Sunday, May 27, 2012

आज भी कबीर जनमानस में रचे बसे हैं


आज भी कबीर जनमानस में रचे बसे हैं

    (कबीर)

कबीर की वाणी का अनुकरण नहीं हो सकता। अनुकरण करने की सभी चेष्टाएँ व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियाँ श्रोता को बलपूर्वक आकृष्ट करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक सम्भाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को 'कवि' कहने में संतोष पाता है। “--- हजारी प्रसाद द्विवेदी

          प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह (प्रेम सरोवर)


भारत के प्राचीन कवियों में कबीर साहब एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में समाज-सुधार का संदेश सबसे अधिक है। उनके सत्य- लोक- गमन को कोई साढ़े चार सौ साल हो गए, लेकिन आज, भी उनके दोहे और पद पुराने नही लगते ।ऐसा लगता है मानो, उनकी रचना आज की स्थिति को सामने रख कर की गई हो; मानो उनके श्रोता पठानकालीन हिंदुस्तानी नही, बल्कि, वर्तमान काल के हिंदुस्तानी रहे हों। इसका कारण यह है कि कबीर साहब ने मानव समाज के बारे में जो सपना देखा था, वह अभी पूरा नही हुआ, न वह स्वप्न हमारा आँखों से ओझल हो पाया है । कबीर साहब भविष्यद्रष्टा कवि थे और भारतीय समाज की जो कल्पना उन्होंने की थी, वह इतनी मजबूत निकली कि वह आज भी हमारे साथ है और हम उसी कल्पना को आकार देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं ।

हिंदू समाज की सबसे बड़ी त्रुटि उन्हे यह दिखाई पड़ी थी कि इस समाज के लोग विचार के धरातल पर यह तो विश्वास करते हैं कि सारी सृष्टि एक ही व्रह्म से निकली है। इसलिए, सभी मनुष्य परस्पर समान हैं; किंतु आचार के धरातल पर उनका यह विश्वास खंडित हो जाता है, क्योंकि कुछ वर्णों को वे जन्मना श्रेष्ट और बाकी को अधम मानते हैं। कुछ मनुष्यों को स्पर्श के योग्य और कुछ को अक्षूत मानते हैं । हिंदू-समाज के भीतर प्रचलित इस रूढ़ि के खिलाफ कबीर साहब ने जीवन-पर्यंत संघर्ष किया और सारी जिंदगी वे हिंदुओं को समझाते रहे कि जन्म से भी मनुष्य समान हैं, ऊंच-नीच का भेद कर्म उत्पन्न करते हैं। अतएव, जन्म से एक को ब्राह्मण और दूसरे को शूद्र मत समझो, क्योंकि ऐसा विभेद करने का कोई आधार नही है ।

एक बूँद, एकै मल -मूतर, एक चाम, एक गुदा,
एक ज्योति से सब उत्पन्ना, को बाभन, को सूदा!

संतों  की और से जाति प्रथा को चुनौती  बहुत पुराने जमाने े मिलती आ रही है। ऐसे संतों में सबसे बड़ा नाम महात्मा बुद्ध का है ।असल में कबीर, नानक एवं महात्मा गांधी आदि महात्मा उसी धारा के संत हैं जो धारा बुद्ध के कमंडलु से बही थी । किंतु, इतने संघर्षों के बाद भी, जाति-प्रथा कायम है यद्यपि ज्यों-ज्यों समय बीतता है, उसके बंधन ढीले होते जाते हैं । नया हिंदुस्तान सभी रूढियों से मुक्त करने की आज भी संघर्ष कर रहा है और इस संघर्ष में हमें बहुत बड़ी प्रेरणा कबीर साहब से मिलती है ।

नए भारत की सबसे बड़ी समस्या हिंदू-मुस्लिम एकता की है । महात्मा गांधी का पूरा जीवन इस समस्या के सुलझाने का प्रयास था और, अंत में, इसी समस्या के सुलझाने की कोशिश में उन्होंने वीर गति भी पाई । इसी समस्या ने कबीर साहब को उतना ही बेचैन रखा था जितना उसने गांधी जी को रखा। अंतर यह है कि गांधी जी के मुंह से  कभी कोई ऐसी बात नही निकली जिससे हिंदुओं तथा मुसलमानों के दिल पर कोई धार्मिक चोट पहुंचे । लेकिन कबीर साहब के समय राजनीति का भय नही था। हिंदुत्व और इस्लाम के बीच का भेद मिटाने के लिए उन्होंने दोनों ही धर्मों की इतनी कटु आलोचना की थी कि दोनों ही धर्मों के नेता तिलमिला उठे । नतीजा यह हुआ कि कबीर साहब पर कठिनाईयां बरस पड़ी और उनके शत्रु दोनों ही गिरोहों में पैदा हो गए ।

