खड़ी
बोली का प्रतिनिधि कवि :
मैथिलीशरण गुप्त
(खड़ी बोली कविता का बहुत बड़ा कविता इतिहास गुप्त
जी की कृतियों का है। उन्होंने खड़ी बोली को उंगली पकड़ कर चलना सिखाया, उसकी
चिह्वा को शुद्द किया तथा उसके हृदय में प्रेम एवं मष्तिष्क में अभिनव विचारों का
संचार किया । उनका उत्थान द्विवेदी-मंडल के सबसे बड़े प्रकाश स्तम्भ के रूप में
हुआ जिसके दूरगामी प्रकाश में खड़ी बोली ने अपना गंतव्य दिशा का ध्यान एवं अपने
आदर्श का अवलोकन किया)
मैथिलीशरण गुप्त
प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह
भारतेंदु के बाद अब तक के कवियों में
श्री मैथिलीशऱण गुप्त जी का स्थान निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ हैं। यद्यपि कि उनके
प्रधान मनोवेगों का युग आज से लगभग कई वर्षों पूर्व ही समाप्त हो गया, तो भी कई
कारणों से अब भी इस पद के अधिकारी वे ही हैं। शंका और संदेह के युग में उन्होंने आस्तिकता की भारतीय परंपरा की वाणी को सुदृढ़
बनाया । साहित्य में वैष्ण्व धर्म को पुनरूज्जीवित किया, इतिहास को काव्य में
रूपांतरित करके उसमें जीवन डाला, पराधीन देश को अपनी शक्ति की याद दिलाई और शुद्ध
आर्य-संस्कृति जागृति को अधिक-से-अधिक व्यापक बनाने की चेष्टा की। इस प्रकार
उन्होंने हिंदू जाति के सभी प्रिय भावों का व्यापक प्रतिनिधित्व किया है। कोई
आश्चर्य नही कि आज हिदू जनता के दृदय पर उनका ऐसा साम्राज्य है जैसा बहुत दिनों से
किसी अन्य कवि को प्राप्त नही हुआ था ।
1920 से बाद की धारा के सम्राट पंत जी हैं. किंतु इस सत्य को उदघोषित करना
निरापद नही है ;
क्योंकि प्रतिद्वंधिता निराला जी से है और जब प्रसाद जी जीवित थे तब विवाद की
कटुता से बचने के लिए लोग इन दोनों कवियों के ऊपर उन्ही का नाम लिख देते थे । पंत
और निराला हिंदी के ‘ज्योर्तिनयन
प्रियदर्शी’
कवि हैं और दोनों ही का वर्तमान हिंदी कविता पर व्यापक
प्रभाव है । हिंदी कविता के वर्तमान इतिहास को अबी यह सुविधा प्राप्त नही कि वह इन दोनों कवियों की सेवाओं को तुला के दोनों
आधारों पर तौल कर उन पर अलग-अलग मत दे सके ।
भारतेंदु के समय से ही हिंदी कविता में सामयिक प्रश्नों से उलझने की प्रवृति
का जन्म हो रहा था, लेकिन इस दिशा में भी उसके स्वर को अधिक स्प्ट एवं सुदृढ़
बनाकर सुनाने का सारा श्रेय गुप्त जी को है, इतना ही नही, वरन निद्रा की जड़ता से राष्ट्र को
जगाने के लिए जब साहित्य ने शँक फूकना आरंभ किया तब भी पाँचजन्य की “भारती’ मैथिलीशऱण गुप्त जी के कंठ से ही फूटी । आज हिंदी कविता में प्रगतिवाद का
जयघोष गुंज रहा है, लेकिन हिंदी कविता को अपने सामाजिक लक्ष्यों का ध्यान बहुतों
से पहले गुप्त जी ने ही दिलाया था ।
गुप्त जी प्राचीनता के संदेशवाहक नवीन कवि हैं। वर्तमान कविता के इतिहास में
उनका इतिहास एक महासेतु की तरह है, जिसका आदि स्तंभ ‘भारत-भारती’ है, यद्यपि उसमें ‘झंकार’, ‘साकेत’ और ‘यशोधरा’ के सुदृढ़ खंभे लगते ही आए हैं। गुप्त जी की एक बहुत बड़ी विशेषता यह भी है कि
स्वयं काव्य रचने के साथ-साथ वह अपनी रचना के प्रभाव से समकालीन कवियों को भी नई
भावनाओं की ओर प्रेरित करे । छायावाद-युग के समारंभ तक कविता के क्षेत्र में उनका
प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से काम करता रहा। उसके बाद यद्यपि नई धारा के कवियों ने उनसे
प्रभाव ग्रहण नही किया तथा स्वयं ही वे उस
धारा के कवियों को आशीर्वाद देने के लिए चले आए, किंतु कौन कह सकता है कि झंकार की
कविताओं से रहस्यवाद की रीढ़ मजबूत हुई !
