भारतीय
नारी : पुरुषों के झूठे अहम की बलिवेदी पर चढ़ी
बकरी है।
(प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह)
हिंदी के
यशस्वी कवि श्री जयशंकर प्रसाद जी ने नारी के संबंध में कहा है –
'नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पगतल में,
पीयूष
स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में' .
वास्तव
में भारतीयों के लिए स्त्री पृथ्वी की कल्पलता है. भारतीय समाज में नारी पुरुषों
के लिए तथा पुरुष नारी के लिए सर्वस्व त्याग करने के लिए तत्पर है. यही त्याग की
भावना दोनों के जीवन को सुखमय बनती है. वह करुणा, दया, प्रेम आदि मानवीय गुणों की देवी है. वह
समाज की मार्गादार्शिक भी है. वास्तव में भारतीय समाज में उसका स्थान अनुपम है.
स्त्री के साथ भेद दृष्टि और लैंगिक असमानता के सैकड़ों संदर्भ समस्त धर्म, साहित्य और परम्परा में बिखरे पड़े हैं।
कोई भी धार्मिक मान्यता इससे अछूता नहीं है। सम्प्रदाय मानसिकता में जीने वाली
परम्पराएं मानव के रूप में स्त्री को प्रतिष्ठित नहीं कर पायी हैं। अर्वाचीन
काल में एक समय ऐसा भी आया था जब यह कह गया कि “यत्र पूज्यस्ते नारी तत्र रमंते देवता” एवं ठीक इसके बाद ही एक आवाज बुलंद हुई - “नारी नरकस्य द्वार एकम” । अत: हम भारतीय
नारी के स्वरूप को विभिन्न रूपों में देखते हैं । वह कभी सीता, सावित्री, द्रौपदी, राधा या मीरा के रूप में सामने आई है तो कभी
चंडी का भी रूप धारण किया है। वह शिव की पार्वती है या फिर विष्णु की लक्ष्मी। सीता जो पति की खातिर चौदह साल तक बनवास भोगती
है। सावित्री जो पति सत्यवान के जीवन के लिये यमराज से लड़ जाती है। द्रौपदी जो पांच
महाबली पतियों के बावजूद दुशासन के चीर-हरण की शिकार होती है। राधा और मीरा कृष्ण
के प्यार में दीवानी। पार्वती और लक्ष्मी देवियां हैं लेकिन उनकी पहचान शिव और
विष्णु से है। यानी देवी हो या फिर आम स्त्री पति ही परमेश्वर है और पुरुष के बिना
कुछ भी नहीं। वो गरीब है तो अबला और अमीर है तो इज्जत। इनके बीच वो क्या है?
सीता को पति
चुनने का अधिकार दिया गया और द्रौपदी को भी जीतने के लिये अर्जुन को मछली की आंख
मे तीर भेदना पड़ा। सावित्री भी अपने पिता की इच्छा के विपरीत गरीब सत्यवान का वरण
करती है ये जानते हुये कि यमराज के बहीखाते में उनकी उम्र काफी कम है। तीनों
तेजस्वी हैं और स्वतंत्र मस्तिष्क की स्वामिनी। लेकिन कहानी शादी के बाद खत्म होती
प्रतीत होती है। सीता राम के साथ सहर्ष वनवास जाती है। क्योंकि यही एक पत्नी का
धर्म है और पति से अलग उसकी अपनी कोई दुनिया नहीं है ये रामायण कहती है। अपहरण के बाद
उन्हें अशोक वाटिका में दिन गुजारने पड़े। ये वो वक्त था जब राम भी अकेले थे और
सीता भी लेकिन युद्ध के बाद जब सीता और राम का मिलन होता है तो एक धोबी की बात
सुनकर राम सीता से अग्नि परीक्षा लेते हैं और सीता इसका बिना विरोध किये दे भी
देती हैं। हालांकि बाद मे वो ये अपमान बर्दाश्त नहीं कर पातीं और धरती में समा