अपनी निडर भाषा के कारण उनके विचार अंगारों की तरह  समाज की छाती में धड़कने लगे, उसी प्रकार वे पिछले करीब साढ़े चार सौ साल से दहकते चले आ रहे हैं ।कबीर साहब बार- बार मनुष्यों को एक परमात्मा का ध्यान दिलाते हैं और बार- बार कहते हैं कि इस एक को पाने के लिए अनेक पंथ क्यों बनाते हो और अगर पंथ एक बना भी लिए तो उन्हे लेकर परस्पर झगड़ते क्यों हो ! इस पर वे कहते हैं:-

जो खोदाय मसजीद बसतु हैं, और मुलुक कहीं केरा!
तीरथ-मूरत रामनिवासी, बाहर केहिका डेरा !
x         x          x          x             x               x

युग के अनुसार हमारी भाषा बदल गई है लेकिन, आज, भाव एक ही है ।कबीर ने ज्ञान से शास्त्र का अर्थ लिया था। आज का शास्त्र- ज्ञान विज्ञान है और अपने समय में ज्ञान के लेकर कबीर को जो चिंता थी, विज्ञान को लेकर वही चिंता आज के युग में देखी जा सकती है । पंडित और मूर्ख में से मूर्ख का पक्ष लेते हुए इकबाल ने लिखा है :--

तेरी बेइल्मी ने रख ली बेइल्मों की शान,
आलिम- फाजिल बेच रहे हैं अपना दीन-ईमान


नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य को आप सबके समक्ष प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयासों में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद ।

******************************************************************************************************************************************************************

50 comments:

  1. कबीर ने सबको दर्पण दिखाया तभी कबीर भारतीय जनमानस में इतने चाहे जाते हैं।

    ReplyDelete
  2. These great saints always worked for our society. But we never followed them. Today, we are struggling for living a better life but we are failed somewhere.
    Please, go on and throw light upon the deeds of the immortal souls.

    ReplyDelete
  3. These great saints always worked for our society. But we never followed them. Today, we are struggling for living a better life but we are failed somewhere.
    Please, go on and throw light upon the deeds of the immortal souls.

    ReplyDelete
    Replies
    1. It is really a stigma for us that we have not adopted the feelings and vision of Kabir in our life due to which our sufferings,agony led us to live a deplorable life.Thanks for your valuable comment.

      Delete
  4. कबीर जी एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में समाज-सुधार का संदेश सबसे अधिक है।आज, भी उनके दोहे और पद पुराने नही लगते ।ऐसा लगता है मानो, उनकी रचना आज की स्थिति को सामने रख कर की गई हो;

    MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि,,,,,सुनहरा कल,,,,,

    ReplyDelete
  5. बहुत बहुत शुक्रिया प्रेमसरोवर जी...

    आपकी ज्ञानवर्धक पोस्ट हमेशा की तरह संग्रहणीय है.

    सादर.
    अनु

    ReplyDelete
  6. कबीर जैसा कोई नहीं।
    अच्छा आलेख।

    ReplyDelete
    Replies
    1. महेंद्र वर्मा जी आपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।

      Delete
  7. कबीर जी हमेशा जनमानस के कल्याण की ही बात किया करते थे..
    इसलिए तो उन्हें समाजसुधारक भी कहा जाता है...
    बहुत ही अच्छी पोस्ट...:-)

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद रीना मौर्या जी ।

      Delete
  8. भक्त कबीर जी हमारे पवित्र "श्री गुरुग्रंथ साहिब जी" में स्थान पाते हैं,उनका अध्यात्म सामाजिक सरोकार लिए मानवीय मूल्यों का प्रतिनिधित्व था , उनकी रचना में जन-सामान्य का दर्द निहित है ,वेदना ,संवेदना छटपटाहट का स्वर स्पस्ट सुनाई देता है ........समीचीन सर्वकालिक कृतियों का सरल निष्पाप रूप आप द्वारा प्रस्तुत किया गया सुन्दर लगा ..../

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद उदय वीर सिंह जी।

      Delete
  9. संत कबीर के बारे मे कोई कमेंट
    सूरज को दीपक दिखाना होगा

    ReplyDelete
  10. बहुत बढ़िया प्रस्तुति कबीर जी के बारे में..

    ReplyDelete
  11. कबीरवाणी को चन्द शब्दों में अभिव्यक्त किया जाना संभव नहीं है......
    फिर भी आपके प्रयास की सराहना किये बिना नहीं रहा जाता।
    आभार !

