हिंदी नवजागरण के अंतिम मार्तंड: रामविलास शर्मा
(जन्म: 10 अक्तूबर, 1912 निधन: 30 मई, 2000)
(प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह)
(रामविलाश
शर्मा हिंदी ही नही, भारतीय आलोचना के शिखर व्यक्तित्व हैं। उनके लेखन से पता चलता
है,आलोचना का अर्थ क्या है और इसका दायरा कितना विस्तृत हो सकता है। वे हिंदी भाषा
और साहित्य की समस्याओं पर चर्चा करते हुए बिना कोई भारीपन लाए जिस तरह इतिहास,
समाज, विज्ञान, भाषाविज्ञान, दर्शन, राजनीति यहां तक कि कला संगीत की दुनिया तक
पहुंच जाते हैं, इससे उनकी आलोचना के विस्तार के साथ बहुज्ञता उजागर होती है। आज
शिक्षा के हर क्षेत्र में विशेषज्ञता का महत्व है। ऐसे में रामविलास शर्मा की
बहुज्ञता,जो नवजागरणकालीन बुद्धिजीवियों की एक प्रमुख खूबी है, किसी को भी आकर्षित
कर सकती है) --- प्रेम
सागर सिंह
मार्क्सवाद
को भारतीय संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले हिंदी के मूर्ध्न्य लेखक रामविलास
शर्मा का लेखन साहित्य तक सामित नही है, बल्कि उससे इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र
आदि अनेक अकादमिक क्षेत्र भी समृद्ध हैं। साहित्य के इस पुरोधा ने हिंदी साहित्य के
करोड़ों हिंदी पाठकों को साहित्य की राग वेदना को समझने
और इतिहास के घटनाक्रम को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने में सक्षम बनाया है, इसलिए
भी उनका युगांतकारी महत्व है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से वे यह बता गए हैं कि
कोई भी चीज द्वंद्व से परे नही है, हर चीज सापेक्ष है और हर संवृत्ति (Phenomena) गतिमान है। साहित्यिक आस्वाद की दृष्टि
से उन्होंने इंद्रियबोध, भाव और विचार के पारस्परिक तादाम्य का विश्लेषण करना भी
सिखाया।
रामविलाश
शर्मा के संपूर्ण कृतित्व पर अगर अचूक दृष्टि डाली जाए तो यह स्पष्ट होगा कि
प्रचलित अर्थों में वे मात्र साहित्यिक समालोचक न थे। वे साहित्य, कला एवं ज्ञान
विज्ञान के विभिन्न अनुशासन के क्षेत्र में बौद्धिक हस्तक्षेप करने वाले अग्रणी
कृतिकार, विद्वान और चिंतक थे। हालांकि, उनका साहित्यिक जीवन कविता लिखने के क्रम
में हुआ था। झांसी में इंटरमीडिएट कक्षा के जब वे क्षात्र थे, तभी अंग्रेजी राज्य
के विरूद्ध ‘हम
गोरे हैं’
शीर्षक कविता लिखी थी। जब वे लखनउ विश्वविद्यालय से बी.ए (आनर्स) कर रहे थे, उस समय
अंग्रेजी और फ्रांसीसी काव्यधाराओं से प्रभावित होकर उन्होंने कुछ सॉनेट (Sonnet) और गीत लिखे थे। 26 साल की उम्र होते ही
उनका संपर्क निराला के अतिरिक्त केदारनाथ अग्रवाल, गिरिजाकुमार माथुर, अमृलाल
नागर, शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ आदि से हो गया। इसका नतीजा यह हुआ कि वे नियमित
रूप से कविताएं लिखने लगे। इस दौर की अधिकांश कविताएं सुमित्रानंदन पंत के संपादन
में प्रकाशित पत्रिका ‘रूपाभ’ के पृष्ठों पर प्रकाशित होती रहीं। इसके अलावा उन्होंने अगिया
बैताल और निरंजन के उपनाम से वे राजनीतिक व्यंग कविताएं लिख रहे थे।यहां उल्लेखनीय
है कि साहित्यिक सृजन के इस प्रारंभिक दौर में रामविलाश जी का एक उपन्यास चार दिन के नाम
से 1936 में प्रकाशित हुआ था। इसके अलावा उनके द्वारा कुछ लिखित नाटकों का