जाती हैं। पर ये सवाल सीता नहीं उठातीं कि जो नियम सीता पर लागू होता है वही राम
पर क्यों नहीं? राम भी तो सीता के बगैर रहे, उनके मन में भी तो किसी और स्त्री का स्मरण हो सकता है तो फिर
वही अग्नि परीक्षा राम ने क्यों नहीं दी? और सीता
इसकी मांग न कर क्यों धरती में समा गईं? सीता का
किरदार दरअसल राम की मर्यादा को खंडित करता है। और उन्हें ईश्वर से इंसान बना देता
है।
सावित्री का
पूरा चरित्र ही इस तरह से गढ़ा गया है कि पति के बिना वो कुछ भी नहीं। यमराज से
उनकी पूरी लड़ाई भारतीय नारी के लिये एक स्टीरियो टाइप बन गया और हर स्त्री के
पत्नी होने की एकमात्र कसौटी। पत्नी की पवित्रता के लिये ये जरूरी हो गया कि वो
सावित्री की तरह पति के प्रति समर्पित और एकनिष्ठ रहे और उसके अलावा कहीं अपने आप
को न तलाशे। पति कैसा भी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता पत्नी को सती सावित्री ही
होना चाहिए। सदियों से ये कहानी चली आ रही है और सदियों से वो ये परीक्षा दिए जा
रही है। सावित्री भारतीय पुरुष को परमेश्वर बनाने की कहानी है। सड़ी गली परंपरा को
दार्शनिक आधार देने का अजीबोगरीब तर्क।
द्रौपदी
बनकर वो अपने आपको थोड़ा स्वतंत्र दिखाने की कोशिश जरूर करती है लेकिन वो कभी इस
बात का विरोध नही करती है कि कुंती के कहने मात्र से ही वह पांचों पांडवों की
पत्नी क्यों होगी? वह दरअसल हमारे पुरुष प्रधान समाज की नपुंसकता की प्रतीक है। वो
उन नियमों की दासी है जो सामंतवादी समाज ने गढ़े। वो महाबलियों के बावजूद भी कमजोर
है। पुरुषों के झूठे अहम की बलिवेदी पर चढ़ी बकरी है। जो आजाद होने का स्वांग भरती
है और आखिर में उसका शिकार भी हो जाती है और जब उसका अपमान हो रहा होता है तो
इंसान नहीं भगवान ही उसकी रक्षा करते हैं। यानी अगर चुनाव पुरुष के अहम और स्त्री
के सतीत्व में होगा तो जीत सिर्फ पुरुष के अहम की ही होगी, भले ही उसका चीर हरण हो जाये।
राधा और
मीरा को भले ही प्रेम का प्रतीक माना जाये लेकिन वो भी कृष्ण रूपी पुरुष मे अपनी
पूर्णता को देखती हैं। वो कृष्ण के प्रेम में पागल हैं, कृष्ण उनके प्रेम में पागल नहीं हैं। कृष्ण के लिये प्रेम एक
लीला है। लेकिन राधा और मीरा के लिये प्रेम जीवन का सार। हालांकि उन्हें एक खास
सामाजिक पृष्ठभूमि में आप बागी भी कह सकते हैं लेकिन ये बगावत अपना स्वतंत्र
अस्तित्व खोजने की कथा नहीं है, ये कृष्ण में विलीन हो जाने का
फसाना है। पार्वती की चर्चा कभी भी शिव के बिना नहीं होती और लक्ष्मी का भी यही
हाल है। दोनों ही देवों के देव शिव और विष्णु की अर्धांगनिय़ां हैं। सीता की तरह
पार्वती भी भभूतधारी और औघड़रूपी शिव को पति के रूप मे चुनती हैं लेकिन इसके बाद
वो भी गुम हो जाती हैं। इन तमाम बिंबों में शायद दुर्गा या काली ही अकेली हैं
जिनको परिभाषित करने के लिये किसी पुरुष की जरूरत नहीं होती। वो आदि शक्ति हैं, आदि रूपा। पर ये हमारी भारतीय पंरपरा में अपवाद है। नियम नहीं।
