नई यादें एवं पुराने परिप्रेक्ष्य
(हरिवंश राय बच्चन)
प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह
आदर्श प्रेम
प्यार किसी को करना लेकिन
कह कर उसे बताना क्या,
अपने को अर्पण करना पर
और को अपनाना क्या ।
गुण का ग्राहक बनना लेकिन
गा कर उसे सुनाना क्या,
मन के कल्पित भावों से
औरों को भ्रम में लाना क्या।
ले लेना सुगंध सुमनों की
तोड़ उन्हे मुरझाना क्या,
प्रेम हार पहनाना लेकिन
प्रेम पास फैलाना क्या ।
त्याग अंक में पले प्रेम शिशु
उनसें स्वार्थ बताना क्या,
दे कर हृदय, हृदय पाने की
आशा व्यर्थ लगाना क्या ।
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धन्यवाद महोदय।
ReplyDeleteजहाँ प्रकृति के कण-कण में परमात्मा विराजमान हो वहाँ पुष्प को तोड़कर जो स्वयं प्रभु चरणों में चढ़ा हो प्रभु पर क्यों चढाना.. और यह अलौकिक प्रेम जहाँ बस परमात्मा को प्यार करना है लेकिन उसके भजनों को गाकर उसे क्यों बताना.. बच्चन जी ने इस कविता में भले ही इहलौकिक प्रेम का वर्णन किया हो, किन्तु इसमें एक आध्यात्मिक अर्थ भी छिपा है जो हमें परमात्मा से निःस्वार्थ और बिना प्रत्याशा प्रेम करना सिखाता है!!
ReplyDeleteएक बहुत अच्छी कविता की प्रस्तुति पर बधाई आपको!!
बहुत ही सुन्दर..
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति !
ReplyDeleteवाह!!!!बहुत ही सुंदर सार्थक प्रस्तुति,..प्रभावी रचना,..
ReplyDeleteMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
दे कर हृदय, हृदय पाने की
ReplyDeleteआशा व्यर्थ लगाना क्या ।
बहुत सुंदर रचना ...
पढवाने का आभार ....!!
एक नए तरीक़े से प्रेम की व्याख्या।
ReplyDeleteसर, आपकी टिप्पणी से मेरा मनोबल बढ़ता है । धन्यवाद ।
ReplyDeleteacchhi seekh deti hain aisi rachnayen. aabhar ise ham tak pahuchane k liye.
ReplyDeleteसच कहा आपने प्रेमजी ....प्रेम सिर्फ त्याग है ...लेकिन अपेक्षाएं अगर आ गयीं तो फिर अहम् और इर्ष्या प्रेम का एक बहुत बड़ा हिस्सा बन जाते हैं ......और वह संकुचित हो जाता है !
ReplyDeleteबच्चन जी की कविताओं के माध्यम से आपकी रूचि का भी परिचय मिलता है.
ReplyDeleteएक से एक उम्दा रचनाएँ आप हमें पढने को देते हैं. प्रेम जी, आपका बहुत बहुत आभार !
आदर्श विचार ..
ReplyDeleteआपने तो मानो खजाने का द्वार खोल दिया है । त्याग ही प्रेम है ।
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