Saturday, February 16, 2013

आचार्य चतुरसेन शास्त्री -स्मृति शेष


वैशाली की नगरवधू : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
    ( जन्म- 26 अगस्त,1891)    ( निधन: 02 फरवरी, 1960 ) 
        
        जमाने में कहां , कब कौन किसका साथ देता है,
     
जो अपना है. वही ग़म की हमें सौग़ात देता है।

यह सत्य है कि यह उपन्यास है। परन्तु इससे अधिक सत्य यह है कि यह एक गम्भीर रहस्यपूर्ण संकेत है, जो उस काले पर्दे के प्रति है, जिसकी ओट में आर्यों  के धर्म, साहित्य, राजसत्ता और संस्कृति की पराजय, मिश्रित जातियों की प्रगतिशील विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है, जिसे सम्भवत: किसी इतिहासकार ने आँख उघाड़कर देखा नहीं है।    -       

आचार्य चतुरसेन शास्त्री

इस तरह की प्रविष्टियों को ब्लॉग पर प्रस्तुत करने की पष्ठभूनि में मेरा यह प्रयास रहता है कि हिंदी साहित्याकाश के दैदीप्यमान प्रकाशस्तंभों का सामीप्य-बोध हम सबको अहर्निश मिलता रहे एवं हम सब इन साहित्यकारों की अनमोल कृतियों एवं उनके जीवन दर्शन की घनी छांव में अपनी साहित्यिक ज्ञान-पिपासा में अभिवृद्धि करते रहें। आईए, एक नजर डालते हैं, अपने समय के बहुचर्चित लेखक चतुरसेन शास्त्री पर, उनके जीवन एवं कृतियों पर जो हमें सत्य से विमुख न होने के साथ-साथ कभी भी किसी भी विषम परिस्थतियों में बिखरने भी नही देती हैं। किसी भी साहित्यकार की रचना उसकी निजी जीवन की अनुभूतियों की ऊपज होती है । शास्त्री जी के रचनाओं में कुछ खास ऐसी ही विशेषता है जिसे पढ़ कर ऐसा प्रतीत होता है कि ये समय के साथ संवाद करती हुई तदयुगीन जीवन के साक्षात्कार क्षणों से परिचित करा जाती हैं । मेरा प्रयास एव परिश्रम आप सबके दिल में थोड़ी सी जगह बना सकने में यदि सार्थक सिद्ध हुआ तो मैं यही समझूंगा कि मेरा प्रयास,  एवं परिश्रम भी साहित्य-जगत के सही संदर्भों में सार्थक सिद्ध हुआ।- - प्रेम सागर सिंह

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म  26 अगस्त, 1891 को चांदोख ज़िला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ऐतिहासिक  उपन्यासकार के रूप में इनकी प्रतिष्ठा है। चतुरसेन शास्त्री की यह विशेषता है कि उन्होंने उपन्यासों के अलावा और भी बहुत कुछ लिखा है, कहानियाँ लिखी हैं, जिनकी संख्या प्राय: साढ़े चार सौ है। गद्य-काव्य,  धर्म,  राजनीति,  इतिहास,  समाजशास्त्र के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा  पर भी उन्होंने  अधिकारपूर्वक लिखा है।  रचनाकारों ने तिलस्मी एवं जासूसी उपन्यास लिखे जो कि उन दिनों अत्यन्त लोकप्रिय हुए। द्विवेदी युग में देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी किशोरीलाल गोस्वामी आदि देवकीनन्दन खत्री जी की चन्द्रकान्ता उपन्यास तो लोगों को इतनी भायी कि लाखो लोगों ने उसे पढ़ने के लिए हिन्दी सीखा। तिलस्मी और जासूसी उपन्यासों के लेखकों के अतिरिक्त प्रेमचंद, वृंदावनलाला वर्मा,  आचार्य चतुरसेन शास्त्री, विश्वम्भर नाथ कौशिक,  चंद्रधर शर्मा गुलेरी”, सुदर्शन,  जयशंकर प्रसाद आदि द्विवेदी युग के साहित्यकार रहे। सन 1943-44 के आसपास दिल्ली  में हिन्दी भाषा और साहित्य का कोई विशेष प्रभाव नहीं था। यदाकदा धार्मिक अवसरों पर कवि-गोष्ठियां हो जाया करती थीं। एकाध बार हिन्दी साहित्य  सम्मेलन का अधिवेशन भी हुआ था। लेकिन उस समय आचार्य चतुरसेन शास्त्री और  जैनेन्द्रकुमार के अतिरिक्त कोई बड़ा साहित्यकार दिल्ली में नहीं था। बाद में सर्वश्री  गोपाल प्रसाद व्यास, नगेन्द्र,  विजयेन्द्र स्नातक आदि यहां आए।