रंगमंचीय प्रदर्शन भी हुआ था। इन नाटकों में सूर्यास्त, पाप के पुजारी, तुलसी दास,
जमींदार कुलबोरन सिंह और कानपुर के हत्यारे प्रमुख है। साहीत्यिक सृजनशीलता के
क्षेत्र से हट कर रामविलाश जी की अभिरूचि धीरे-धीरे आलोचना कर्म के प्रति जाग्रत
हुई,खासकर इस कारण कि उस समय निराला जी पर चौतरफा हमला हो रहा था और रामविलाश जी
इस बात को लेकर काफी क्षुब्ध थे। इसलिए 1938-39
के दिनों में उन्होंने निराला पर हो रहे आक्रमणों का जबाव देने के मकसद से
एक लेख लिखा था जो उसी समय ‘चाँद’
में प्रकाशित हुआ। उन्हीं दिनों शरतचंद्र पर भी एक आलोचनात्मक निबंध लिखा जिसमें
वर्गीय दृष्टिकोण से शरतचंद्र के कथा साहित्य की विवेचना की गई थी।
1938
से 1939 के इन तीन चार सालों में रामविलास
ने प्रेमचंद पर किताब लिखने का पूरी तैयारी करने के साथ-साथ समालोचना की एक नई
विश्लेषण प्रणाली का सूत्रपात करने के उद्देश्य से भारतेंदु के साथ –साथ बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुंद गुप्त के साहित्य की मूल्यवत्ता और गद्य शैली को नया
स्वरूप देने का प्रयास किया। आलोचनात्मक कृति के रूप में उनकी पहली पुस्तक ‘प्रेमचंद’ के नाम से 1941 में प्रकाशित हुई। 1940-41 के इसी दौर में मार्क्सवाद-लेनिनवाद, भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी और प्रगतिशील लेखक संघ से घनिष्ठ रूप में वे जुड़ गए।
समालोचना
एक ऐसी प्रणाली है, जो यथार्थ के द्वंद्व के व्याख्या में सहायक हो और इतिहास चेतना
के आलोक में विश्लेषण कर सके, रामविलास शर्मा की चिंतन प्रक्रिया का हिस्सा बन गई।
उस दौर में हिंदी समालोचना में एक ओर यदि रीतिवादी–शास्त्रवादी छाय़े थे और दूसरी ओर रोमांटिक
भावोच्छ्वासवादी आलोचकों की भरमार थी। महावीर प्रसाद द्विवेदी और आचार्य रामचंद्र
शुक्ल की विवेचना पद्धति के प्रबल आधारों को रेखांकित किए बिना नई प्रगतिशील
समालोचना की नींव नही रखी जा सकती थी। इस सिलसिले में उन्होंने सौंदर्य की वस्तुगत
सत्ता की व्याख्या के औजार प्रस्तुत किए। इस समय प्रगतिशील लेखकों के सामने मुख्य
प्रश्न यह था कि परंपरा का मूल्यांकन किस तरह किया जाए और परंपरा के सकारात्मक
पक्षों को नई उद्भावनाओं के सांचे में किस तरह परिस्कृत किया जाए। आलोचना की इस
चुनौती को देखते हुए ही रामविलास जी के आगे एक बड़ा दायित्व आ खड़ा हुआ। यही वह
संदर्भ था जिसकी वजह से शिवदान सिंह चौहान, राहुल सांकृत्यान, यशपाल, रांगेय गाघव
आदि से उनकी टकराहट हुई। इतिहास का कौन सा तत्व अग्रगामी है और कौन सा तत्व
प्रतिगामी है- इस प्रश्न को लेकर उस समय गंभीर विवाद आरंभ हो गया। उस दौर के उनके
और आलोचकों के लेखनों का प्रभाव यह पड़ा
कि आलोचना पर चढी हुई शास्त्रीयता का कवच उतार दिया गया और आलोचना कर्म की भाषा
पूरी तरह बदल गई जिसे कालांतर में अपनी राह मिली।
हिंदी
जागरण की अवधारणा का श्रेय भी उन्हे ही दिया जाता है। लेकिन,1956 के बाद उनके लेखन
का क्षेत्र बदलने लगा। इसका पहला प्रमाण है 1956 में प्रकाशित ‘मानव सभ्यता का विकास’। अब रामविलास शर्मा, विश्लेषण की दिशा मूलभूत
रूप से समाजविज्ञान, दर्शन,भाषा विज्ञान और इतिहास की ओर उन्मुख हो गई। जब 1857 की
सौवीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी, उस समय उन्होंने सन् सत्तावन की राज्य क्रांति
