Monday, February 18, 2013

हिंदी के प्रति रागऔर विराग


राष्ट्रभाषा हिंदी और हमारी मानसिकता

                          

                     (प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह)


यह कैसी विडंबना है कि जब विदेशों में हिंदी को इक्कीसवीं सदी की भाषा की मान्यता मिल रही हो परंतु हम उदासीन हैं। स्वाधीनता के पूर्व संतों ने हिंदी में अपने भक्ति रस के गीतों के माध्यम से सारे देश को एक सूत्र में बाँधा। हिंदी का एक नया स्वरूप बनके दक्षिणी हिंदी नाम से प्रचारित हुआ। देश की आजादी की संघ्रर्ष करने की प्रेरणादायी भाषा हिंदी ही थी। देशभक्ति से परिपूर्ण नारे- चाहे अंग्रेजों भारत छोड़ो, साईमन कमीशन वापस जाओ, जय हिंद, दिल्ली चलो, वंदेमातरम, करो या मरो, इन्कलाब जिंदाबाद, आदि हिंदी में गूंज रहे थे। बंगला भाषी सुभाषचंद्र बोस ने सर्वोच्च प्रशासनिक आई.सी. एस की डिग्री त्यागकर विदेश में आजाद हिंद फौज का गठन किया। इसका सैन्य प्रयाण गीत- कदम कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाए जा, ये जिंदगी है कौम की, कौम पे मिटाए जा - हिंदी में ही था। विदेश से भारतवासियों को रेडियो पर पहला संदेश भी हिंदी में ही नेताजी ने दिया था।

भारत की स्वतंत्रता मिलने के बाद जब संविधान का निर्माण हुआ, उसमें भी देश हित में दूरदर्शी अहिंदी भाषी नेताओं यथा संविधान निर्मात्री समिति मे मराठी भाषी विद्वान डॉ. भीमराव अंबेडकर आदि ने भी हिंदी भाषा को ही राजभाषा का पद प्रदान किया था। संविधान निर्मात्री समिति में तमिल भाषी विद्वान श्री गोपालस्वामी आयंगर ने भारत की राजभाषा हिंदी को बनाने का प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से देश की एकता हेतु स्वीकार हुआ। इसका मुख्य करण था देश की अस्मिता को भाषा के माध्यम से ही एक सूत्र में रखा जा सकता है। अमर शहीद भगत सिंह ने भी सन 1924 में सशर्त पत्रिका में लिखा था कि बंगला भाषी, मराठी भाषी, तमिल भाषी और पजाबी भाषी किस भाषा में वार्ता करेंगे, क्या सात सुंद्र पार की भाषा अंग्रेजी में ! इसमे कहीं से भी क्या हिंदी में थोपने का आभास मिलता है!

इसके ठीक विपरीत अंग्रेजी परस्त लोगों ने अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय राष्ट्रीय भाषा घोषित कर भाषाई दासता की और नया मोड़ दे दिया। उनसे जब प्रश्न किया जाता है कि क्या जापान, जर्मनी रूस, चीन फ्रांस आदि देशों ने बहुमुखी उन्नति अंग्रेजी भाषा से की है तो वे इसका सटीक उत्तर देने में असमर्थ होते हैं। अंग्रेजों की साम्राज्यवादी योजना के अतर्गत जिन देशों पर उनका आधिपत्य रहा उनमें अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व हो गया। वस्तुत: भारत ही एक ऐसा स्वाभिमानी राष्ट्र था जिसके विभिन्न भाषा-भाषी नेताओं ने इंग्लैंड में शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी आजादी के आंदोलन में अंग्रेजों को कभी भी प्राथमिकता नही दी।

