Sunday, August 28, 2011

अभिशप्त जिंदगी


अतीत की किसी सुखद स्मृति की अनुभूति कभी-कभी मन में खिन्न्ता और आनंद का सृजन कर जाती है। इससे जीवन में रागात्मक लगाव अभिव्यक्ति के लिए बेचैन हो उठता है,फलस्वरूप मानव-दृदय की जटिलताएं प्रश्न चिह्न बनकर खड़ी हो जाती हैं। परंतु यह चिर शाश्वत सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य इसके बीच भी एक अलौकिक आनंद का अनुभव करते हुए ब्रह्मानंद सहोदर रस से अपने भावों को सिंचित करने का प्रयास करता है। इनके वशीभूत होकर मैं भी रागात्मक संबंधों से अमान्य रिश्ता जोड़कर एक पृथक जीवन की तलाश में अपनी भाव तरंगों को घनीभूत करन का प्रयास किया है जो शायद मेरी अभिव्यक्क्ति की भाव-भूमि को स्पर्श कर मन की असीम वेदना को मूर्त रूप प्रदान कर सके। कुछ ऐसी ही भावों को वयां करती मेरी यह कविता आप सबके समक्ष प्रस्तुत है।
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तुम्हारे सामीप्य-बोध एवं
सौदर्य-पान के वृत मे
सतत परिक्रमा करते-करते
ब्यर्थ कर दी मैंने,
न जाने कितनी उपलब्धियां।
तुमसे दुराव बनाए रखना
मेरा स्वांग ही था, महज।

तम वचनबद्ध होकर भी,
प्रवेश नही करोगी मेरे जीवन में,
फिर भी मैं चिर प्रतीक्षारत रहूं।
इस अप्रत्याशित अनुबंध में,
अंतर्निहित परिभाषित प्रेम की,
आशावादी मान्यताओं का
पुनर्जन्म कैसे होता चिरंजिवी।
जीवन की सर्वोत्तम कृतियों
एवं उपलब्धियों से,
चिर काल तक विमुख होकर
मात्र प्रेमपरक संबंधों के लिए,
केवल जीना भी
एक स्वांग ही तो है
तुम ही कहो-
प्रणय-सूत्र में बंधने के बाद
इस सत्य से उन्मुक्त हो पाओगी,
और सुनाओगी प्रियतम से कभी,
इस अविस्मरणीय इतिवृत को,
जिसका मूल अंश कभी-कभी,
कौंध उठता है, मन में।
बहुत अप्रिय और आशावादी लगती हो,
जब पश्चाताप में स्वीकार करती हो,
कि, अब असाधारण विलंब हो चुका है।
मेरा अपनी मान्यता है कि --
उतना भी विलंब नही हुआ है
कि तमाम सामाजिक वर्जनाओं को त्याग कर,
हम जा न पाएं किसी देवालय के द्वार पर
और
उस पवित्र परिसर को अपवित्र करने के अपराध में,
हम दोनों जी न सकें ,
एक अभिशप्त जिंदगी ही सही
मगर साथ-साथ...............

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20 comments:

  1. man me chhupe prem aur n milne ki kasak ka anubhav karati huyi kavita..

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  2. हम दोनों जी न सकें ,
    एक अभिशप्त जिंदगी ही सही
    मगर साथ-साथ...............

    एक बड़ा सच, न जाने कितने जीवन यूँ ही बीते जा रहे हैं।

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  3. इस तरह की ज़िन्दगी जीने के लिए हम इतने अभिशप्त क्यूं हो जाते हैं।
    तमाम सामाजिक वर्जनाओं को त्याग कर,
    हम जा न पाएं किसी देवालय के द्वार पर
    बहुत अच्छा लगा यह प्रयोग!

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  4. यथार्थवादी सुन्दर भावपूर्ण रचना....

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  5. सभी पाठको का बहुत-बहुत आभार।

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  6. abhishapt hin sahi par saath saath jine ki abhilasha...sach mein kabhi bhi bahut der nahin hua hota hai...
    उतना भी विलंब नही हुआ है
    कि तमाम सामाजिक वर्जनाओं को त्याग कर,
    हम जा न पाएं किसी देवालय के द्वार पर
    और
    उस पवित्र परिसर को अपवित्र करने के अपराध में,
    हम दोनों जी न सकें ,
    एक अभिशप्त जिंदगी ही सही
    मगर साथ-साथ...............
    bhaavpurn rachna ke liye badhai.

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  7. उस पवित्र परिसर को अपवित्र करने के अपराध में,
    हम दोनों जी न सकें ,
    एक अभिशप्त जिंदगी ही सही
    मगर साथ-साथ...............

    ये पंक्तियाँ खामोश कर जातीं हैं ........

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  8. केवल जीना भी
    एक स्वांग ही तो है

    सच कहा भाई प्रेम सागर जी आपने॥

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  9. एक अभिशप्त जिंदगी ही सही
    मगर साथ-साथ...............
    KAVITA KA NICHOD HAI .KAMAL
    YATHARTH KE BAHUT KARIB
    BADHAI
    RACHANA

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  10. बहुत ख़ूबसूरत एवं भावपूर्ण रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

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  11. सटीक और शानदार प्रस्तुति , आभार

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारें .

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  12. शनिवार (१०-९-११) को आपकी कोई पोस्ट नयी-पुरानी हलचल पर है ...कृपया आमंत्रण स्वीकार करें ....और अपने अमूल्य विचार भी दें ..आभार.

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  13. ऐसे कई सवाल और जबाब से घिरता हुआ जीवन पार कर जाता है इन्सान ..........रचना गहरी है

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  14. सभी पाठकों का दिल से आभार।

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  15. आपके टिप्पणियों से हमारा मनोबल बढ़ता है।

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  16. हिंदी दिवस की शुभकामनायें

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  17. यथार्थवादी,भावपूर्ण रचना....

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  18. बहुत उत्कृष्ट और भावपूर्ण कविता है .....:)

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  19. आपने बहुत खुबसूरती से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है. बहुत अच्छी रचना.

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  20. बहुत ख़ूबसूरत,भावपूर्ण रचना !!!

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