लगता
है बेकार गए हम
(प्रेम सागर सिंह)
एक दिन अचानक प्रेमचंद के ‘होरी’ से
हो गया मेरा सामना
शहर के एक नामी बार के बाहर
हाथ फैलाए बैठा था वह अनमाना
मैंने कहा -
देखा तुमने,
हम कितना आगे बढ़ गए हैं
विकास के अनेक सोपानों को पार कर गए हैं
देश का कितना बदल गया है हर रंग
कितना बदल गया है हमारे जीने का ढंग
हर तरफ कितनी खुशहाली है
मानो हर दिन होली रात दिवाली है
इतना सुनना था
कि
उसके होठों पर आ गई मुस्कान हल्की
पर आँखों से उसकी बेचारगी सी झलकी
यूं तो वह मुस्कुरा रहा था
पर रोम-रोम उसका कराह रहा था
डूबती सी आवाज में बोला-
वक्त कहां बदला है, साहब
बदला तो है बस इंसान
जिसकी नीयत खोटी हो गई है
और घट गया है ईमान
मैंने कहा – “क्या कह रहे
हो तुम !”
देखते नहीं की हमने क्या कर दिया
अंग्रेजों को देश से किया बाहर और
राजाओं का राजपाठ है जनता को दिया
अब न रहा है राजतंत्र और न रही है अंग्रेज सरकार
लोगों का है लोकतंत्र और जनता की है सरकार
क्यों दिल्लगी करते हो मेरे यार...
‘होरी’ बोला
विकास होता तो सबके चेहरे पर होती मुस्कान
चंद सिक्कों के खातिर न मरता कोई इंसान
घोटालों के काऱण देश होता नही बदनाम
मुझको तो कल और आज में लगता नही कोई फर्क
मेरी जिंदगी तो जैसे पहले थी वैसे ही है आज
पहले भी मैं दुनिया को खिलाता था
औ’ खाली रहता था मेरा पेट
आज भी उगाता हूं मैं और खा जाते हैं
सब जमींदार और सेठ
मेरी उगाई फसलं का दाम वही तय करते हैं
मेरे पसीने की कमाई से वे ही तिजोरी भरते हैं
कुछ भी नही बदला है जनाब..
यह भी कहना है बेकार
बस नेताओं की टोपी बन गए हैं जो राजाओं के थे ताज
आज भी यह राजसुख ही भोगते हैं
करते हैं राज
पहले राज पुश्त दर पुश्त चलते थे
अब भी
नेता अपनी वंश परंपरा को ही आगे हैं बढ़ाते
बस राजाओं ने बदला है नेताओं का चोला
कहां से आती है इतनी दौलत यह राज आज तक नही
खोला
कानून से भी लंबे हैं इनके हाथ
जनता को लुटने मे करते हैं
डाकूओं को मात
बेशर्मी की आँखों पे इतना पर्दा पडा है
दौलत का नशा इनके सर पर चढ़ा है
लबालब भरा इनके पापों का घड़ा है
इनके कुत्तों के पट्टों पर भी हीरा जड़ा है
आवाज उठाने वालों को Mango people
और अपने देश को कहते हैं Banana
Republic
इसके बावजूद भी इनका मिजाज कड़ा है
पर प्रेमचंद का “होरी”
आज भी उसी पायदान पर खड़ा है!
विकास के खंभों को भी है गम,
जिन्हे आधे-अधूरे एवं नंगे देख कर,
लगता है बेकार गए हम।
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मेरी उगाई फसलं का दाम वही तय करते हैं
ReplyDeleteमेरे पसीने की कमाई से वे ही तिजोरी भरते हैं
कुछ भी नही बदला है जनाब..
यह भी कहना है बेकार,,,,,,,
आज की सच्चाई बयाँ करती रचना,,,बहुत खूब प्रेमसरोवर जी,,,,,
MY RECENT POST: माँ,,,
धन्यवाद धीरेंद्र जी जी
Deleteबहुत ही प्रभावी... बहुत ही सुंदर रचना.
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया सर .....
सुन्दर व सार्थक रचना..
सादर
अनु
वक्त कहां बदला है, साहब
ReplyDeleteबदला तो है बस इंसान
जिसकी नीयत खोटी हो गई है
और घट गया है ईमान
भैया जी आपने होरी लाल का कलेजा चीरकर रख दिया .
धन्यवाद रमाकांतसिंह जी
Deleteमेरी जिंदगी तो जैसे पहले थी वैसे ही है आज
ReplyDeleteबहुत सुन्दर व सार्थक..
boht badhiyaa!!!
ReplyDeleteबहुत सार्थक सोच के बाद लिखी कविता बहुत अच्छी शब्दावली |
ReplyDeleteआशा
धन्यवाद आशआ सक्सेना जी।
Deleteवाह...!
ReplyDeleteक्या खूब लिखा है...
आज की दशा और दिशा दोनों पार कटाक्ष...लाजवाब |
सादर |
aaj ke halaat pr likhi gayi rachna bahut hi khubsurat lagi ..
ReplyDeletehappy navratri....
jai mata di...
धन्यवाद सुरेश कुमार जी
Deletewah..
ReplyDeleteaaj ke kisan ki durdsha ka sahi chitran kiya h.
http://rohitasghorela.blogspot.com/2012/10/blog-post_17.html
आज की वास्तविकता को दर्शाती है आपकी रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
bade dino baad maja aa gaya ... lijiye apne facebook par bhi share kar dete hun shayad wahan se log ise pasand kare... aur aapka swagat Kaun Mujhe batayega
ReplyDeleteसटीक ...समसामयिक रचना
ReplyDeleteयक़ीनन ! आज होरी ( आधुनिक परिपेक्ष्य में इसे मतदाता भी कहा जा सकता है) स्वयं को ठगा हुआ सा महसूस कर रहा है, आज की सच्चाई को दावे के साथ बयाँ करती रचना,,,आभार व्यक्त करता हूँ........
ReplyDeleteविकास होता तो सबके चेहरे पर होती मुस्कान
ReplyDeleteचंद सिक्कों के खातिर न मरता कोई इंसान...!
बहुत सही...!