देश के सर्वमान्य महात्मा गांधी इंग्लैंड से बैरिस्टर होने के बाद भी दशकों तक विदेशों में ही रहे। यह घटना सर्वविदित है कि जब स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त 1947 के एक दिन पूर्व बी.बी.सी लंदन के प्रतिनिधि ने देश के नाम संदेश देने हेतु बापू से कहा तो साक्षाक्तकार के लिए ऐतिहासिक संदेश में महात्मा गांधी ने कहा था कि–“अंग्रेजी वाला गांधी अब नही है। अंग्रेजी के मुठ्टी भर समर्थकों ने हिंदी की बोलियों से हिंदी को लड़ाने का एक षड़यंत्र रचा। अपनी भाषा हिंदी के स्थान पर उसकी विभिन्न बोलियों मैथिली, ब्रज, भोजपुरी, राजस्थानी, बुंदेली कन्नौज, मालवी आदि लिखाने को उकसाया जिससे जनगणना में हिंदी बोलने वालों की संख्या कम हो जाए। आज यह स्थिति है कि 1991 की जनगणना पर आधारित 90 करोड़ से अधिक की आबादी में भारत में अंग्रेजी को मातृभाषा बताने वाले मात्र 1 करोड़ 78 लाख हैं। सर्वाधिक रोचक बात है कि देश के लगभग आधे अंग्रेजी मातृभाषी लोग महाराष्ट्र प्रदेश में ही रहते हैं जबकि भारत की दक्षिण ओर समुद्र तट पर स्थित अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में देश के विभिन्न भाषा-भाषी निवास करते हैं जो अपने प्रांतों के लोगों से मिलने पर हिंदी में ही वार्ता करते हैं। अंग्रेजों के शासन काल में देशभक्तों को सर्वाधिक प्रताड़ि़त करने हेतु काला पानी दण्ड के रूप में होता था, तब सारे देश में लोग अंडमान आते थे। ।857 के बाद से सर्वाधिक देशभक्त हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के लोग ही वहाँ बंदी होने से सभी प्रादेशिक भाषा बोलने वाले भी हिंदी में परस्पर वार्ता करने लगे। स्वाधीनता के बाद अधिकांश सेल्युलर जेल के देशभक्त राजबंदी वहीं पर बस गए। अण्डमान में मासिक द्वीपसमूह पत्रिका के अलावा हिंदी में दैनिक पत्र भी प्रकाशित होता हैं। सन 1991 की जनगणना के बाद जनसंख्या अवश्य तेजी से बढ़ी है किंतु अंग्रेजी को मातृभाषा मानने वालों की संख्या घटी है। देश के लगभग आधे अंग्रेजी मातृभाषा  के लोग मात्र महाराष्ट्र प्रदेश के निवासी हैं। इसके बाद तमिलनाडु बंगाल तथा कर्नाटक का स्थान है।

अंग्रेजी के पक्ष में सदा यही कहा जाता है कि इसके बिना राजकाज पूर्ण रूप से गूंगा हो जाएगा, इसके बिना तकनीकी एवं विज्ञान का ज्ञान असंभव है। तभी एक ज्वलंत प्रश्न उठता है कि क्या जापान चीन की तकनीकी विकास का आधार अंग्रेजी है ! जर्मनी ने बहुमुखी विकास, चाहे ज्ञान का हो या विज्ञान क्षेत्र में, जर्मन भाषा से ही किया है। फ्रांस ने विश्व में जो स्थान कला, संस्कृति और आधुनिक चिंतन में बनाया है, क्या वह अंग्रेजी भाषा से बनाएगा ! यदि मिसाइल को प्रक्षेपास्त्र कहा जाता है तो क्या उसकी मारक क्षमता घट जाएगी ! क्या रूस ने उपग्रह निर्माण और संचालन के क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा का प्रयोग करके सफलता प्राप्त की थी !

वस्तुत: हिंदी की सभी आंचलिक बोलियों का साहित्य ही हिंदी भाषा का श्रंगार है। इसी के द्वारा हिंदी के शब्द भंडार की वृद्धि हुई है। हिंदी के युग निर्माता आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी ने अंग्रेजों की इस कूटनीतिक चाल को दूर दृष्टि से देखते हुए भी बोलियों के शब्दों के प्रयोग के आधार पर हिंदी को खड़ी बोली नाम से प्रचारित किया। ऐतिहासिक पत्रिका सरस्वती के आचार्य द्विवेदी दशकों संपादक रहकर हिंदी खड़ी बोली को स्थापित कर ऐतिहासिक पुरूष बने।