नामक पुस्तक लिखी थी जो उसी वर्ष प्रकाशित भी हो गई।
रामविलाश
शर्मा के संपूर्ण कृतित्व का लेखा जोखा रखने के क्रम में यह बताना आवश्यक है कि दो
खंडों में लिखी गई उनकी पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ की विषय सामग्री राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के व्यापक प्रश्नों की व्याख्या प्रस्तुत करती है। साहित्यकार का जब कोई बड़ा
मकसद होता है और वह छोटे आरोप- प्रत्यारोप से ऊपर उठकर कोई बड़ निशाना बनाता है,
तभी वह ऐसा साहित्य दे पाता है, जो इतना सुगठित हो, विपुल और सार्थक भी। रामविलाश
शर्मा जी कि निम्नलिखित कुछ प्रमुख कृतियां हमें उनकी विचारधारा एवं संघर्षशीलता
के दस्तावेज के रूप उनका परिचय प्रदान कर जाती हैं। दोस्तों, यह पोस्ट उनकी
साहित्यिक उपलब्धियों की संपूर्ण प्रस्तुति नही है बल्कि उन्हे याद करने का एक
माध्यम है जिसे मैंने आपके सबके समक्ष सार-संक्षेप में प्रस्तुत किया है। आशा ही नही अपितु पूर्ण
विश्वास है कि इस पोस्ट पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए इस क्षेत्र में प्रकाशस्तंभ
का कार्य करेगी। धन्यवाद सहित।
कृतिया : -
आलोचना
एवं भाषाविज्ञान : -1.प्रगतिशील साहित्य की समस्याएं 2. भाषा,
साहित्य और संस्कृति 3.लोक जीवन और साहित्य 4.रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना
5.स्वाधीनता और राष्ट्रीय साहित्य 6. आस्था और सौंदर्य 7. स्थायी साहित्य की मूल्यांकन
की समस्या 8.निराला की साहित्य साधना (तीन खंड) 9.नई कविता और अस्तित्ववाद 10.सन्
सत्तावन की राज्य क्रांति 11.भारत में अंग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद 12. भारत के
प्राचीन भाषा परिवार 13 ऐतिहासिक भाषाविज्ञान और हिंदी भाषा 14 मार्क्स और पिछड़े
हुए समाज 15.भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश आदि।
नाटक: - 1.सूर्यास्त 2.पाप के पुजारी 3. तुलसीदास 4.
जमींदार कुलबोरन सिंह 5. कानपुर के हत्यारे
उपन्यास : -
चार दिन
अनुवाद:- स्वामी विवेकानंद की
तीन पुस्तकों का – 1.
भक्ति और वेदांत 2.कर्मयोग और राज रोग एवं स्टालिन द्वारा लिखित सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी
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Ramvilas sharma ji ke bare me achchi jankari sanjha karne ke liye aapka abhut bahut aabhar.
ReplyDeleteरामबिलास जी कृति और आलोचना समांलोचना की बारीकियों के बारे में विस्तार से बतलाने का शुक्रिया . बहुत ही शानदार
ReplyDeleteविजयादशमी की शुभकामनाएं
रामबिलास जी कृति और उनके बारे में विस्तार से बतलाने का आभार,,,,,.बेहतरीन पोस्ट ,,
ReplyDeleteविजयादशमी की हादिक शुभकामनाये,,,
RECENT POST...: विजयादशमी,,,
सुन्दर विवेचना की है आपने..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ
♥(¯*•๑۩۞۩~*~विजयदशमी (दशहरा) की हार्दिक शुभकामनाएँ!~*~۩۞۩๑•*¯)♥
ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬▬▬▬▬▬▬●ஜ
धन्यवाद शास्त्री जी।
ReplyDeleteरामबिलास जी कृति और उनके बारे में विस्तृत जानकारी को साझा करने हेतु आभार,,,,,.बेहतरीन पोस्ट ,,
ReplyDeleteविजयादशमी की हादिक शुभकामनाये,,,
इस विस्तृत जानकारी के लिये आभार
