Thursday, August 4, 2011



महादेवी वर्मा छायावादी काव्य-धारा की एक प्रधान केंन्द्र बिंदु थी। उनके काव्य एवं उससे उपजे भाव उनकी व्यक्तिगत अनुभूतियों की संवाहक थी। इनमें एकाकीपन की पीड़ा, वेदना एवं करूणा का स्थायी भाव परिलक्षित होता है। उनकी भाषा-शिल्प, काव्यगत-सौंदर्य एवं प्रतीक का उपयोग हमारी संवेदनाओं को अपने साथ उस ओर बहा ले जाती हैं जहाँ उनके भाव पूर्ण रूप से प्रस्फुटित होते हैं। कुछ ऐसे ही भावों के साथ यह कविता मेरे मन में अभिव्यक्ति के लिए बेचैन रहती थी जिसे मैंने आप सबके सामने प्रस्तुत किया है। आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि यह कविता आपके अंतर्मन को, क्षण भर के लिए ही सही, दोलायमान करने में सफल सिद्ध होगी। धन्यवाद।


फिर विकल हैं प्राण मेरे ’
(महादेवी वर्मा)

फिर विकल हैं प्राण मेरे !
तोड़ दो यह क्षितिज मैं भी देख लूँ उस पार क्या है।
जा रहे जिस पंथ से युग कल्प उसका क्षोर क्या है !
क्यों मुझे प्राचीर बनकर
आज मेरे श्वास घेरे !

सिंधु की नि:सीमता पर लघु लहर का लास कैसा !
दीप लघु शिर पर धरे आलोक का आकाश कैसा !
दे रही मेरी चिरंतनता
क्षणों के साथ फेरे !

बिंबग्राहकता कणों को शलभ को चिर साधना दी,
पुलक से नभ नभ धरा को कल्पनामय वेदना दी,
मत कहो ये विश्व ‘ झूठे ’
हैं अतुल वरदान तेरे !

नभ डुबा पाया न अपनी बाढ़ में भी क्षुद्र तारे ;
ढूँढ़ने करूणा मृदुल घन चीर कर तूफान हारे ;
अंत के तम में बुझे क्यों
आदि के अरमान मेरे !
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःःः

3 comments:

  1. गहन भावों से परिपूरित कविता पढ़कर सच में अंतर्मन दोलायमान हुआ!

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  2. कविता की गूढ़ता कई बार पढ़ने से स्पष्ट होती है।

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  3. bahut accha blog ha apka..bahut accha laga yeha par aakar... mahadevi verma meri fav hein. unki likhi hui Lachma ko to mein kabhi nhi bhul sakti

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