गांधी की डगर
संकल्पों को साधने वाली संहिता है।
चल पड़े जिधर दो पग डगमग,
चल
पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़
गयी जिधर भी एक दृष्टि,
गण
गए कोटि दृग उसी ओर।
(सोहन लाल द्विवेदी)
महात्मा गांधी
(जिस गांधी ने
भारतवर्ष को स्वराज्य दिलाया था, उस गांधी को तो इस देश ने राष्ट्रपिता बनाकर रख
लिया, किंतु जो गांधी उससे बड़ा गांधी था, उसे हमने निर्वासित कर दिया, क्योंकि उसे
घर में बनाए रखने पर हम झूठ नही बोल सकेंगे, जरूरतें नही बढ़ा सकेंगे और सरहद पर
ललकारने वाले शत्रुओं को देख कर हम अहिंसा की दुहाई नहीं दे सकेंगे। गांधी ने कहा
था, सत्य के बिना अहिंसा चल नही सकती। हमने सत्यो को तो छोड़ दिया, मगर अपनी
कमजोरी छिपाने के लिए अहिंसा की चादर और भी गाढी बुनकर ओढ ली। जो गांधी हमारी छोटी
जरूरतों का गांधी था, उसे हमने नही छोड़ा है, मगर जो गांधी मानवता का गांधी था, उसे
हमने अपने घर से निकाल दिया है और आज स्थिति यह आ
गयी है कि किसी ने RTI ACT, 2005 के अंतर्गत
सरकार से यह जानना चाहा है कि महात्मा गांधी को ‘राष्ट्रपिता’ की उपाधि
से कब और किसके आदेश द्वारा विभूषित किया गया था।) .. प्रेम सागर सिंह
इस खास महाने में
अलग-अलग क्षेत्रों में गांधी को लेकर प्रदर्शन भाव जोरों पर होता है। इसमें
सरोकारों से दूर सरकारी आयोजनों और कॉरपोरेट -ब्रांडिंग
की भरमार रहती है । राजनीति में तो गांधी ब्रांड अचूक अस्त्र
ही है। इन सबके अतिरिक्त, महानगरों से दूर ग्रामीण पाठशालाओं को छोड़ दिया जाए और
व्यक्तिगत प्रार्थनाओं को अपवाद समझा जाए तो अक्टूबर अब गांधी के नाम पर सार्वजनिक
ढोंग के उत्सव का महीना बन गया है।
क्या यह महज संयोग है! क्या हम आफत
और आस्था के भेद को भूल कर सिर्फ अवसर को उत्सव बनाने वाले बन बैठे हैं ! इस सिससिले
में पिछले वर्ष दिल्ली में गांधी जयंती के आयोजन हुए। इसमें प्रख्यात नृत्यांगना
गीता चंद्रन द्वारा संयोजित ‘ताना-बाना’ और कई जगहों
पर चित्र प्रदर्शनी भी आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम को पिछले वर्ष टी.वी पर
देखने के बाद मुझे ऐसा लगा कि इन तीनों आयोजनों की भाषा, नृत्य और चित्र या शब्द,
देह और रूप से गांधी-रूपक गढ़ने का उपक्रम माना जा सकता है। अपनी आत्म-कथा सत्य के
प्रयोग के आवरण पृष्ठ पर गांधी जी ने लिखा है:-’मुझे दुनिया
को कोई नई चीज नही सिखानी है, सत्य और अहिंसा अनादि काल से चले आए हैं।‘ ये उदगार
उनके जीवन, विनय और आत्म-सजगता के सूचक हैं। इसी क्रम में नारायण देसाई की ‘गाधी-कथा/ निश्चय ही
विश्वास और आस्था का संगम है, जिसे सुनना हमें
प्रमाद और प्रलोभन से परे ले जाता है। यहीं अन्य दो प्रस्तुतियां अहंकार के अलंकार
जैसी लगीं। चित्रों मे यदि गांधी को सतही तरीके से उकेरा गया है तो गीता-चंद्रन की
तथाकथित नृत्य नाटिका गांधी दर्शन को मात्र गांधी प्रदर्शन में बड़े ही रूखे और
नाटकीय ढंग से रखने का प्रयास मात्र है, जिसका न तो गांधी दर्शन से कोई संबंध बनता
है और न ही नृत्य की शास्त्रीयता से और न ही उनकी इस प्रस्तुति को रंगमंच की श्रेणी
में रखा जा सकता है। गीता चंद्रन की यह प्रस्तुति भारतनाट्यम के समक्ष यम
प्रस्तुति है, जहां शास्त्र ने अपना दम तोड़ दिया है। गांधी को अपना विषय बना कर प्रस्तुत
किया जा सकता है! विषय लोभ से चरमराई उनकी यह प्रस्तुति
गांधी लोक तक नही पहुंच पाई। यह लोभ लोक की प्रस्तुति है, जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा
भी हुई है जो हमारे समय में लगभग खोती और खोटी आलोचना के कारण है।
