अंतस की पीड़ा
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(प्रेम सागर सिंह)
" अनजाने ही मन न जाने क्यूं अतीत मेंं फिसल जाता है,
फिर अचानक वर्तमान में संगी बनकर मन को बहला जाता है।
जाने क्यो हसना मुझे अब गुनाह सा नजर आता है,
नदी की चादर पर नाचता हर बिँदू खोखला सा इठलाता है।
साँझ के धुँधलके में हवा का कोई झोंका मदमाता है,
तो मेरे अँतर मे बहुत कुछ हल्का सा दरक जाता है।
हर दरार को हर बार मै कागज़ से ढाँक लेता हूँ,
दे देता हूँ उस दरार को सीवन, विकल्पो की
पर यादो का परीँदा केवल
एक फड़फड़ाहट मेँ ही
मेरा सारा सीवन उधेड़ जाता है।
इसी मशक्कत मे घड़ी पहर बीत जाता है
और मेरे हाथ कुछ भी नही आता है।"
खाली हथेलियो से मुँह ढ़ाँपे
समय मौज मनाता है
और
मेरे अँतस का पतझर अशेष रीता जाता है
अशेष रीता जाता है ...अशेष रीता जाता है।"
मेरे हाथ कुछ भी नही आता है।"
ReplyDeleteखाली हथेलियो से मुँह ढ़ाँपे
समय मौज मनाता है
.......... वक्त के समंदर में लहरें कभी यूँ भी उठती हैं
तब अंतस रीता लगता है
धन्यवाद।
Deleteअतीत एक स्वप्न ही तो है..
ReplyDeleteधन्यवाद।
ReplyDeleteBahut umda singh ji
ReplyDeleteBahut hi umda kavita.apke bhaon ko kadra karata hu. Likhte rahiye.ashidh.
ReplyDeleteSundar ati sundar jawab nahi
ReplyDeleteहर दरार को हर बार मै कागज़ से ढाँक लेता हूँ,
ReplyDeleteदे देता हूँ उस दरार को सीवन, विकल्पो की
पर यादो का परीँदा केवल
एक फड़फड़ाहट मेँ ही
मेरा सारा सीवन उधेड़ जाता है।
बहुत सुन्दर कविता