए रूप में उभरकर सामने आता है
अचानक मैं कह बैठा-“कल्पना, मैं विश्वास दिलाता हूँ कि हर रूप में तुम्हारी मदद करूँगा । सारे खर्च वहन करूँगा । तुम इसे अन्य रूप में न लेना । यदि तुम राजी हो जाओगी तो जिदंगी का परम सुख मुझे मिल जाएगा।“ यह सुनकर वह अवाक नजरों से, मुझे देखती रही । मैंने अनुभव किया कि उसके चेहरे पर आशा और विश्वास की हल्की रेखाएँ उभरने लगी थी । गंभीर मुद्रा से निकल कर एक हल्की मुस्कान के साथ उसने कहा-‘पिताजी से सारी बातें कहूँगी एवं यदि वे आज्ञा देते हैं तो मैं आपके प्रस्ताव को स्वीकार कर लूंगी । अगले दिन पुनः कॉलेज में मिलने का वादा कर हम अपने अपने घर चले आए थे । दूसरे दिन निर्धारित समय पर वह कॉलेज आ गई थी । मैं मुख्य द्वार पर बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था । आते ही उसनें मेरा हाथ अपनी हाथों में पकड़ कर उसी दुकान की तरफ ले गई जहाँ हम दोनों पहली बार मिले थे । कुछ नाश्ता पानी के बाद उसने कहा- “पिताजी आपसे मिलना चाहते हैं । आप भी वायुसेना में कार्यरत हैं एवं वे भी इसी सेना में थे सो लगता है यह आकर्षण उन्हें कुछ हद तक आपके उपर विश्वास का कार्य कर रहा है।”
इसके पूर्व कि कुछ कहूँ उसने कुछ भी सुनने से इंकार किया एवं अपने घर ‘बेलघरिया’ चलने के लिए मुझे मजबुर कर दिया ।
घर पहुँचते ही मुझे ऐसा एहसास हुआ कि जो भी उसने कहा सब सच है । उसने मुझे एक कमरे में बैठाकर चाय पानी दिया एवं स्वयं दूसरे कमरे में चली गई जहाँ उसे पिताजी रोग-शैया पर पड़े जिंदगी के शेष दिन गिनती कर रहे थे । थोड़ी देर बाद वह आई एवं मुझे पिताजी के कमरे में लेकर गई । मैंने उनका चरण-स्पर्श किया एवं ज्योंहि कुर्सी पर बैठा तो देखा उनकी आँखों से आसूँ निकल रहे थे । मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था कि ये खुशी के आँसू थे या दुख के । एक संक्षिप्त परिचय के बाद जब उन्हें ध्यान से देखा तो मेरे पैर तले की धरती खिसकती नजर आने लगी और मुझे याद आया कि ये तो ‘जैसलमेर’ यूनिट के मास्टर वारंट आफिसर अशोक सिंह थे जिनके अधीन मैं एक जुनियर अधिकारी था । उन्होंने भी मुझे पहचान लिया एवं कहा- “सर्जेंट प्रेम सागर सिंह, तुम आज भी बदले नहीं । मुझे गर्व है कि तुम पहले की तरही आज भी सक्रिय, सफल एवं कुशल इंसान हो।” मुझे याद आया कि ये वही वांरट आफिसर थे जिन्होंने ‘फील्ड एरिया’ से मेरी छुट्टी मुख्यालय तक दौड़ लगा कर कराई थी । मेरी माँ का निधन हो गया था एवं ‘जैसलमेर’ (राजस्थान) जैसे संवेदनशील जगह पर तैनात रहने के कारण छुट्टी देना अधिकारियों के लिए आसान काम नहीं था। ज्यों-ज्यों ‘श्राद्ध ’ का दिन नजदीक आता गया मैं उदास होता चला गया एवं एक दिन अचानक उन्होंने मेरी छुट्टी काफी दिक्कतों के बाद मंजूर कराकर रेलवे वारंट एवं अन्य कागजात मेरे हाथों में सौंप कर कहा था – “सर्जेंट, नाऊ यू कैन प्रोसीड आन लीव।“ मरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा-मैं उनका चरण स्पर्श करना चाहा तो उन्होंने कहा था कि एक सीनियर होने के नाते मैंने अपना कर्तव्य किया है कोई एहसान नहीं । आखिर, मैं भी तो मनुष्य हूँ एवं मनुष्य होकर एक दूसरे के सुख-दुख को समझना उसे सुलझाना ही सही मायने में इंसानियत की सच्ची तस्वीर होती है सो मैंने किया है । बातों का सिलसिला जारी रहा । उन्होंने मेरे बारे भी पूछा, परिवार, रिश्ते सभी चर्चा के विषय रहे । वायु सेना में साथ-साथ काम करना एवं स्वजातीय आकर्षण के कारण उन्होंने मेरे परामर्श को स्वीकार कर लिया । एक विश्वास एवं आत्मीय लहजे में उन्होंने कहा- “प्रेम, कल्पना का भविष्य, मेरे अरमान, इज्जत सब तुम्हारे हाथों सौंप रहा हूँ । आज के इस युग में तुम्हारे जैसा इंसान मिलना संभव नहीं । तुम से मिलकर मुझे आज जो खुशी मिली है इसका इजहार करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं है । कुछ दिन तक तो घर में रिश्तेदारों का अपने जाने का क्रम जारी रहा किंतु आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हाने के कारण आज बहुत दिन हो गए अब काई आता जाता नहीं है । ऐसे समय में तुम्हारा आगमन मेरे लिए ईश्वरीय उपहार है । लगता है हमारा, तुम्हारा एवं कल्पना का जन्म-जन्मांतर का संबंध है ।” यह कहते हुए वे बहुत भावुक हो गए थे, कल्पना भी बगल में बैठी थी । मैं उन्हं आश्वासन देकर विदा लेने लगा तो उन्होंने कहा – “कल्पना को कल कॉलेज भेज दूँगा एवं जो भी संभव हो करना. भगवान तुम्हें सदा सुखी रखें । ”
दूसरे दिन कल्पना निर्धारित समय पर कॉलेज पहुँच कर मेरा इंतजार कर रही थी । फार्म लेकर वहीं भरा गया एवं फीस वगैरह जमा करने के बाद मुझे काफी प्रसन्नता हुई । कल्पना का मुख-मंडल भी एक अप्रत्याशित खुशी से अत्यधिक कांतिमय हो गया था । इसके बाद पुस्तक सूची में दिए गए किताबों को खरीद कर उसे दे दिया । समय काफी हो चुका था । अतः हम अपने-अपने घर के लिए रवाना हो गए ।
सोमवार से प्रथम वर्ष का क्लास प्रारंभ हुआ । मैं और कल्पना एक ही साथ बैठते थे। वह बहुत ही तेजस्वी छात्रा निकली । कभी-कभी जो विषय प्रोफेसर साहब के समझाने पर भी मुझे समझ में नहीं आता था उसका स्पष्टीकरण वह बडी ही सहजता से मुझे समझा देती थी। कहा जाता है- समय और ज्वार-भाटा किसी का इंतजार नहीं करता। ठीक वैसा ही हुआ। समय के प्रवाह के साथ हम दोनों अच्छे नम्बरों से प्रथम,द्वितीय.एवं तृतीय वर्ष पास कर गए। अंतिम वर्ष के समाप्त होने के कुछ महीने पूर्व हमारी दूरियां,एक पवित्र रिश्ते की सुगंध एवं उसके पिताजी का मेरे ऊपर अटूट विश्वास की मजबूत नींव लगा कि धाराशायी हो जाएगी किंतु मन तो एक ही होता है.दस बीस तो होता नही। मै भी कुछ परेशान सा रहने लगा था।गहन चिंतन के बावजूद ऐसा महसूस हुआ कि हम दोनों अपने–अपने लक्ष्य से भटक रहे हैं। मेरी आत्मा भी मुझे कोसने लगी एवं मै खुद एक ऐसी स्थिति में पहुच गया था जहां से किसी भी व्यक्ति के लिए वापस लौटना एक सहज एवं स्वाभाविक प्रक्रिया से होकर गुजरने में ही संभव था। इधर कुछ महीनों से अनुभव कर रहा था कि वह तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड देना चाहती थी। हम दोनों एक दूसरे के प्रति अत्यंत सम्मोहित होने लगे थे।