ऐसे में भारतीय संदर्भों मे जब भी स्त्री प्रतीकों की बात होगी तब काली या दुर्गा
की नहीं सीता, द्रौपदी, सावित्री, पार्वती, लक्ष्मी राधा और मीरा की ही बात
होगी। क्योंकि यहीं हमारे जनमानस की मुख्यधारा में व्याप्त हैं।
ये अद्भुत
संयोग है या फिर हमारी परंपरा का दुहरा चरित्र कि सीता हो या सावित्री या फिर
द्रौपदी या पार्वती सबको पुरुष चुनने का अधिकार तो दिया गया लेकिन चयन की प्रकिया
पूरी होते ही सारे अधिकार छीन के पुरुषों को दे दिये गए। यानी स्त्री जाने अनजाने
बराबरी के अधिकार को त्याग देती है। ये शायद उस देश काल की मजबूरी रही हो। या फिर
पुरुषवादी मानसिकता का आघात कि आजाद स्त्री पुरुष की छाया बन जाती है। ये स्पष्ट
है कि भारतीय परंपरा मे स्त्री कुछ भी है लेकिन वो पुरुष के बराबर नहीं है। और यही
परंपरा आजाद हिंदुस्तान में भी बखूबी चली आ रही है। हम घरों में देवियों की पूजा
करते हैं, लेकिन उसे बराबरी का दर्जा नहीं देते। दहेज हत्या हो या फिर
भ्रूण हत्या ये इस गैर बराबरी और पुरुषवादी मानसिकता का ही रिफलेक्शन है। ये यही
दुहरा चरित्र है कि बच्ची के पैदा होते ही स्त्री को अपशकुन करार दिया जाता है और
स्त्री विवश हो कह उठती है अगले जन्म
हमें बिटिया न कीजो। धर्म का अतीत
तो हम बदल नहीं सकते और न ही उसकी मान्य़ताओं और प्रतीकों को लेकिन संविधान के
जरिये सदियों से दबाई गई स्त्री को बराबरी का कुछ दर्जा जरूर दे सकते हैं। ऐसे में
अगर महिला आरक्षण बिल आता है तो हमें खुलकर समर्थन करना चाहिए। ताकि हम पुरुष अपने
किये पापों का कुछ तो प्रायश्चित कर सकें ................... ।
नोट: -- दोस्तों, इसके पूर्व भी मैं आप लोगों से निवेदन कर चुका हूं कि
मैं अपने प्रत्येक पोस्ट में कुछ ऐसी बातों को आप सबके समक्ष प्रस्तुत करता रहा
हूं ताकि मेरा पोस्ट सूचनाप्रद होने के साथ-साथ आपके दिल में भी थोड़ी सी जगह भी
पा सके । मैं अपने प्रयास परिश्रम एव तथ्यों के चयन में कहां तक सफल रहा ये तो आप
सबकी प्रतिक्रियाएं ही बता सकती हैं । अत: इसे रूचिकर एवं सूचनाप्रद बनाने के लिए आपके सहयोग की आतुरता
से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद । आपका-
प्रेम सागर सिंह
(www.premsarowar.blogspot.com)
आदर्श की खोज में भटकने को विवश होती आज की नारी..
ReplyDeleteसत्य बचन ....
Delete[ ma ]यही दुहरा चरित्र है कि बच्ची के पैदा होते ही स्त्री को अपशकुन करार दिया जाता है और स्त्री विवश हो कह उठती है अगले जन्म हमें बिटिया न कीजो।,,,,[/ ma ]
ReplyDeleteWELCOME TO MY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,
बहुत समसामयिक और विचारणीय आलेख...आभार
ReplyDeleteदिल के बहुत ही करीब का विषय! नारी देवी भी है दासी भी! कहने को गृहस्वामिनी है किंतु जन्म से लेकर मृत्यु तक उसे किसी न किसी रूप में आत्मनिर्भरा होके भी वह पुरूष का मुँह तकती है उसकी स्वीकृति के लिए!
