है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
(हरिवंश राय बच्चन)
प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह
कल्पना
के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न
ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
बादलों
के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या
घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
क्या
हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है.
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है.
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पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
ReplyDeleteहै अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है.
बहुत सुंदर बेहतरीन प्रस्तुति,...प्रेम जी,..
बच्चन जी की रचना पढवाने के लिए आभार,...
MY RECENT POST .....फुहार....: प्रिया तुम चली आना.....
धन्यवाद ।
Deleteबच्चन जी की अद्भुत रचना !
ReplyDeleteआदरणीय स्व.बचन जी की कालजयी कविताओं को मानस उत्कंठा से प्रतीक्षा करता है ,आदर से आत्मसात करता है ,नित्य नवीनता देती हैं उनकी रचनाये .......बहुत -२ प्रतिष्ठा आपको ,उन्नत काव्य के प्रस्तुतीकरण पर......../
ReplyDeleteबच्चन जी की एक प्रेरक रचना!!
ReplyDeleteधन्यवाद ।
Deleteसुन्दर रचना !
ReplyDeleteBahut accha laga Bachchan ji ko padhna.. ye maine pehle nahi padhi thi.. atah, post ke liye bahut abhaar!
ReplyDeleteधन्यवाद ।
Deleteबादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
ReplyDeleteका बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
राह मिल ही जाती है जीवन कब रुकता है .काल विजयकरने वाली इन रचनाओं को संजोकर आप अच्छा काम कर रहें हैं आइन्दा ताकि सनद रहे .
अति सुन्दर रचना पढवाने के लिए आभार...
ReplyDeletesir
ReplyDeletemahan kavivar ki rachna ko padhwane ke liye dil se aapki aabhari hun.
unko padh kar svayam me hi ek tarah se protsahit naye rakt sanchaar kaanuubhav sa prateet hota hai.
sir main svayam hi aapse xhma chahti hun aapke ya kisi bhi any blog tak na pahun paane ka.
kyonki main idhar beech -beech me kaafi antraal par hi blog par aa paati hun.
bas isi vajah se aana sambhav nahi ho paata,anytha na lein.
punah xhama-prarthana ke saath
poonam
धन्यवाद ।
Deletekavita ko padh man utsaah se bhar jata hai. bahut aabhar is rachna ko ham tak pahuchane k liye.
ReplyDeleteपर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
ReplyDeleteहै अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है.
वाह!आपने एक उत्कृष्ट रचना पढवा कर मन हर्षित कर दिया है.
प्रेरक शब्द दिल को छूते हैं.
बहुत बहुत आभार,प्रेम जी.
धन्यवाद ।
Deleteबच्चन जी की रचना ...पढवाने का आभार ....!!
ReplyDeleteशुभकामनायें ...!!
धन्यवाद ।
DeleteBahut sundar
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.... दिया तो होता ही है अन्धेरी रातों के लिये....
ReplyDeleteबच्चन साहब की इस लाजवाब रचना और श्रंखला के लिए धन्यवाद ...
ReplyDeleteखूबसूरत रचना ...बहुत बढ़िया प्रस्तुति.
ReplyDeleteसुन्दर रचना पढवाने के लिए आभार..
ReplyDeleteआभार बच्चन जी की यह रचना यहाँ लाने का...आज फेसबुक पर इसे जोड़ा है यूँ ही॒!
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