एक दिन उसने अति साहस एवं विश्वास के साथ कहा- प्रेम,मै तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करती रही कि तुम मेरे लिए जो कुछ भी किए हो उसके एवज में मुझसे कुछ आशा रखते होगे किंतु तुमने कभी भी ऐसा कुछ महसूस नही होने दिया लेकिन अब मै, सोचती हू कि तुम्हारे लिए अपने आप को समर्पित कर- एक बार ही सही, तमाम सामाजिक वर्जनाओँ को तोडकर, तम्हे एक अप्रत्याशित एवं अनिर्वचनीय सुख की पराकाष्ठा पर पहुंचाकर अपने आप को उऋणी कर लूं। इसका निर्णय अब तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है । मैं किसी भी दिशा में चलने के लिए राजी हूं।
इन सारी बातों को सुनकर मुझे ऐसा लगा था कि हजार बिच्छुओं ने मुझे एक साथ काट लिया हो। मेरा अन्तर्मन एक गहरी व्यथा से आंन्दोलित हो गया था।लगा था कि ऐसा कुछ करके मै अपने आप को बहुत ही छोटा महसूस करने लगूंगा। मैने प्रण किया कि जिस विश्वास के सहारे उसके पिताजी ने उसको मेरे ऊपर छोडा था एवं जिन पवित्र भावनाओं एवं इन्सानियत के मजबूत रिश्ते के वशीभूत होकर आज तक जो कुछ भी किया, उसे शर्मशार नही करुँगा।
अपने आप को इस अग्नि–परीक्षा की प्रत्येक कसौटी पर रखने के बाद मेरी अभिव्यक्ति को एक सार्थक रुप मिला। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मै किसी प्रिय वस्तु को जानबूझकर खो रहा हूं किंतु दूसरे ही पल पर संयम रखते हुए मैनं कहा था- कल्पना,आज तक तुम्हे मै उस रुप में कभी भी न देखा, न चाहा न कल्पना ही किया
है। मै तुम्हारी मंजिल नही था बल्कि तुम हमारी मंजिल थी- मै तुम्हारा भाग्य-विधाता नही था, तुम मेरी भाग्य विधाता रही हो एवं मेरी जीवन यात्रा का अंतिम पडाव तुम ही तो हो। तुम्हारी कल्पना साकार हो गयी यही मेरे जीवन का परमानंद है, मंजिल है, उद्देश्य है –तुम्हारी हर खुशी में मेरी अपनी खुशी छिपी हुई है। इन बातों को सुनकर वह अवाक सी रह गई। शायद प्रेम शब्द की व्याख्या से अपरिचित होने के कारण उसने इसे एक सहज रूप में लिया था। उसे समझाया, कुछ सोचनें पर मजबूर किया एवं इस बात का एहसास दिलाया कि तुमने जो कुछ भी सोचा एवं चाहा यह मेरे जीवन की अनमोल धरोहर रहेगी। वह एकाएक लगा किसी निंद्रा से उठकर कहने लगी- आज के युग में तुम्हारे जैसे लोग विरले ही मिलते हैं एवं आज तुम मेरे मन मंदिर में अराध्य- देव की जगह बस गए हो। तुम सर्वदा पूजनीय रहोगे-यह मेरा वादा रहा। इसके बाद वह बोली-प्रेम, तुम थोडा इंतजार करो। मै दस मिनट आ रही हूं। थोडी देर के बाद एक छोटा सा पैकेट लिए वह वापस आ गयी और मुझे उस पैकेट को हाँथ में देते हुए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में,बहुत देर तक पकडी रही और कहा-तुम्हे यह एक सौगात के रूप में दे रही हूं, अस्वीकार न करना। इसके बाद उस दिन से हम दोनों के परस्पर मिलते रहने की प्रक्रिया का भी अंत हो गया। बस में चढते समय उसके आंसू मुझे भी उसी तरह आंदोलित कर गए थे। घर आने के बाद उसकी हर बात याद आती रही - क्या खोया. क्या पाया सोचते- सोचते न जाने कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला । दूसरे दिन का सबेरा आज उतना मोहक नहीं लग रहा था। रोशनी के बाद भी लगता था कि इस सूर्य की रोशनी में बेनूर अंधेरा है ।
