मुझे अपने गांव में गांव का निशाँ नही मिलता
प्रेम सागर सिंह
मनुष्य इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तो इस लिए कि उसके पास स्मृति का अक्षत कोष चिर–संचित है । वह अपन विगत से स्वगत की यात्रा में अविरत तल्लीनप्राय रहता है । स्मृति का खेल भी बड़ा ही अदभुत है । वह इस सृष्टि में सबसे बड़ी संपादक है । उसका संपादन कार्य सतत चलता ही रहता है । वह बड़ी से बड़ी घटना की उपेक्षा कर सकता है और छोटी सी छोटी बात व्योरेवार याद रख सकती है । मेरे ख्याल से स्मृतियाँ सिर्फ अतीत का अनुभव मात्र नहीं, बल्कि साक्षात्कार भी हैं । परंपरा भी तो एक तरह से स्मृति ही है। इन्ही स्मृतियों के बल पर व्यक्तित्व बनता है । रचनाकार व्यक्तित्व का मूल संबल ही है स्मृतियाँ । एक रचनाकार ,जिसके पास स्मृतियों की निधि नही है, जब भी लिखता है, उसके सतही उदगार होते हैं । अब उम्र की इस दहलीज पर मुड़ कर देखता हूँ तो स्मृतियाँ एक अजीब रूप में बदली हुई दिखती हैं । बचपन की कई घटनाएं मानस पटल पर आती हैं एवं बुलबुले की भाँति क्षण भर में गायब सी हो जाती हैं। बचपन में मेरी आदत थी कि जब भी अपने गांव मे बाबूजी के साथ घूमने जाता, तब हर एक खेत की चौहद्दी बार-बार पूछता, और यदि गांव के बाहर जाता तो हर एक गांव की चौहद्दी बार-बार जानने की उत्सुकता दिखलाता । मेरे बाबूजी पुराने विचारों के आदमी थे । इसका मतनब यह नही कि वे पढ़े लिखे नही थे, जितना अच्छा अंग्रेजी बोलते थे कि सुनने वाले हक्का-बक्का रह जाते थे। आस-पास के गावों में उनकी काफी मान थी । किसी भी तरह का पंचायत क्यूं न हो उन्हे झगड़ा सुलझाने के लिए बुलाया जाता था। पहले लोग कोर्ट कचहरी के चक्कर में नही पड़ना चाहते थे । छोटी-छोटी समस्याओं का हल दो चार लोग बैठ कर निकाल लेते । जमीन जायदाद का बँटवारा होने पर ही किसी दूसरे आदमी को बुलाया जाता था । गांव चाहे कोई भी हो, वह अपने होने में ही मनोहारी होता है। वहाँ के लोगों में कई अपनी तरह के रीति-रिवाज और लोक प्रचलन होते हैं । जीवन जीने का उनका एक नजरिया है । एक अपनी पूरी संस्कृति है । इसको ही हम शहराती लोग लोक संस्कृति कहते हैं। मेरा थोड़ा सा बचपन इसी संस्कृति की आबोहवा में बीता । उस मधुर बचपन की कई छवियां मानस –पटल पर स्मृति के बुलबुलों के रूप में उभरती हैं । न जाने कितनी स्मृतियां श्वांस बन कर कानों के पास अपना पदचाप छोड़ देतीं, न जाने कितने दृश्य छाया अभिनय करते हुए चले जाते और न जाने किते प्रकार की अनुगूँज भरती और बीतती चली जाती हैं । मैं अब कभी –कभी .यही सोचते रहता हूँ कि स्मृति का भी कोई लेखा- जोखा होता तो कितना अच्छा होता । लेकिन एक रचनाकार मन इन्ही सस्मृतियों को पाथेय-रूप में लेकर अपनी साहित्यिक यात्रा पर निकलता है । अगर स्मृतियों की पोटली उसके पास न हो तो वह बहुत दूर तक नही जा सकता । यह जानते हुए कि आज का गांव बचपन का गांव नही है पर उस गांव की संभावना भविष्य के लिए कुछ नए आयाम जितनी आज दे सकती है उतनी मेरे बचपन के समय नही दे सकती थी क्योंकि उस समय विश्व मानव गांव के मर्म को समझ नही सकता था। आज दुनिया बदल रही है । गांवों के साथ ग्रामीण संवेदना में भी भारी परिवर्तन आया है । पहले गांव की बात इंसानियत का रंग लेकर की जाती थी लेकिन आज गांव के मन की बात विश्व की समकालीन परिस्थिति की उपेक्षा के रूप में की जाती है । जीवन में कई अवसर आए हैं जब गांव पर जाना पड़ा है एवं हर बार गांव का रूप बदला-बदला सा नजर आया । लोग बदल गए, खेत-खलिहान, ताल-तलैया, पोखरा सब कुछ तो वैसा नही रहा जैसा हम बचपन में छोड़ कर आए थे । पुराने लोग तो रहे नही, अब उनके बच्चों को परिचय देना पड़ता है। कभी–कभी ऐसा लगता है कि गांव का अस्तित्व भी नही रहेगा। गांव का दृश्य आने वाली पीढ़ी तस्वीरों में ही देख पाएगी । इतना कुछ होने के बाद भी गांव से चलते वक्त मन अधीर हो जाता है।
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गाँव गाँव न रहा..