ReplyDeleteडा. रामविलास शर्मा की पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वे भारतीय संस्कृति के विषद अध्येता थे।
ReplyDeleteआपने उनके कृतित्व पर अच्छा आलेख प्रस्तुत किया है।
विजयादशमी की "बिलेटेड" बधाई
ReplyDeleteइतिहासकारों जीवनी प्रस्तुतीकरण के लिए बहुत बहुत बधाई.... सुन्दर रचना
ReplyDeleteVirendra Kumar SharmaOctober 25, 2012 11:12 PM
मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले हिंदी के मूर्ध्न्य लेखक रामविलास शर्मा का लेखन साहित्य तक सामित नही है, बल्कि उससे इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र आदि अनेक अकादमिक क्षेत्र भी समृद्ध हैं। साहित्य के इस पुरोधा ने हिंदी साहित्य के करोड़ों हिंदी पाठकों को साहित्य की राग वेदना को समझने और इतिहास के घटनाक्रम को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने में सक्षम बनाया है, इसलिए भी उनका युगांतकारी महत्व है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से वे यह बता गए हैं कि कोई भी चीज द्वंद्व से परे नही है, हर चीज सापेक्ष है और हर संवृत्ति (Phenomena) गतिमान है। साहित्यिक आस्वाद की दृष्टि से उन्होंने इंद्रियबोध, भाव और विचार के पारस्परिक तादाम्य का विश्लेषण करना भी सिखाया।
रामविलाश शर्मा के संपूर्ण कृतित्व पर अगर अचूक दृष्टि डाली जाए तो यह स्पष्ट होगा कि प्रचलित अर्थों में वे मात्र साहित्यिक समालोचक न थे। वे साहित्य, कला एवं ज्ञान विज्ञान के विभिन्न अनुशासन के क्षेत्र में बौद्धिक हस्तक्षेप करने वाले अग्रणी कृतिकार, विद्वान और चिंतक थे। हालांकि, उनका साहित्यिक जीवन कविता लिखने के क्रम में हुआ था। झांसी में इंटरमीडिएट कक्षा के जब वे क्षात्र थे, तभी अंग्रेजी राज्य के विरूद्ध ‘हम गोरे हैं’ शीर्षक कविता लिखी थी। जब वे लखनउ विश्वविद्यालय से बी.ए (आनर्स) कर रहे थे,
। इसके अलावा उन्होंने अगिया बैताल और निरंजन के उपनाम से वे राजनीतिक व्यंग कविताएं लिख रहे थे।यहां उल्लेखनीय है कि साहित्यिक सृजन के इस प्रारंभिक दौर में रामविलाश जी का
प्रतिक्रिया :
राम विलास पासवान जी हिंदी के प्रबल हिमायती थे .उनका मत था शब्द निर्मिती हिंदी के शब्दों से प्रत्यय लगाके की जाए जैसे इतिहास में इक जोड़ इतिहासिक ,विज्ञान में विज्ञानिक (साइंटिस्ट के लिए )अब हिंदी वाले वैज्ञानिक कार्य और साइंटिस्ट के लिए एक ही शब्द प्रयोग वैज्ञानिक में रमें हैं .हमने उन्हीं से विज्ञानी लिखना सीखा और अगले ही पल इसका प्रयोग जन प्रिय विज्ञान में शुरू कर दिया था .
)
आपने एक विस्तृत आलेख श्रम करके उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर मुहैया करवाया है आभार .बधाई।
(मूर्धन्य ,युगान्तर -कारी ,तादात्मय , छात्र ,लखनऊ ,व्यंग्य .............)
(बंधुवर आजकल वर्तनी की अशुद्धि /चूक की और संकेत कर दो तो लोग गाली गलौंच ,अप -भाषा पे उतर आतें हैं क्या आप भी हमसे नाराज़ हैं आना जाना छोड़ दिया .हम मेहनत करके अच्छी रचनाएं सभी पूरी पढ़तें हैं सिर्फ बढ़िया ,बढ़िया ,नाइस ,नाइस ,सुन्दर प्रस्तुति नहीं करते .नाराज़ हो तो मान जाओ .श्याम पैयां परूँ ,तोसे विनती करूं .)
रूठे सुजन मनाइए ,जो रूठे सौ बार ,
रहिमन फिर फिर पाइए टूटे मुक्ताहार .