खड़ी हिंदी की विकास-यात्रा के प्रारंभ से ही मेरठ  क्षेत्र की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा रही है।  आज भी मेरठ में जितनी अच्छी हिंदी बोली जाती है वह कही भी नही मिलती । यहां के साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में न केवल इस क्षेत्र के जनजीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अभिव्यक्त किया, बल्कि इस अंचल की भाषिक संवेदना को भी पहचान दी। इन साहित्यकारों के बिना  हिन्दी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता।  26 अगस्त, 1891 को  बुलंदशहर के चंदोक में जन्मे आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने 32  उपन्यास, 450  कहानियां और अनेक नाटकों का सृजन कर हिंदी साहित्य  को समृद्ध किया। ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिन्दी साहित्य को प्रदान किए। सोमनाथ, वयं रक्षाम:, वैशाली की नगरबधु,  अपराजिता, केसरी सिंह की रिहाई, धर्मपुत्र, खग्रास, पत्थर युग के दो बुत, बगुला के पंख उनके महत्त्वपूर्ण उपन्यास हैं। चार खंडों में लिखे गए सोना और ख़ून के दूसरे भाग में 1857 की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है। गोली उपन्यास में  राजस्थान के राजा-महाराजाओं और दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। अपनी समर्थ भाषा-शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन साहित्यकार बने। इनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है, जो अपने ही में एक कीर्तिमान है। आचार्य चतुरसेन मुख्यत: अपने उपन्यासों के लिए चर्चित रहे हैं। इनके प्रमुख उपन्यासों के नाम हैं-

      1.  वैशाली की नगरबधू  2.   वयं रक्षाम, 3.   सोमनाथ, 4.    मन्दिर की नर्तकी  5.    रक्त की प्यास 6.     सोना और ख़ून (चार भागों में)  7.  आलमगीर,  8.  सह्यद्रि की चट्टानें, 9. अमर सिंह,  10.      ह्रदय की परख।