रतीय वालीवुड संसार में दूसरे स्थान पर मान्यता प्राप्त कर चुका है। विश्व के लगभग 169 देशों में नित्य योगऋषि रामदेव का आस्था एवं अन्य चैनलों से हिंदी प्रसारण व कथा प्रवचनों को हिंदी में नित्य सुनने वाले विश्व में करोड़ों श्रोता हैं। विषम परिस्थितियों में भी भारतीय प्रशासनिक सेवा, चिकित्सा व राष्ट्र के प्रमुख तकनीकी संस्थानों में हिंदी भाषी युवाओं का चयन मूल संस्कृति की और वापसी का संकेत है। लार्ड मेकाले और उनके मानस पुत्रों ने किस प्रकार भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी पर आक्रमण करते हुए अंग्रेजी भाषा को प्रतिष्ठित किया था। आज हमारे युवा उस मानसिकता का प्रत्युत्तर देनें में सक्षम नजर आ रहें हैं। इस समय हिदी भाषी क्षेत्र के युवकों ने जिस प्रकार इन प्रतियोगी परीक्षाओं में अंग्रेजी के किले में सेंध लगाई है उससे अंग्रेजी परस्त वाला वर्ग आश्चर्यचकित है। देश के हिंदी भाषी प्रांतों से संबंधित इन युवकों ने जो संदेश दिया है उसका सारतत्व यह है कि संसाधनों का अभाव अब वंचनाओं की जननी न होकर उच्च लक्ष्यों को प्राप्त करने की रचनात्मकता है। इसलिए अपनी माँ का मतिभ्रम होने से आया को ही माँ समझने वालों को यथार्थ के धरातल पर आना होगा। भविष्य में निर्धन तथा कमजोर वर्ग के नवयुवकों में इस भावना को उनके मन मस्तिष्क में विस्तार देने की अति आवश्कयता है।
राष्ट्रकवि मैथिलीशऱण गुप्त की निम्न पंक्तियों में हम सबकी भावना समाहित है।

हिंदी का उद्देश्य यही है भारत एक रहे अविभाज्य,
यों तो रूस और अमेरिका जितना है उसका जनराज्य।
बिना राष्ट्रभाषा स्वराष्ट्र की, गिरा आप गूंगी असमर्थ,
एक भारतीय बिना हमारी भारतीयता का क्या अर्थ।।

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12 comments:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (20-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
    सूचनार्थ |

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  2. है जिसने हमको जनम दिया ,हम आज उसे क्या कहते है
    क्या यही हमारा राष्ट्र वाद ,जिसका पथ दर्शन करते है
    है राष्ट्रस्वामिनी निराश्रिता ,इसकी परिभाषा मत बदलो
    हिंदी है भारत माँ की भाषा ,हिंदी को हिंदी रहने दो


    Recent Post दिन हौले-हौले ढलता है,

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  3. शत शत नमन आपके भाषा प्रेम को प्रणाम

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  4. सटीक-
    आवश्यक विषय ||
    आभार भाई जी ||

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  5. राष्ट्रकवि के शब्दों में हिन्दी की पीड़ा व्यक्त है..

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  6. हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है.प्रेरणात्मक लेख..

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  7. यह कैसी विडंबना है कि जब विदेशों में हिंदी को इक्कीसवीं सदी की भाषा की मान्यता मिल रही हो परंतु हम उदासीन हैं। हिन्दी की पीड़ा ......

    एक भारतीय बिना हमारी भारतीयता का क्या अर्थ।।

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  8. हिन्दी का अपना महत्त्व है |सुन्दर जानकारी देती रचना |
    आशा

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  9. हिन्दी भारतवर्ष में ,पाय मातु सम मान
    यही हमारी अस्मिता और यही पहचान |

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  10. हिन्दी भारतवर्ष में ,पाय मातु सम मान
    यही हमारी अस्मिता और यही पहचान |

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  11. बहुत ही सटीक और प्रेरक
    आलेख ,साभार...........

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  12. सामयिक और सटीक प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...

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