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी एवं इससे मेरा मनोबल बढा है । धन्यवाद ।

      Delete
  12. कबीर - एक ऐसा अपढ़ इन्सान ,जिसे समझने में बड़े विद्वान चक्कर खा जायें ,जिसकी बातें किताबोंवाली नहीं जीवन को व्यक्त करते जीवन्त -'सबद' (शब्द)और 'साखियाँ' (साक्षियाँ) हैं!

    ReplyDelete
  13. एक बूँद, एकै मल -मूतर, एक चाम, एक गुदा,
    एक ज्योति से सब उत्पन्ना, को बाभन, को सूदा
    काश आज समझने वाले भी होते .... !!
    सबसे बड़ी समस्या हिंदू-मुस्लिम एकता की है
    बोलते हैं *हम = ह+म = ह से हिन्दू म से मुस्लिम
    पर अहम् बड़ा हो जाता है ....
    आपकी रचना एक सार्थक सन्देश दे रही है .... !!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी । धन्यवाद ।

      Delete
  14. kabeer ji k dohe aaj bhi kntasth hain logo ko to isi se unki lokpriyata ka andaja lagaya ja sakta hai ....pahle log kam padhe likhe the to bhi kabir ki baato ka itna asar tha ki hindu/muslim dushman ho gaye aur fir bhi samman karte the aaj to log gyane/padhe likhe jyada ho gaye hain to bhi log unka samman karte hain....is se badi aur kya baat hogi ki unki lekhni sach kahti thi aur logo ke hit me kahti thi.

    ReplyDelete
  15. अनामिका जी,
    आपकी मूल्यवान टिप्पणी ही हमें नई ऊर्जा, ऊत्साह और संबल प्रदान करने के साथ-साथ उत्प्रेक का भी कार्य करती हैं । आपकी टिप्पणी, विचारों एवं मार्गदर्शन का अहर्निश स्वागत है । आपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी । धन्यवाद ।

    ReplyDelete
  16. संत कबीर के दोहे ज्ञान से परिपूर्ण और बेहद ही सरल शब्दों में अभिव्यक्त..मुझे याद है, बचपन में हिंदी की कक्षा में और ढेर साड़ी कवितायेँ हुआ करती थी.. क्लिष्ट शब्दों में.. परन्तु, संत कबीर के दोहे.. इतने सरल .. की पल भर में जुबानी याद हो जाय.... और वक़्त वक़्त पर काम भी आते रहे... संत कबीर वो ज्योति हैं.. जो सर्वदा अमिट रहेगी... वो धारा हैं हो बहती ही रहेगी... न धर्म, न जाति.. संतत्व यहीं से तो शुरू होती है!!
    सुन्दर आलेख के लिए आभार
    सादर
    मधुरेश

    ReplyDelete
  17. kकबीर जैसे संत की आज बहुत जरूरत है लेकिन आजकल के ढोंगी साधु समाज को क्या देंगे सिवा अंध विश्वासों के। कबीर का एक एक शब्द आज भी मह्क़त्वपूर्ण प्रासंगिक है । बढिया प्रस्तुति। धन्यवाद।

    ReplyDelete
  18. आप के यहाँ तो...ज्ञान का खजाना बांटा जाता है ....
    आभार और शुभकामनाएँ!

    ReplyDelete
  19. कबीर कोई उपदेश नहीं दे रहे थे। वे आध्यात्मिक अनुभवों को व्यक्त कर रहे थे। कबीर के अऩुभवों को आत्मसात करने के लिए जड़ता को त्यागना ज़रूरी था,इसलिए,कबीर बहुधा उपदेशात्मक प्रतीत होते हैं। जैसे आध्यात्मिक मूल्य शाश्वत हैं,वैसे ही कबीर भी हमेशा हमारे बीच बने रहेंगे।

    ReplyDelete
  20. कबीर के समाजसुधारक रूप से परिचित करता एक ज्ञान वर्धक लेख....उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई!

    ReplyDelete
  21. आपका प्रयास हर बार सफल ही नहीं होता वरन मानस पटल पर अंकित हो जाता है .. बधाई..

    ReplyDelete
  22. Kabir ne unki sakhi, sabad aur ramaini mein bahay adambar ke prati jan manas mein jis tarah se ek samaj sudharak ki sachhi bhumika nibhai aur aatdhyatm ka gyan diya hai wah aaj bhi utna hi prasangi hai jitna us samay,.,
    aapne bahut hi sundar prastuti dee hai..aapka aabhar!

