Wednesday, April 25, 2012

आदर्श प्रेम




  
नई यादें एवं पुराने परिप्रेक्ष्य



(हरिवंश राय बच्चन)

प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह

आदर्श प्रेम

प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या,
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या ।

गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गा कर उसे सुनाना क्या,
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या।

ले लेना सुगंध सुमनों की
तोड़ उन्हे मुरझाना क्या,
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पास फैलाना क्या ।

त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनसें स्वार्थ बताना क्या,
दे कर हृदय, हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या ।

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13 comments:

  1. जहाँ प्रकृति के कण-कण में परमात्मा विराजमान हो वहाँ पुष्प को तोड़कर जो स्वयं प्रभु चरणों में चढ़ा हो प्रभु पर क्यों चढाना.. और यह अलौकिक प्रेम जहाँ बस परमात्मा को प्यार करना है लेकिन उसके भजनों को गाकर उसे क्यों बताना.. बच्चन जी ने इस कविता में भले ही इहलौकिक प्रेम का वर्णन किया हो, किन्तु इसमें एक आध्यात्मिक अर्थ भी छिपा है जो हमें परमात्मा से निःस्वार्थ और बिना प्रत्याशा प्रेम करना सिखाता है!!
    एक बहुत अच्छी कविता की प्रस्तुति पर बधाई आपको!!

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  2. वाह!!!!बहुत ही सुंदर सार्थक प्रस्तुति,..प्रभावी रचना,..

    MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....

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  3. दे कर हृदय, हृदय पाने की
    आशा व्यर्थ लगाना क्या ।
    बहुत सुंदर रचना ...
    पढवाने का आभार ....!!

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  4. एक नए तरीक़े से प्रेम की व्याख्या।

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  5. सर, आपकी टिप्पणी से मेरा मनोबल बढ़ता है । धन्यवाद ।

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  6. acchhi seekh deti hain aisi rachnayen. aabhar ise ham tak pahuchane k liye.

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  7. सच कहा आपने प्रेमजी ....प्रेम सिर्फ त्याग है ...लेकिन अपेक्षाएं अगर आ गयीं तो फिर अहम् और इर्ष्या प्रेम का एक बहुत बड़ा हिस्सा बन जाते हैं ......और वह संकुचित हो जाता है !

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  8. बच्चन जी की कविताओं के माध्यम से आपकी रूचि का भी परिचय मिलता है.
    एक से एक उम्दा रचनाएँ आप हमें पढने को देते हैं. प्रेम जी, आपका बहुत बहुत आभार !

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  9. आपने तो मानो खजाने का द्वार खोल दिया है । त्याग ही प्रेम है ।

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