रोज की तरह आज भी आसमान में बादल छाए हुए थे । मन स्वस्थ एवं चिंताहीन रहता है तो प्रकृति का दृश्य एवं मौसम भी सुहावना लगता है । कल तक जो हवाएं एक सुखद एहसास, स्फूर्ति एवं नव-जीवन का संचार करती थी, आज वही बेदर्द हवाएं तन को कष्ट पहुंचा रही थी । न्यूज पेपर पढ़ते-पढ़ते अचानक कई विचार एक साथ मन में आने लगे थे । कुछ हद तक दार्शनिक भाव से प्रभावित होने लगा था । सोचने लगा था कि जिंदगी के कई रंग होते है एवं हर रंग अलग-अलग महत्व रखते हैं जो भी अपने आप को जिस रूप एवं शैली में चाहा रंग लिया लेकिन अफसोस होता है कि इंद्रधनुष में समाहित सात रंगों में से कोई भी रंग न मुझे रंग पाया न कल्पना को ही । इस हसीन और रंगीन दुनिया में ही हम दोनों चाह कर भी बेरंग रह गए थे । आज कालका मेल से कल्पना दिल्ली जा रही थी । मैं नियत समय पर हावड़ा स्टेशन पहुंच गया था । कल्पना और उसके सगे-संबंधी सभी लोग पहुंच गए थे । निर्धारित समय पर गाड़ी प्लेटफार्म पर आ गई थी । सभी लोग सवार होने लगे थे । मै एक मूक दर्शक एवं वियोग की विषम वेदना से व्यथित कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही था। कल्पना का सारा सामान ट्रेन के अंदर रखा जा चुका था। धीरे-धीरे मै भी कंपार्टमेंट के नजदीक आ गया। कल्पना ने आगे बढ कर मेरा चरण स्पर्श किया। मेरा भी मन एक सुखद एहसास की अनुभूति से पुलकित हो उठा। वियोग की इस घडी मे मेरी चिंतन शक्ति, संवेदना, अभिव्यक्ति सभी बेजान सी हो गयी थी। इंसान चाहे जैसा भी हो उसके अंतर्मन में एक कोमल भावुकता अपना स्थायी रूप सुरक्षित रखती है। उसकी अभिव्यक्तियां,मानसिक संवेदनाएं सभी भाव शून्य हो जाती हैं। मन अधीर हो जाता है।मैं भी शायद इन सभी कारकों का शिकार हो गया था।गाडी खुलने का समय हो गया था।मैं खिडकी के पास खडा अपने आप पर नियंत्रण बनाए रखा था किंतु वियोग की अंतिम बेला में जो काम शब्द नहीं कर पाते आँसू कर जाते हैं। ऐसा मेरे साथ भी हुआ एवं चाहकर भी मैं आँसुओँ के पारावार को रोक न सका। इसके पूर्व कि मैं उन अविरल प्रवाहित आँसूओँ को पोछने के लिए अपना रूमाल निकालता- कल्पना ने बडे ही आत्मीय भाव से अपने दोनों हाँथों से मेरी आँखों से बहते हुए आँसुओं को पोंछ डाला। गाडी़ धीरे- धीरे प्लेटफार्म छोडने लगी थी। मैं भी खिडकी को पकडे आगे बढ रहा था-अचानक कल्पना ने अपने दोनों हाथों से मेरा हाँथ पकडकर डबडबाई आखों से कहा था-प्रेम जब कभी दिल्ली आना, मुझसे जरूर मिलना—मै आजीवन तुम्हारा इंतजार करूंगी और अपने दिल में थोडी सी जगह तुम्हरी स्मृर्ति के रूप में अहर्निश सुरक्षित रखूँगी। गाडी चली गयी एवं
एक अंतहीन व्यथा को मन में लिए मैं घऱ वापस आ गया था। सोते समय अचानक मेरी नजर कल्पना द्वारा दिए गए पैकेट पर पडी- जिज्ञासाभाव से खोला तो देखा कि उसमें एक बेहतरीन रूमाल, लव बर्डस तथा दो सुंदर गुलाब के फूल थे जो आज भी मूल रूप घर के शो केश में वैसे ही पडे़ है।
इक बार तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना.