प्रेम सरोवर जी याद दिलवा रहे है रामविलास शर्मा जी की
ReplyDelete
ReplyDeleteVirendra Kumar SharmaOctober 25, 2012 11:12 PM
मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भों में व्याख्यायित करने वाले हिंदी के मूर्ध्न्य लेखक रामविलास शर्मा का लेखन साहित्य तक सामित नही है, बल्कि उससे इतिहास, भाषाविज्ञान, समाजशास्त्र आदि अनेक अकादमिक क्षेत्र भी समृद्ध हैं। साहित्य के इस पुरोधा ने हिंदी साहित्य के करोड़ों हिंदी पाठकों को साहित्य की राग वेदना को समझने और इतिहास के घटनाक्रम को द्वंद्वात्मक दृष्टि से देखने में सक्षम बनाया है, इसलिए भी उनका युगांतकारी महत्व है। अपने विपुल लेखन के माध्यम से वे यह बता गए हैं कि कोई भी चीज द्वंद्व से परे नही है, हर चीज सापेक्ष है और हर संवृत्ति (Phenomena) गतिमान है। साहित्यिक आस्वाद की दृष्टि से उन्होंने इंद्रियबोध, भाव और विचार के पारस्परिक तादाम्य का विश्लेषण करना भी सिखाया।
रामविलाश शर्मा के संपूर्ण कृतित्व पर अगर अचूक दृष्टि डाली जाए तो यह स्पष्ट होगा कि प्रचलित अर्थों में वे मात्र साहित्यिक समालोचक न थे। वे साहित्य, कला एवं ज्ञान विज्ञान के विभिन्न अनुशासन के क्षेत्र में बौद्धिक हस्तक्षेप करने वाले अग्रणी कृतिकार, विद्वान और चिंतक थे। हालांकि, उनका साहित्यिक जीवन कविता लिखने के क्रम में हुआ था। झांसी में इंटरमीडिएट कक्षा के जब वे क्षात्र थे, तभी अंग्रेजी राज्य के विरूद्ध ‘हम गोरे हैं’ शीर्षक कविता लिखी थी। जब वे लखनउ विश्वविद्यालय से बी.ए (आनर्स) कर रहे थे,
। इसके अलावा उन्होंने अगिया बैताल और निरंजन के उपनाम से वे राजनीतिक व्यंग कविताएं लिख रहे थे।यहां उल्लेखनीय है कि साहित्यिक सृजन के इस प्रारंभिक दौर में रामविलाश जी का
प्रतिक्रिया :
राम विलास पासवान जी हिंदी के प्रबल हिमायती थे .उनका मत था शब्द निर्मिती हिंदी के शब्दों से प्रत्यय लगाके की जाए जैसे इतिहास में इक जोड़ इतिहासिक ,विज्ञान में विज्ञानिक (साइंटिस्ट के लिए )अब हिंदी वाले वैज्ञानिक कार्य और साइंटिस्ट के लिए एक ही शब्द प्रयोग वैज्ञानिक में रमें हैं .हमने उन्हीं से विज्ञानी लिखना सीखा और अगले ही पल इसका प्रयोग जन प्रिय विज्ञान में शुरू कर दिया था .
)
आपने एक विस्तृत आलेख श्रम करके उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर मुहैया करवाया है आभार .बधाई।
(मूर्धन्य ,युगान्तर -कारी ,तादात्मय , छात्र ,लखनऊ ,व्यंग्य .............)
(बंधुवर आजकल वर्तनी की अशुद्धि /चूक की और संकेत कर दो तो लोग गाली गलौंच ,अप -भाषा पे उतर आतें हैं क्या आप भी हमसे नाराज़ हैं आना जाना छोड़ दिया .हम मेहनत करके अच्छी रचनाएं सभी पूरी पढ़तें हैं सिर्फ बढ़िया ,बढ़िया ,नाइस ,नाइस ,सुन्दर प्रस्तुति नहीं करते .नाराज़ हो तो मान जाओ .श्याम पैयां परूँ ,तोसे विनती करूं .)
रूठे सुजन मनाइए ,जो रूठे सौ बार ,
रहिमन फिर फिर पाइए टूटे मुक्ताहार .
प्रेम सरोवर जी याद दिलवा रहे है रामविलास शर्मा जी की
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रूठे सुजन मनाइए ,जो रूठे सौ बार ,
ReplyDeleteरहिमन फिर फिर पोइए टूटे मुक्ताहार .
धन्यवाद वीरेंद्र कुमार शर्मा जी। आपकी प्रतिक्रिया से मेरा मनोबल बढ़ा है।
ReplyDeleteरूठे सुजन मनाइए ,जो रूठे सौ बार ,
ReplyDeleteरहिमन फिर फिर पाइए टूटे मुक्ताहार .
राम विलास शर्मा जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से बहुत ज्ञानवर्धक परिचय करवाने के लिये आभार...
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