गीता चंद्रन ने अपनी
प्रस्तुति में जिस तरह ‘दांडी’ प्रसंग को
प्रस्तुत किया वह उनकी नृत्य नाटिका के विफलता का भी प्रसंग लगता है। हिंसा को जस
का तस दिखाना आसान है, मगर बात तब बनती जब वे अहिंसा के प्रकटन पर विचार करती,
जहां गाधी बसते हैं। इस प्रसंग में उन्होंने एक तरह से अंग्रेजी हुकुमत के अत्याचार
को तो प्रस्तुत कर दिया, पर गांधी विचार को प्रकट करने में विफल रहीं। उनकी मंच
सज्जा जरूर प्रभावी थी। उनकी यह प्रस्तुति कुल मिलाकर बाजार और सरकार को खुश करने
की कोशिश से ज्यादा कुछ नही लगी।
गांधी जी केवल
राजनीति के विरोधी नही थे, केवल समाज के नेता नही थे, जननायक और देशभक्त नही थे.वे
यांत्रिक सभ्यता की एक खुली चुनौती भी थे, वे मानवता के उस अतीत के प्रहरी भी थे,
जो इतनी मारों के बाद भी नहीं मरा है। सुख में पले हुए शरीर को आत्मा की याद दिलाने आए थे। वे मनुष्यों से
यह कहने को आए थे कि आज भी कल्याण का मार्ग यही है कि हम अपनी जरूरतों में इजाफा न
करें, उन्हें कम से कम रखें। गांधी जी के इस रूप को ध्यान में रखते हुए अनेक बातें
मेरे ही नही अधिकांश भारतीयों के दिलों में भी कहीं बहुत भीतर पैठती है कि गांधी
जी का आदर्श एवं यथार्थ में विघटन तो जरूर हुआ है। गांधी जी की व्याख्या करते-करते उनकी तुलना मार्क्स से
करने लगते हैं, मगर वे भूल जाते हैं कि मार्क्स और गांधी के बीच एक भेद है।
मध्यकालीन संतों का मत था कि मनुष्य का सबसे बड़ा ध्येय निजी मोक्ष है और निजी
मोक्ष प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन संन्यास है। मार्क्स ने कहा वह बात गलत है।
मोक्ष व्यक्ति का नही, समाज का होना चाहिए। तब गांधी जी सामने आए और बताया ;मोक्ष तो
व्यक्ति का होता है, मगर उसका रास्ता संन्यास नही, समाज सेवा का कार्य है।
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में, क्या आज गांधी का
समकालीन रूपक सरकार और बाजार के बीच चौराहों पर लगी भौंचक गांधी मूर्तियों और उनके
नाम पर बने मार्गों के रूप में हो सकता है ! गौर करने की बात है कि
यह मार्ग अधिकतर बाजार और सरकार को जोड़ने वाला मार्ग ही होता है, न कि सत्य की
डगर, जिस पर गांधी जीवन भर चले। गांधी की डगर बाजार और सरकार को जोड़ने वाला नही,
बल्कि इनके पार जाती हुई संकल्पों को साधने वाली संहिता है। हमें इस महान पुरूष को
क्षद्धा के साथ देखना चाहिए यह बात जिगर है कि आने वाली पीढ़ी इन्हे किस शैली और
अंदाज में जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करेगी। “गांधी जयंती” के अवसर पर इस
महान विभूति एवं कर्मयोगी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
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महत योगदान है गांधी जी का आधुनिक भारत के निर्माण में।
ReplyDeleteज्ञानपरक जानकारी... वर्तमान में गाँधी की बहुत जरूरत है
ReplyDeleteआज गाँधी जी,दिखावा मात्र बन कर रह गए,,,
ReplyDeleteRECENT POST : समय की पुकार है,
अच्छी चर्चा :)
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत हैं। अगर आपको अच्छा लगे तो मेरे ब्लॉग से भी जुड़ें।धन्यवाद !!
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post.html
विनम्र श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteविनम्र श्रद्धांजलि!
ReplyDeleteगांधी जी के विचारों की आवश्यकता सदैव बनी रहेगी।
ReplyDeleteधन्यवाद महेंद्र वर्मा जी।
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