ReplyDeleteदिल छू गया आपका आलेश!
नारी तुम केवल श्रद्धा हो.....मन को छूलिया बहुत सुन्दर और विचारणीय आलेख...आभार
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट...व विषय परन्तु---
ReplyDelete------तात्विक दृष्टि में उत्तर है इसका, ब्रह्मरूप नर(कृष्ण) मोह रहित होता है... उसीकी व्युत्पत्ति माया (स्त्री)मोह रूपा...अतः निश्चय ही पुरुष के लिए प्रेम खेल..लीला ही है..... नारी के लिए उसका अस्तित्व .... अतः नारी के लिए पुरुष के लिए त्याग...आदि भाव अवश्यम्भावी हैं ...आप हम, समाज या संसार की कोई शक्ति इसे रोक नहीं सकती....
--- इसी तत्व में निहित है सीता, राधा,आदि का कुछ न बोलना नत-मस्तक रहना, चुपचाप पलायन कर जाना |
-----काली या दुर्गा के सन्दर्भ भी पुरुष बिना कहाँ पूर्ण होते....काली ( शक्ति-नारी) के अनियंत्रित होजाने पर शिव द्वारा ही उसे नियंत्रित किया गया था ...अर्थात शक्ति को समन्वित करने के लिए पुरुष की आवश्यकता होती है ...
ReplyDelete---- इसे तत्व में नारी-पुरुष का सम्बन्ध निहित है...
खुबसूरत पत्रों का अद्भुत विश्लेषण और चरित्र चित्रण मनोहारी संग्रहनीय पोस्ट
ReplyDeleteआदरणीय अंतर्द्वंद में उलझी पोस्ट ,नारी अस्तित्व के या नारी सम्मान की या फिर ,नारी की विवशता की मंत्रणा है , भाषा रोचक, कथ्य सामयिक पर निष्कर्ष अपरोक्ष रूप से धार्मिक आलोक में है जो सामायिक परिस्थितयों में पुर्णतः स्वीकार्य नहीं है , विडम्बना है बहु को सांस्कृतिक परिप्रेक्ष में वहीँ बेटी को आधुनिक आलोक में देखने में कोई गुरेज नहीं .......उद्धरण की सीमा जैविक ,व वैज्ञानिक आलोक में भी होनी चाहिए .... सार्थक पोस्ट साभार ,मिस्ट .सिंह .
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी आलेख
ReplyDeleteसच में ये विचार करने का विषय है कि नारी का अपना अस्तित्व कितना रहा है
bahut acche vichar hain....acchi prastuti hai....
ReplyDeleteisme naari ka dosh dikhta hai wo kyun nahi dusri ko apne se aage badhne deti hai ......jab tak ek dusri me irshyaa samaapt nahi hoti aisa hi hoga.....aapne bahut sundar vicharo se paripurn rachna likhi hai ........
ReplyDeleteउपासना सियाम- धन्यवाद ।
ReplyDeleteaapki es post me bahut kuch sochne like hai....
ReplyDeletebahut hi shandaar likha hai...
dhanyawad....
Aapne bahut sundar rachna likhi hai
ReplyDeleteबहुत ही गहनता के साथ आपने नारियो के स्थिति का विश्लेषण किया है..
ReplyDeleteआपकी पोस्ट बहुत ही लाजवाब और संग्रहणीय है....
अति सुंदर प्रस्तुति...........
ReplyDeleteअच्छा लेख ...
ReplyDeleteआभार आपका !
उत्तमोत्तम
ReplyDeletenirmal jal si hoti hai naari,ab koi use nadi samje,ya gaanga jal, laachari,ya fir khaara pani ye ek atant jatil vishey hai,naari tum kavel shraadha ho padne mai aacha lagta hai !!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteबहुत गहन विश्लेषण...नारी के अधिकारों पर सवाल उठाता उत्कृष्ट आलेख !!!
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति....आभार..
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