    ReplyDelete
  23. कुछ मनुष्यों को स्पर्श के योग्य और कुछ को "अक्षूत" मानते हैं । हिंदू-समाज के भीतर प्रचलित इस रूढ़ि के खिलाफ कबीर साहब ने जीवन-पर्यंत संघर्ष किया और सारी जिंदगी वे हिंदुओं को समझाते रहे कि जन्म से भी मनुष्य समान हैं, ऊंच-नीच का भेद कर्म उत्पन्न करते हैं। अतएव, जन्म से एक को ब्राह्मण और दूसरे को शूद्र मत समझो, क्योंकि ऐसा विभेद करने का कोई आधार नही है ।मेरी तू जात क्या पूछती है मुन्नी ,
    शियाओं में सिया हूँ ,सुन्नियों में सुन्नी .
    आपका सतत प्रयास श्लाघनीय है .कृपया "अछूत "शुद्ध रूप लिख लें उद्धृत पैरा में .
    और यहाँ भी दखल देंवें -
    ram ram bhai
    सोमवार, 28 मई 2012
    क्रोनिक फटीग सिंड्रोम का नतीजा है ये ब्रेन फोगीनेस
    http://veerubhai1947.blogspot.in/

    ReplyDelete
    Replies
    1. इस पोस्ट में तो नही बल्कि अपनी डायरी में अक्षूत को सही रूप में लिख लिया हूं । यह टंकण संबंधी भूल थी । धन्यवाद ।

      Delete
  24. बहुत सारगर्भित आलेख...आभार

    ReplyDelete
  25. प्रिय प्रेम जी सुन्दर ..सार्थक और समृद्ध लेख ..ईश्वर एक है सब उसके अंश हैं भाईचारा बना रहे - भ्रमर 5
    भ्रमर का दर्द और दर्पण

    ReplyDelete
  26. हर बार की तरह एक और उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तुति... आभार ।

    ReplyDelete
  27. कबीर पंथ आज भी उतना ही खरा उतरता है हमारी सामजिक ,मानसिक सम्वेदनाओं पर ...!!
    मनुश्य के अंतर्मन का और समाजिक व्यवस्था का कितना सूक्श्म अध्ययन किया होगा ...!!
    सारगर्भित प्रयास ...

    शुभकामनायें...!!

    ReplyDelete
  28. कबीर के दोहे न सिर्फ उस काल के लिए सार्थक थे बल्कि आज भी उतने ही सार्थक हैं और अगर देखें तो ये सिर्फ हिन्दुस्तान के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए तर्कसंगत है. धर्म-जाति से बाहर कोई अपनी सोच ले ही नहीं जाता, और शायद यही वजह है कि दुनिया का सबसे ज्यादा विनाश इसी कारण हो रहा है. ऐसे में कबीर, गांधी और बुद्ध सत्य और सही राह दिखाते हैं परन्तु समझते हुए भी हम अधर्मी होते हैं. कबीर के दोहे और सूक्तियों में समाज की विसंगतियों पर प्रहार है. बहुत अच्छी समीक्षात्मक व्याख्या, धन्यवाद.

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी तार्किक टिप्पणी से मेरा मनोबल बढ़ा है । आशा है भविष्य में भी आप मुझे प्रोत्साहित करती रहेंगी । धन्यवाद ।

      Delete
  29. कबीर ने सभी धर्मों के आडम्बरों पे खुलकर चिकोटी काटी है, और जो भी
    कहा खुलकर कहा बिना किसी लाग-लपट के.
    सुन्दर लेख

    ReplyDelete
  30. उत्कृष्ट रचना के लिए आभार ...

    ReplyDelete
  31. kabir ne lagbhag har vishay par likha...aage ke lekhakon ne kavbir ka hi anusaran kiya...utatam prastuti...

    ReplyDelete
  32. विषमताग्रस्त समाज में जागृति पैदा कर लोगों को भक्ति का नया मार्ग दिखाना इनका उद्देश्य था। जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। उन्होंने हिंदु-मुस्लिम एकता के प्रयास किए। उन्होंने राम और रहीम के एकत्व पर ज़ोर दिया। उन्होंने दोनों धर्मों की कट्टरता पर समान रूप से फटकार लगाई। वे मूर्ति पूजा और कर्मकांड का विरोध करते थे। वे भेद-भाव रहित समाज की स्थापना करना चाहते थे। उन्होंने ब्रह्म के निराकार रूप में विश्‍वास प्रकट किया। एकेश्‍वरवाद के समर्थक संत कबीरदास का मानना था कि ईश्‍वर एक है।

    ReplyDelete
  33. सर, आपकी प्रतिक्रियाओं ने इस पोस्ट को और भी अधिक रूचिकर एवं पठनीय बना दिया है। आपके आगमन से मन एक सुखद एहसास की अनुभूति से पुलकित हो गया । धन्यवाद ।

    ReplyDelete