Tuesday, February 12, 2013

एक चिंतन -आजीवन कारावास


आजीवन कारावास की सजा के कानूनी मायने

                                              
                                                         प्रेम सागर सिंह
                   
दिल्ली मे 16 दिसंबर,2012 को हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद कानूनों  में संशोधन सुझाने के उद्देश्य से उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायधीश जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में बनाई गई समिति ने अपनी रिपोर्ट दे दी है। इस रिपोर्ट में महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों से संबंधित कानूनों और कानूनी प्रक्रिया में जनभावनाओं के अनुरूप परिवर्तन करने की अनेक स्वागत-योग्य सिफारिशें की गई हैं। समिति के अनुसार बलात्कारी की आजीवन कारावास की सजा का मतलब मृत्यु-पर्यंत कारावास होना चाहिए। इस पृष्ठभूमि में आजीवन कारावास की सजा के कानूनी मायने पर गौर करना जरूरी है।
भारतीय दण्ड संहिता,1860 की धारा 53 के अनुसार अपराधियों को पांच प्रकार के दण्ड - यानि मृत्युदण्ड, आजीवन करावास, सश्रम या साधारण कारावास, संपत्ति की कुर्की और आर्थिक जुर्माना देने का प्रावधान किया गया है। इस धारा में आजीवन कारावास की सजा को परिभाषित नही किया गया है और इसका साधारण अर्थ प्राकृतिक मृत्यु तक का कारावास ही है।
 जेल और कैदियों से संबंधित मामले संविधान की सातवीं सूची में दी गई राज्यों के अधिकार क्षेत्र से संबंधित दूसरी सूची में चौथे विषय के रूप में शामिल है। इसका सीधा अर्थ है कि राज्य सरकारें जेल और कैदियों की व्यवस्था और रख-रखाव से संबंधित कानून बना सकती है। कानूनी प्रक्रिया का तकाजा है कि अदालत कानूनों में निर्धारित सजा सुनाए और राज्य सरकारें कानून के अनुसार अदालत द्वारा दी गई सजा को लागू करे। संविधान, भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता -1973, जेल अधिनियम-1894 और राज्यों द्वारा बनाई गई जेल नियमावली में उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार ही जेल में कैदी के साथ व्यवहार किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 72 के अनुसार राष्ट्रपति और अनुच्छेद 161 के अनुसार राज्यपाल आजीवन कारावास की सजा को इससे कम किसी अन्य प्रकार की सजा में बदल सकते हैं। इसमें अदालती हस्तक्षेप की सीमित संभावना रहती है। सामान्यतया जनहित, कैदी के पुनर्वास, मानवता और न्याय के हित में मंत्रिमंडल की सलाह पर ही इन संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग किया जाता है।
 भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 433 में प्रावधान है कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार, अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में किसी भी कैदी की आजीवन कारावास की सजा को इससे कम किसी अन्य प्रकार की सजा में बदल सकती हैं। कालांतर में यह सामने आया कि इस प्रावधान के कारण संगीन अपराधों में लिप्त कुछ अपराधी भी बहुत कम सजा यानि आठ-दस साल बाद जेल से रिहा हो जाते हैं। विधायिका फिर सक्रिय हुई और वर्ष 1978 में भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में एक और धारा 433A जोड़ दी गई। इस धारा के अनुसार मृत्युदण्ड को कम करके आजीवन कारावास में परिवर्तित सजा और उन अपराधों में दी गई आजीवन कारावास की सजा जहां मृत्युदण्ड दिया जा सकता था, को चौदह वर्ष से कम की सजा में परिवर्तित नही किया जा सकता।
जेल अधिनियम 1894 की धारा 59(5) में राज्य सरकार को सजा कम करने का अधिकार दिया गया है। जेल में खाना बनाने, बाल काटने, सफाई करने और और अन्य प्रकार के काम करने वाले कैदियों, अच्छा आचरण और व्यवहार करने वाले बंदियों और जेल प्रशासन की मदद करने वाले कैदियो की सजा में छूट देने के नियम राज्य सरकार द्वारा बनाए गए हैं। इन नियमों के अंतर्गत एक कैदी कुल सजा के एक तिहाई भाग के बराबर छूट प्राप्त कर सकता है। धारा 433A के आने के बाद आजीवन कारावास की सजा काट रहे संगीन जुर्म के सजाय़ाफ्ता कैदी को कम से कम चौदह वर्ष तक जेल में रहना पड़ेगा।
आधुनिक सभ्य समाज में दोषियों को कारावास की सजा देने  का एक सार्थक उद्देश्य है। अपराधशास्त्रियों का मत है कि कारावास का मात्र एक उद्देश्य कैदी को सुधार कर पुन: समाज में रहने योग्य बनाना होता है। कारावास समाज विरोधी तत्त्व को सभ्य समाज में रहने लायक बनाने की प्रयोगशाला है। अंग्रेजों द्वारा वर्ष 1920 में बनाई गई ईंडियन जेल कमेटी ने सिफारिश की थी कि कैदियों की सुधार और पुनर्वास करना कारावास का उद्देश्य होना चाहिए। कारावास व्यक्तित्व सुधारने का साधन है, व्यक्ति को नष्ट करने का नही।
बीभत्स अपराध बीमार मानसिकता का परिचायक है, सोच-समझ कर कोई व्यक्ति ऐसे अपराध नही करता और जो सोचने समझने की शक्ति खो बैठता है,उसके लिए कोई भी सजा कारगर नही है या तो ऐसे लोगों की मानसिकता बदलने के उपाय किए जाएं, और अगर ऐसा करना संभव नही है, तो उन्हे मृत्यु दण्ड दिया जाए। किसी को भी मरने के लिए जेल में बंद कर देने से न्याय का परचम नही फहराया जा सकता। मुझे आशा है कि वर्मा समिति की रिपोर्ट पर गहन विचार कर के ही सरकार कानून में संशोधन का कोई फैसला करेगी। कानून में संशोधन ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी को राष्ट्र की प्रगतिशील विचारधारा का दर्शन हो। कानून न्याय व्यवस्था की मूलभूत अवधारणाओं का संदेशवाहक होता है। इन अवधारणाओं की सुसंगत रक्षा करना प्रत्येक जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य होता है।

                         (www.premsarowar.blogspot.com)

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8 comments:

  1. सूक्ष्म जानकारी से अवगत कराने और अपराध की समीक्षा के लिए आभार

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  2. आजीवन कारावास के पीछे यही उद्देश्य हो, पर कैसे समझ आयेगा कि वह सुधर गया है।

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  3. सार्थक जानकारी देती पोस्ट.. आभार!

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  4. कारावास का उद्देश्य मात्र पश्चाताप और सुधार के लिए किया जाता है,,,,

    RECENT POST... नवगीत,

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  5. आज लगा कि कवि/लेखक के नहीं लॉयर के blog पर आये हैं :-)

    आभार
    अनु

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  6. जानकारी के लिए धन्यवाद

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