Sunday, August 7, 2011

जिंदगी
प्रेम सागर सिंह

काफिला मिल गया था मुझे-
कुछ अक्लमंदों का
और तब से साल रहा है मुझे
यह गम
कि जिंदगी बड़ी बेहिसाबी से मैंने
खर्च कर डाली है
पर जाने कौन आकर
हवा के पंखों पर
चिड़ियों की चहचहाहट में
मुझे कह जाता है-
जिंदगी का हिसाब तुम भी अगर करने लगे
तो जिंदगी किस को बिठाकर अपने पास
बड़े प्यार से
महुआई जाम पिलाएगी !
किसके साथ रचाएगी वह होली
सतरंगी गुलाल की !
किसके पास बेचारी तब
दुख-दर्द अपना लेकर जाएगी !
कह जाता है मुझे कोई रोज
चुपके-चुपके, सुबह-सुबह।

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2 comments:

  1. जिंदगी बही जा रही है धीरे धीरे।

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  2. यही तो ज़िन्दगी की खूबी है। इसमेम व्यवसाय नहीं चलता। हिसाब किताब नहीं रखा जाता। जितना बेहिसाब हो उतनी ही ख़ूबसूरत लगती है यह।

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