तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने की परंपरा आत्मघाती है।
प्रस्तुतकर्ता:प्रेम
सागर सिंह
(हमारी
मान्यता बन चुकी है कि हमारी दृष्टि वैसी नही होनी चाहिए जैसा कि “सत्य” है; बल्कि
सत्य ही वैसा होना चाहिए जैसै कि दृष्टि है। आश्चर्य होता है कि इतने बड़े
वैज्ञानिक, तथ्यात्मक तथा प्रामाणिक युग में रहकर भी हम अपनी मान्यताएं सुधार नही
पाते हैं) - डॉ.
अनेकांत कुमार जैन
18
सितंबर,1949 को संविधान सभा की कार्यवाही में हरि कृष्ण कामथ ने अपने भाषण में
भारत, हिदू भारतभूमि, भारतवर्ष आदि नामों का सुझाव देते हुए दुष्यंत पुत्र भरत की
कथा भारत का उल्लेख किया था । हृदय नारायण दीक्षित जी ने दैनिक जागरण 10 अगस्त,2004
के संपादकीय पृष्ठ पर “भारत
क्यों हो गया इंडिया’ नामक
अपने लेख में लिखा है कि “संविधान
सभा ने भारत को इंडिया नाम देकर अच्छा नही किया। जो भारत है उसका नाम ही भारत है।
यह “इंडिया जो भारत है” को पारित करवा कर उस समय सत्तारूढ़ दल ने एक नए
राष्ट्र के रूप, स्वरूप, दशा, दिशा, नवनिर्माण, भविष्य और नाम को लेकर दो धाराएं जारी की। एक धारा भारतीय दूसरी
इंडियन। महात्मा गांधी, डाक्टर राममनोहर लोहिया, डॉ हेडगवार, बंकिमचंद्र और
सुभाषचंद्र बोस भारतीय धारा के अग्रज हैं। पं.जवाहर लाल नेहरू पर सम्मोहित धारा
इंडियावादी है।
आधुनिक
शोधों और खोजों का परिणाम आया है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम
पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और इससे पूर्व
ऋषभदेव के पिता नाभिराय के नाम पर इस देश का नाम “अजनाभवर्ष” था। इस खोज से इस मान्यता पर पुर्नविचार करना पड़ सकता है कि दुष्यंत पुत्र
भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। यह बात नही है कि दुष्यंत पुत्र भरत का
नाम शास्त्रों में है नही।
महाभारत
एवं एकाध पुराणों में इस संबंधी श्लोक भी है किंतु उन्ही पुराणों में एक नही बल्कि
दर्जनों श्लोक ऐसे भी हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि ऋषभपुत्र भरत के नाम पर इस देश
को भारत नाम मिला। दरअसल, भरत के नाम से चार प्रमुख व्यक्तित्व भारतीय परंपरा में
जाने जाते हैं:--
1.तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत
2.राजा
रामचंद्र के अनुज भरत
3.राजा
दुष्यंत का पुत्र भरत
4.नाट्यशास्त्र
के रचयिता भऱत
इन
चार विकल्पों में से प्रथम विकल्प के ही शिलालेखीय तथा शास्त्रीय साक्ष्य प्राप्त
है। अग्निपुराण भारतीय विद्याओं का विश्वकोश कहा जाता है, उसमें स्पष्ट लिखा है:--
“ऋषभो मरूदेव्य च ऋषभाद् भरतोभवत्।
ऋषभोदात् श्री शाल्यग्रामे हरिंगत:
भरताद् भारतं वर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत।।“
आईए,
अब चलते है इस समस्या पर जब यह प्रश्न उठने लगा कि भारत का नाम क्या होना चाहिए।
इसे जब नेहरू जी के सामने ऱखा गया तो उन्होंने यह घोषणा की कि हमें शिलालेखीय
साक्ष्य जो मिलेंगे हम उसे ही स्वीकार करेंगे। तब उडीसा में उदयगिरि-खण्डगिरि के
शिलालेख जिसे प्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल ने खुदवाया था, में “भरधवश”(प्राकृत भाषा में तथा ब्राह्मी लिपि में) अर्थात भारतवर्ष का उल्लेख प्राप्त
हो गया। इस ऐतिहासिक शिलालेख ने चक्रवर्ती भरत के काल से लेकर खारवेल के युग तक
देश के भारत वर्ष नामकरण को प्रमाणित कर दिया।
पद्मभूषण
बलदेव उपाध्याय ने प्राकृतविद्या में लिखा है- जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है
कि इन्ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र “भरत’ के नाम से देश का नामकरण “भारतवर्ष” इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इस तरह के प्रमाणों से उन लोगों की
आंखें खुल जानी चाहिए अर्थात वे भ्रांतियां मिट जानी चाहिए, जो दुष्यंत पुत्र भरत
या अन्य को इस देश के नामकरण से संबद्ध करते हैं तथा विद्यालयों, कॉलेजों के
पाठ्यक्रम में निर्धारित इतिहास की पुस्तकों में इससे संबंधित भ्रर्मों का संशोधन
करके इतिहास की सच्चाई से अवगत कराना बहुत आवश्यक है।
यह