‘स्वर न ताल, केवल झंकार, किसी शून्य में कर
विहार’, इस बात से यह ध्वनित होती है कि रचना के समय गुप्त जी की मनोदशा बहुत कुछ
रोमांटिक कवि की मनोदशा के समान थी तथा वे इस बात से अवगत थे कि उनके हाथ में जो
वीणा आई है उसके तार वर्णन नही, प्रत्युत व्यंजना की कला में पटु है । गुप्त जी की
गोद में जाकर नई वीणा ने कुछ खोया नही, वरन् उसने यही प्रमाणित किया कि वह भाव,
शैली तथा
छंद, सभी पर प्रचंड स्वामित्व रखने वाले महाप्रौढ़ कवि की भावनाओं की भी सुंदर तथा समर्थ व्यंजना कर
सकती है। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर उन्हे खड़ी बोली का प्रतिनिधि कवि कहने पर
दो राय नही हो सकती है ।
नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में
मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य एवं संकलित तथ्यों को आप
सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम
में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी । इस पोस्ट को अत्यधिक
रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग
की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
(www.premsarowar.blogspot.com)
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गुप्त जी की साकेत पढने का अवसर मिला था, वह एक मील का पत्थर है हिंदी कविता जगत में....... आपका यह लेख पुष्टि करता है. आभार !!
ReplyDeleteआपका बहुत शुक्रिया सर.
ReplyDeleteआपकी पोस्ट से...बहुत कुछ जाना है हिंदी साहित्य के बारे में,
सादर
अनु
मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी साहित्य के मील के पत्थर है,उनका ये स्थान कोई दूसरा नही ले सकता,,,इनकी याद दिलाने के लिये आभार,,,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST .... काव्यान्जलि ...: अकेलापन,,,,,
मैथिली शरण गुप्त जी का परिचय अच्छा लगा। उनकी कविताएं मुझे अच्छी लगती हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद सर, आपकी प्रतिक्रियाएं मुझे संबल प्रदान करती हैं ।
Deleteसादर नमन गुप्त जी को !
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कहीं छुट्टियाँ ... छुट्टी न कर दें ... ज़रा गौर करें - ब्लॉग बुलेटिन
गुप्त जी का रचनाकर्म हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है ...!
ReplyDeleteहिन्दी को सुदृढ़ आधार दिया है, मैथिलीजी की कृतियों ने।
ReplyDeleteहिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के राष्ट्रीय-जागरण क्रम में गुप्त जी की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता -समय की करवट को पहचान कर उन्होंने उसे स्वर दिये .
ReplyDeleteसुन्दर आलेख!
ReplyDeleteआभार!
एक बेहतरीन और गंभीर अभिव्यक्ति के लिए बधाई...
ReplyDeleteगुप्त जी के विषय में बहुत ही अच्छी जानकारी दी है...
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया पोस्ट...
:-)
बहुत ज्ञानवर्धक आलेख...आभार
ReplyDeleteचाह नही मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊँ, यह कविता एकदम याद आ गई . बढिया आलेख ।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया और बहुत ज्ञानवर्धक आलेख...आभार
ReplyDeleteis gyanvardhak lekh ke liye aabhari hun.
ReplyDeleteधन्यवाद अमानिका जी।
ReplyDeleteमैथिलिशरण गुप्त जी के बारे में विस्तृत जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteज्ञानवर्धक आलेख मैथिलीशरण गुप्त की याद दिलाने के लिये आभार !
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