इनकी सर्वाधिक चर्चित कृतियाँ वैशाली की नगरवधू’, ‘वयं रक्षाम और सोमनाथ हैं। हम यहाँ वैशाली की नगरवधू की विस्तृत चर्चा करेंगे, जो कि इन तीनों कृतियों में सर्वश्रेष्ठ है। यह बात कोई इन पंक्तियों का लेखक  नहीं कह रहा, बल्कि स्वयं आचार्य शास्त्री ने इस पुस्तक के सम्बन्ध में  उल्लिखित किया है - मैं अब तक की अपनी सारी रचनाओं को रद्द करता हूँ, और वैशाली की नगरवधू को अपनी एकमात्र रचना घोषित करता हूँ। आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षाम: का मुख्य पात्र  रावण है न कि राम । यह रावण से संबन्धित घटनाओं का ज़िक्र करती है और उनका दूसरा पहलू दिखाती है। इसमें आर्य और संस्कृति  के संघर्ष के बारे में चर्चा है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री के भी अपने लेखन के संबंध में कुछ ऐसे हीवक्तव्य मिल जाते हैं। 'सोमनाथ' के विषय में उन्होंने लिखा है कि  कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'जय सोमनाथ' को पढ़ कर उनके मन में आकांक्षा जागी कि वे मुंशी के नहले पर अपना दहला मारें; और उन्होंने अपने उपन्यास 'सोमनाथ' की रचना की। 'वयं रक्षाम:' की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने कुछ नवीन तथ्यों की खोज की है, जिन्हें वे पाठक के मुँह पर मार रहे हैं। परिणामत: नहले पर दहला मारने के उग्र प्रयास में 'सोमनाथ' अधिक से अधिक चमत्कारिक तथा रोमानी उपन्यास हो गया है; और अपनेज्ञान के प्रदर्शन तथा अपने खोजे हुए तथ्यों को पाठकों के सम्मुख रखने की उतावली में,उपन्यास विधा की आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा कर वे 'वयं रक्षाम:' और 'सोना और ख़ून' में पृष्ठों के पृष्ठ अनावश्यक तथा अतिरेकपूर्ण विवरणों से भरते चले गए हैं। किसी विशिष्ट कथ्य अथवा प्रतिपाद्य के अभाव ने उनकी इस प्रलाप में विशेष सहायता की है। ये कोई ऐसेलक्ष्य नहीं हैं, जो किसी कृति को साहित्यिक महत्व दिला सके अथवा वह राष्ट्र और समाज की स्मृति में अपने लिए दीर्घकालीन स्थान बना सकें। 'वैशाली की नगरवधू' तथा अन्य अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने का लक्ष्य एक विशेष प्रकार के परिवेश का निर्माण करना भी हो सकता है; किंतु इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि अनेक लोग 'वैशाली की नगरवधू' में स्त्री की बाध्यता और पीड़ा देखते हैं। वैसे इतिहास का वह युग, एक ऐसा काल था,  जिसमें साहित्यकार को अनेक आकर्षण दिखाई देते हैं। महात्मा बुद्ध,  आम्रपाली, सिंह सेनापति तथा अजातशत्रु के आस-पास हिन्दी साहित्य की अनेक महत्त्वपूर्ण कृतियों ने जन्म लिया है। उसमें स्त्री की असहायता देखी जाए, या गणतंत्रों के निर्माण और उनके स्वरूप की चर्चा की जाए, वात्सल्य की कथा कही जाए, या फिर मार्क्सवादी दर्शन का सादृश्य ढूँढा जाए - सत्य यह है कि वह परिवेश कई दृष्टियों से असाधारण रूप से रोमानी था जिसके कारण साहित्यकार के  सोच को एक नया आयाम मिला और शास्त्री जी की वैशाली की नगरवधू हर संबेदनशील साहित्यकार की नगरवधू बन गयी । इस उपन्यास को जितनी बार पढ़ा उतनी बार मन में असंख्य अर्थ अपने शब्दों के क्षितिज क्रमश: विस्तृत करते गए एवं मेरे अंतस को आंदोलित कर गए । आप सबके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद।
                  (www.premsarowar.blogspot.com)
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6 comments:

  1. आचार्य जी के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी !
    आपके हिन्दी सेवा के भावों को नमन !!
    सुरुचिपूर्ण जानकारी के लिए आभार !!
    सरस्वती पूजा की शुभकामनायें ।

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  2. ५-६ पुस्तकें पढने का सौभाग्य मिला है मुझे-
    कुछ नोट्स आज भी सहेजे हैं-
    सादर

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  3. आचार्य चतुरसेन शास्त्री के बारे में सुरुचिपूर्ण उम्दा जानकारी ,,

    recent post: बसंती रंग छा गया

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  4. आपकी पोस्ट की चर्चा 17- 02- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है कृपया पधारें ।

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  5. आचार्य जी के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी !

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  6. अच्छी चर्चा हेतु आभार !

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