बात मुझे उन दिनों खटकी थी जब “स्टार प्लस” के
सुप्रसिद्ध कार्यक्रम “कौन
बनेगा करोड़पति’ (प्रथम) में अमिताभ बच्चन ने हॉट सीट
पर बैठे किसी प्रतियोगी से प्रश्न पूछा था कि इस देश का नाम भरत किसके नाम पर पड़ा! तो ऋषभपुत्र भरत के नाम पर जैसा कोई विकल्प उनके चार
विकल्पों में था ही नही। जबकि यही सही उत्तर है। प्रतियोगी को उन चारो गलत उत्तरों
में से एक को चुनना पड़ा। हमें प्रयास करना चाहिए कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता,
ज्ञान और अध्यात्म की श्रीवृद्धि में जिस परंपरा का योगदान जैसा रहा है उसे वैसा
महत्व और श्रेय दिया जाना चाहिए। तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने या उन्हे
जैसे-तैसे अपने पक्ष में सिद्ध करने की परंपरा आत्मघाती है। विचारों का जो नया
उन्मेष भारत में जगा है वह यही है कि हमारा कोई भी चिंतन आग्रही न बने। हम
दुराग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनें; शायद हम तभी भारत को समझ सकते हैं।
नोट:- अपने
किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक
साहित्य,अपने
थोड़े से ज्ञान एवं कतिपय संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत
करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी
प्रतिक्रिया ही बता पाएगी। इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके
सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी। आपके सुझाव मुझे अभिप्रेरित करने की दिशा में
सहायक सिद्ध होंगे। धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
( www.premsarowar.blogspot.com)
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गज़ब की चिंतनीय बात
ReplyDeleteधन्वाद। आपका आभार ।
Deleteरोचक..
ReplyDeleteअत्युत्तम आलेख..आभार...
ReplyDeleteरोचक भी...ज्ञानवर्धक भी...
ReplyDeleteआभार प्रेमसरोवर जी...
सादर
अनु
धन्वाद मिश्र जी । आपका आभार ।
ReplyDeleteरोचक जानकारी।
ReplyDeleteरिषभ पुत्र जयकार है, भारत भारती भान ।
सब भारतों को मिल रहा, यथा-उचित सम्मान ।
यथा-उचित सम्मान, भ्रांतियां दूर हुई हैं ।
दशरथ पुत्री आज, पुन: मशहूर हुई है ।
गलत तथ्य को जल्द, हे इतिहास सुधारो ।
शांताजी का नाम, नहीं हे जगत विसारो ।।
उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
विचारणीय सच कहता आलेख,
ReplyDeleteप्रेम जी,,,,,,बधाई
बहुत सुन्दर रचना,,
RECENT POST,,,,मेरे सपनो का भारत,,,,
रोचक जानकारी ... पर आने वाले समय में भारत जल्दी ही इंडिया हो जायगा ... अगर ऐसे ही चलता रहा तो ...
ReplyDeleteसत्य कथन..विचारणीय आलेख..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रोचक व ज्ञानवर्धक प्रस्तुति के लिए आभार
ReplyDeleteतथ्यपरक ये जानकारी मेरे लिए बिल्कुल नयी है. मैंने अपने एक लेख में देश का भारत नाम राजा दुष्यंत और शकुन्तला के संयोग से जन्मे पुत्र भरत के नाम पर रखे जाने का उल्लेख किया है. क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भी प्रायः वीर अर्जुन को "हे भारत !" कह कर संबोधित करते हैं...... लेकिन आपकी यह पोस्ट पढने के बाद मुझे फिर से सोचना होगा. आभार !!
ReplyDeleteतथ्यपरक ये जानकारी मेरे लिए बिल्कुल नयी है. मैंने अपने एक लेख में देश का भारत नाम राजा दुष्यंत और शकुन्तला के संयोग से जन्मे पुत्र भरत के नाम पर रखे जाने का उल्लेख किया है. क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण भी प्रायः वीर अर्जुन को "हे भारत !" कह कर संबोधित करते हैं...... लेकिन आपकी यह पोस्ट पढने के बाद मुझे फिर से सोचना होगा. आभार !!
ReplyDeleteयह प्रसंग कई बार जैन अनुयायियों ने उठाया है लेकिन अब जब भारत के स्थान पर इण्डिया ही सर्वमान्य हो चला है तो इस बहस को मान्यता मिल नहीं पाती है। इतिहास के ऐसे अनेकानेक प्रश्न हैं जिन्हें सुलझाया जाना चाहिए लेकिन हम तो अपनी संस्कृति को ही विस्मरण करने पर उतारू हैं तब भला यह सब कैसे होगा?
ReplyDeleteबहुत ही तथ्यपूर्ण तथा विचारणीय आलेख ।
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