संबंधों
की गहराई में जीने वाले कवि : केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह
(प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह)
हिंदी के वरिष्ठ और विशिष्ट कवि केदारनाथ सिंह पिछले तीन दशकों से जिस तरह
अपनी मां लालझरी देवी की देखभाल किए थे, वैसी मातृ-भक्ति कम देखने को मिलती है। आज
समाज नामक विराट घर में जब मां के लिए अलग कमरा नही दिखता, उसके लिए बरामदे या
बालकानी का कोना ही जब घर बना दिया गया हो, वैसै समय केदार जी जैसे पुत्र का होना
बेहद महत्वपूर्ण है। केदार जी जब पडरौना में थे तो मां को वहां ले गए थे। पडरौना
के परिवेश में मां को कोई परेशानी नही हुई किंतु केदार जी जब दिल्ली के ‘जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय” में प्रोफेसर बनकर गए और मां को दिल्ली ले गए
तो उनके मन में बहुत उत्साह था कि मां दिल्ली देखेंगी। लेकिन वर्षों मां की चारपाई
दिल्ली बनी रही और खिड़की ही दुनिया, जिस पर वे सबसे ज्यादा भरोसा करती थीं। केदार
जी की मां लालझरी देवी के लिए अनजान कोई नही था। मिल जाने पर उड़िया. बंगाली और
मद्रासी से भी उसी तरह अपनी ठेठ पुरबिया भोजपुरी में बात करती और ताजुब्ब कि लोग
उनकी बात समझ भी लेते। भाषा सेतु बंधन का ऐसा दूसरा कोई उदाहरण नही मिल सकता।
दिल्ली रहते हुए बीच-बीच में मां गांव जाने का जिद करती तो विवश होकर केदार जी
कुछ दिनों के लिए गांव छोड़ आते। उनकी मां को गांव का परिवेश इसलिए अच्छा लगता
क्योंकि वहां अपने जाने पहचाने चेहरों और बोली बानी के बीच रहने का सुख मिलता। इस
परिचित परिवेश में वे कुछ ही दिन रह पातीं कि केदारनाथ जी फिर गांव आते और उन्हे
ले कर दिल्ली चले जाते। केदार जी की मां जब वयोवृद्ध हो गयी तो गांव ले जाना कठिन
हो गया। बीच का रास्ता निकालते हुए केदार जी उन्हे कोलकाता अपने बहन रमा के पास ले
आए। कोलकाता आकर वे दिल्ली से बेहतर परिवेश महसूस करने लगी। यहां सभी भोजपुरी में
ही बातें करते थे। बी गार्डेन. शिवपुर, शालीमार में अधिकतर लोग भोजपुरी भाषी हैं।
इसे छोटा “बलिया”(य़ू.पी) भी कहा जाता
है। पिछले कुछ वर्षों से जब से मां कोलकाता आकर रहने लगी, तब से कोलकाता केदार जी
का दूसरा घर बन गया। वे प्राय: हर माह कोलकाता आते और मां की देखभाल करते। केदार जी और उनकी बहन रमा सिंह
मां की एक एक बात का ध्यान रखते।
अंत में 102 वर्ष की उम्र में उनकी मां गुजर गई । इसके बाद केदार जी का
कोलकाता आना छूट गया। केदार जी ने जिस तरह आजीवन मां की सेवा की,वह इसलिए भी
महत्वपूर्ण है क्योंकि आज समाज में एक उम्र की आंच में पकती हुई मां की जगह
अनिश्चित है। यह हमारे समय की त्रासद विडंवना है कि मां और उसकी संतान अबोलेपन की
हद तक अलग-थलग जा पड़े हैं। केदार जी जैसे पुत्र की मातृ-भक्ति इस विडंबनापूर्ण
समय में न सिर्फ अनुकरणीय है बल्कि उससे यह भी पता चलता है कि केदार जी संबंधों को
कितने गहराई में जीते हैं। साहित्य के इस पुरोधा की तरह हमें भी अपनी मां का ख्याल
रखना चाहिए। प्रस्तुत
है उनकी एक कविता ……
“मां”
माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है
यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है
उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है
जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो
पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस ….।
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है
यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है
उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है
जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो
पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस ….।
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केदारनाथ जी को कम ही पढ पाये हैं। आज आपके सौजन्य से कुछ पढ लिया है।
ReplyDeleteआपकी यात्रा इसी प्रकार जारी रहे। यही शुभकामना है।
धन्यवाद सुबीर जी।
Deleteसुन्दर प्रस्तुति |
ReplyDeleteसुन्दर गीत |
बधाई ||
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteकेदारनाथ जी से परिचय कराने के लिए शुक्रिया,,
ReplyDeleteresent post : तड़प,,,
बहुत अच्छा लगा केदारनाथ जी को जान कर...
ReplyDeleteऔर साझा की गयी रचना तो बहुत सुन्दर और मर्मस्पर्शी है...
आभार आपका.
सादर
अनु
हृदयस्पर्शी रचना पढ़नावे का आभार..
ReplyDeleteपिछले साठ बरसों से
ReplyDeleteएक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस ….।
मन को झकझोर दिया इन पंक्तियों ने !
आभार !
केदारनाथ जी से परिचय करवाने हेतु आभार...
ReplyDeleteबहुत ही मर्मस्पर्शी रचना है ..
धन्यवाद आपका...
:-)
आपकी कलम से केदारनाथ्ा जी को पढ़ना अच्छा लगा
ReplyDeletekedar ji ke bare me vivran bahut achchha laga...aur us se bhi jyada samvedan sheel un ki likhi kavita lagi...
ReplyDeleteधन्यवाद शारदा जी।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट और दिल छू लेने वाली कविता . आभार .
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