ReplyDeleteहमारे जीवन के सबसे सुनहरे पल गांव के ही थे। अब हममें परिवर्तन आया है तो गांव में आना तो लाजिमी ही है।
ReplyDeleteस्मृतियाँ कहाँ पीछा छोडती हैं प्रेम बाबू! ऐसे ही किसी एक पल में मैंने यह ब्लॉग लिखने का मन बनाया और साथ मिला मेरे प्रिय मित्र का. मैंने कहा भी कि एक व्यक्ति के निजी अनुभव में किसी की क्या दिलचस्पी हो सकती है भला... मगर आज सिर्फ डेढ़ सालों में महसूस हुआ कि अपनी कितनी ही यादें दर्ज़ कर ली हैं मैंने, कितनों की यादों की पोटली खोलकर दुबारा उनको उसमें झांकने का अवसर दिया और सबसे बड़ा काम यह किया कि अगली पीढ़ी को उन यादों का खज़ाना सौंपा है जिसके रस का उनको अनुभव ही न था और न हो पाता.. अभी भी समय है.. निकालिए और प्रस्तुत कीजिये हमारे लिए!!
ReplyDeleteमनोज कुमार जी एवं सलील वर्मा जी आप सबका आभार । दशहरा की अशेष शुभकामनाओं के साथ । सादर......।
ReplyDeleteसच में गाँव की अब स्मृतियाँ ही रह गयी हैं...... गाँव का जीवन पहले जैसा कहाँ रहा .....
ReplyDeleteगाँव को शहर की हवा लग गयी, अब बहुत कुछ बदल गया है।
ReplyDeleteविजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! बिल्कुल सही कहा है अब गाँव पहले जैसा नहीं रहा ! लाजवाब प्रस्तुती!
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को दशहरे की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
स्मृतियों का मेला
ReplyDeleteमन में उमड़ता ही रहे
तो अच्छा है
कम से कम स्वयं से बात होते रहने का
प्रावधान बना रहता है ...
आलेख ,
आपकी सजग-दृष्टि और लेखन-कुशलता का
परिचायक है .... बधाई .
बहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी प्रस्तुति ||
ReplyDeleteशुभ विजया ||
अब तो न वो पुराने लोग रहे हैं और न वह गांव गांव रहा है सब कुछ तो बदल गया है|
ReplyDeleteदशहरा पर्व की आप को हार्दिक शुभकामनाएँ|
बहुत सुन्दर विचार आप के सार्थक लेख ..गाँव को भी बदलना चाहिए हमारी कल्पना और बचपन का वो गाँव तो बदलें पर रिश्ते नाते प्राथमिक समूह प्रेम प्यार बना रहे तो बात बने ..हमारे सभी मित्रो को आप के साथ साथ विजय दशमी की हार्दिक शुभ कामनाएं -सौभाग्य से कुल्लू में प्रभु श्री राम के दर्शन हुए और मन में आया आप सब के बीच भी इस शुभ कार्य को बांटा जाए .--
ReplyDeleteआभार आप का
भ्रमर ५
आज का गांव बचपन का गांव नही है पर उस गांव की संभावना भविष्य के लिए कुछ नए आयाम जितनी आज दे सकती है उतनी मेरे बचपन के समय नही दे सकती थी क्योंकि उस समय विश्व मानव गांव के मर्म को समझ नही सकता था। आज दुनिया बदल रही है । गांवों के साथ ग्रामीण संवेदना में भी भारी परिवर्तन आया है । पहले गांव की बात इंसानियत का रंग लेकर की जाती थी लेकिन आज गांव के मन की बात विश्व की समकालीन परिस्थिति की उपेक्षा के रूप में की जाती है
सच में अब गाँव का जीवन पहले जैसा कहाँ रहा .....
ReplyDeleteapni yado ki potli bahut sunder shabdo ki mala pehnate hue jo aapne kholi to ham kho hi gaye usme. sach me gaanvo ka bachpan aur vaha ki aabo-hawa...gaanv ke praroop ke badal jaane par bhi bhulayi nahi ja sakti.