सौ बार रब ने तेरी तस्बीर दिखा दी।
प्रेम सागर सिंह
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Tuesday, August 17, 2010
कविता तेरे रूप अनेक
कविता तेरे रूप अनेक
प्रेम सागर सिंह
मन में आए भावों एवं शब्दों के साथ,
लालित्य एवं गेयता जब आ जाती है,
तब कवि-मन प्रस्फुटित हो जाता है,
और लेखनी स्वत: बोल उठती है।
समस्त कारकों को अपने में समाहित
करने के बाद संपूर्ण भावों के
सामीप्य में आकर ये उदगार,
कविता का रूप बन जाते हैं।
प्रेस में छपने के बाद कविता
उस रूप में नही रह जाती है,
उसके भाव, शब्द एवं अभिव्यक्ति,
सभी समवेत स्वर में बोल उठते हैं।
व्याकरण के समस्त उपादान,
अपने-अपने स्थान को परिवर्तित कर,
कविता का चिर- संगी बन कर ,
उससे अटूट रिश्ता जोड़ लेते हैं।
ये तो कविता के भाव की बातें हैं
पढ़ने पढ़ाने और छपने की बातें हैं,
तभी यह कविता कई अनकहे भावों को,
अचानक ही विस्फोट करा कर
साहित्य-जगत में हलचल मचा देती है।
किसी के मुख-मंडल को पीताभ तो,
किसी को रक्ताभ करने के साथ-साथ ,
किसी को हरीतिमा प्रदान कर जाती है.
य़ह कविता।
दुख-दर्द एवं पीड़ा से व्यथित व्यक्ति के,
रूदन की जिंदगी से कुछ लमहे निकाल कर,
एक पल के लिए ही सही, कभी हंसाती है,
तो कभी हंसते हुए को रूला भी देती है,
यह कविता।
हर प्रेमी कवियों के अंतर्मन में ,
झांकती और बसती है, यह कविता,
सम्मेलन एवं कवि-गोष्ठियों में
हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक बन जाती है,
यह कविता।
युवा पीढ़ी की धड़कन के साथ-साथ
उनके रंगीन सपने को बुनती है,
यह कविता।
जहां भी इसे प्रस्तुत किया जाता है
उस जगह को काव्यमय बनाती है,
यह कविता।
संयोग और वियोग के भावों को,
सजाकर प्रस्तुत करती है यह कविता,
हर स्तर के लोगों के आवाज को ,
मुखरित करती है यह कविता
समय के प्रवाह के साथ-साथ,
एक जगह पर स्थिर होने के बाद,
केदार नाथ सिंह सरीखे कवियों के
सामीप्य में आने के बाद स्वत: ही,
आलोचना के कठघरे में खड़ी होकर,
इसकी विषय-वस्तु बन जाती है,
यह कविता।
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