ReplyDeletesunder prastuti.
एक बात जो मेरे मन मे आयी है वो आपसे कहना चाहता हूँ........यदि गलत लगे तो माफ़ी चाहूँगा.
ReplyDelete"प्रेम सरोवर" नही "प्रेम सागर" होना चाहिये. सरोवर की अपनी सीमायें होती है, प्रेम के सागर की कोई सीमा नही.
गाँव के जीवन का आनन्द शहर मे नही सरल व सरस जीवन.
आपको सादर प्रणाम
मुशाफिर जी,
ReplyDeleteप्रेम सरोवर या प्रेम सागर पर कल चर्चा होगी ।.
धन्यवाद ।
Thanks for a heart touching post.
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख...
ReplyDeleteचोट इक दिल पर लगे और दर्द सारे गांव में
भाईचारे का ये आलम है है हमारे गांव में...
शाहिद मिर्जा जी आपका आभार ।
ReplyDeleteयादों की गठरी खंगालने की सार्थक कोशिश. आभार.
ReplyDeleteहां, प्रेम सागर जी, सब कुछ बदल गया है।
ReplyDeleteचिंतन के लिए प्रेरित करता आलेख।
स्मृतियाँ सिर्फ अतीत का अनुभव मात्र नहीं, बल्कि साक्षात्कार भी हैं । परंपरा भी तो एक तरह से स्मृति ही है। इन्ही स्मृतियों के बल पर व्यक्तित्व बनता है । रचनाकार व्यक्तित्व का मूल संबल ही है स्मृतियाँ ।
ReplyDeleteसहमत. वास्तव ने स्रष्टि का नियम ही यही है और सभी परिवर्तनों का कारण भी.
श्री तिवारी जी आपका आभीर । आपकी अमूल्य टिप्पणी से मेरा मनोबल बढा है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteहमारी धरोहर हमारी स्मृति ही है. प्रेरणा है ,संबल है. परिवर्तन को तौल भी रहा है. आने वाली पीढ़ी भी बदलते दौड़ को अपने स्मृति में सहेज रही है. फिर अपनी मिट्टी की तो बात ही जुदा होती है. हमारा प्यार ...गाँव
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति.
ReplyDeleteबहुत अच्छा आलेख.
ReplyDeleteगाँव की स्मृतियों से सुखद कुछ हो भी नहीं सकता !
ReplyDeleteसभी पाठकों का दिल से आभार।
ReplyDeletebilkul hi sach likha hai sir aapne.ye smritiyan hi tohamaari jama -punji hai baaki sab kuchh mit jaata hai bas yahi hamara saath nibhati hain.
ReplyDeleterahi baat gaon ki to ab gaon rah hi kahan gaye jo hai vo bhi shari jama pahne najar aate hain .lekin jisne thoda bahut bhi gaon me waqt bitaya hai vo bhala gaon ke nishxhhal jivan ko kaise bhul sakta hai.ab gaon me vo pahle ki tarah sadgi rahi kahan ?
bahut hi man ko jhakjhorane wali prastuti
bahut hi achhi lagi
poonam
पूनम जी आपका टिप्पणी से मेरा मनोबल बढ़ा है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteयह कष्ट मेरा भी है ....
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
gawan ko tahedil se aapne yaad kia hai . chaliye kahin na kahin gawan bacha to hua hai. waise bhi jab sabkuch badala hai to gawan bhi to badlega hi.
ReplyDeletebachpan mein bitaa waqt agar gaanv se judaa ho to yaadein kahin bheetar baithi rahti hai aur beech beech mein kulbulata hai. kabhi sapne mein to kabhi baaton baaton mein yaaden gaanv pahunch jati hai. ab pahle sa koi bhi gaanv na raha, lekin gaanv se aaj bhi wahi apnapan lagt ahai. bahut sahi kaha...
ReplyDeleteपहले गांव की बात इंसानियत का रंग लेकर की जाती थी लेकिन आज गांव के मन की बात विश्व की समकालीन परिस्थिति की उपेक्षा के रूप में की जाती है । badlaav to sahi hai lekin disha sahi nahin, shayad waqt ka badlaav yahi hai. achchhe aalekh, shubhkaamnaayen.
बिलकूल सही कहा आपने. में भी पिछले २० सालों से आंशिक रूप से अपने गाँव से कटा हूँ
ReplyDeleteमगर जब कभी गाँव जाता हूँ तो सब जगह घूम कर निशान ही खोजता रह जाता हूँ , वो
पा सा गाँव मिलता ही नहीं |