Friday, November 4, 2011

परंपरा भंजक अज्नेयाछ

परंपरा भंजक अज्ञेय : एक महाकाव्य सा जीवन

इस हसीन जिंदगी के सप्तरंगी इंद्रधनुष की तरह अज्ञेय जी की रचनाओं के रंग भी बेशुमार हैं । जिंदगी को जितने रंगों में जिया जा सकता है,अज्ञेय को उससे कहीं ज्यादा रंगों मे कहा जा सकता है । उनकी रचनाओं का चोला कुछ इस अंदाज का है कि जिंदगी का बदलता हुआ हर एक रंग उस पर सजने लगता है और उसकी फबन में चार चाँद लगा देता है । इसीलिए साहित्य जगत में एक लंबी दूरी तय करने तथा पर्दा करने के बाद भी अज्ञेय आज भी ताजा दम हैं, हसीन हैं और दिल नवाज भी। "

प्रेम सागर सिंह

अज्ञेय हिंदी कविता के ऐसे पुरूष हैं जिनकी जड़े हिंदी कविता में बड़े गहरे समाई हैं । 1937 ई. में अज्ञेय ने सैनिकपत्रिका और पुन: कोलकाता से निकलने वाले विशाल भारतके सम्पादन का कार्य किया। हिंदी साहित्य जगत में पदार्पण के पूर्व सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन में सेना में भर्ती हो गए लेकिन सन 1947 में सेना की नौकरी छोड़ कर प्रतीक नामक हिंदी पत्र के संपादन कार्य में जुट गए और अपना संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य के चतुर्दिक विकास के लिए समर्पित कर दिया। इसी पत्रिका के माध्यम से वे सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन के नाम से साहित्यजगत में प्रतिष्ठित हुए। ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के अवसर पर आयोजित अज्ञेय हिंदी कविता के ऐसे पुरूष हैं जिनकी जड़े हिंदी कविता में बड़े गहरे समाई हैं । 1937 ई. में अज्ञेय ने सैनिक पत्रिका और पुन: कोलकाता से निकलने वाले विशाल भारत के सम्पादन का कार्य किया। हिंदी साहित्य जगत में पदार्पण के पूर्व सचिदानंद हीरानंद वात्सयायन अज्ञेय सन 1943 समारोह में अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा था –“ लेखक परंपरा तोड़ता है जैसे किसान भूमि तोड़ता है। मैंने अचेत या मुग्धभाव से नही लिखा :जब परंपरा तोड़ी है तब यह जाना है कि परंपरा तोड़ने के मेरे निर्णय का प्रभाव आने वाली पीढियों पर भी पड़ेगा इस तरह अपने को परंपराभंजक कहे जाने के आरोप को भी साधार ठहराने वाले अज्ञेय का व्यक्तित्व कालजयी है। अज्ञेय हिंदी कविता में नए कविता के हिमायती ऐसे कवियों में हैं, जिन्होंने कविता के इतिहास पर युगव्यापी प्रभाव छोड़ा है। कविता, कथा साहित्य, उपन्यास, निबंध, संस्मरण, यात्रा-वृत, सभी विधाओं में एक सी गति रखने वाले अज्ञेय अपने जीवन में साहित्य की ऐसी किंवदंती बन गए थे, जिनकी शख्सियत, विचारधारा और काव्यात्मक फलश्रुति को केंद्र मे रख कर एक लंबे काल तक बहसें चलाई गई हैं। हिंदी कविता जिस तरह प्रगतिवाद मार्क्सवादी दर्शन की अवधारणाओं को रचनाधार बनाकर सामने आई, उसी तरह अज्ञेय ने पश्चिम के कला-आंदोलनों की भूमि पर प्रयोगवाद की नींव स्थापित की। प्रगतिवादी कविता को कलात्मक मानदंडों के निकष पर खारिज करने वाले अज्ञेय ने 1943 में सात कवियों का एक प्रयोगवादी काव्य-संकलन तारसप्तकशीर्षक से संपादित किया। इसी क्रम में दूसरा सप्तक (1957), तीसरा सप्तक (1959) तथा चौथा सप्तक (1979) का प्रकाशन हुआ। इन सप्तकों को लेकर उनके और प्रगतिवादी खेमे के साहित्यकारों के बीच लगातार खिंचाव बना रहा। इनकी निम्नलिखित रचनाएं इन्हे एक सजग रूपवादी कलाकार सिद्ध करती हैं।

काव्य- भग्नदूत, चिंता, इत्यलम, हरी घास पर छड़ भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनुष रौंदे हुए थे, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार-द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि उसे मैं जानता हूँ, सागर मुद्रा, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ,।

उपन्यास- शेखर एक जीवनी (दो भाग), नदी के द्वीप, अपने-अपने अजनबी।

कहानीसंग्रह- विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जय दोल, ये तेरे प्रतिरूप आदि।

गीति-नाट्य- उत्तर प्रियदर्शी

निबंध-संग्रह- त्रिशंकु, आत्मनेपद, हिंदी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, सब रंग और कुछ राग, भवन्ती, अंतरा, लिखी कागद कोरे, जोग लिखी, अद्यतन, आल-बाल, वत्सर आदि।

यात्रा-वृतांत- अरे यायावर रहेगा याद, एक बूँद सहसा उछली।

अनुवाद- त्याग पत्र (जैनेन्द्र) और श्रीकांत (शरतचंद्र) उपन्यासों का अंग्रेजी अनुवाद।

लगभग पिछले छह दशकों तक अज्ञेय के प्रयोगवाद की काफी धूम रही है। इस बीच उनके कई काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। पूर्वा, इत्यलम, बावरा अहेरी, हरी घास पर छड़ भर, असाध्य वीणा, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि उसे मैं जानता हूं, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं, तथा ऐसा कोई घर आपने देखा है आदि। उनकी शेखर एक जीवनी तथा नदी के द्वीप तो उपन्यास साहित्य में इस शती की मानक कृतियाँ हैं। उनकी कहानियों, निबंधों एवं यात्रा संस्मरणों ने उनके व्यक्तित्व को एक अलग ही आभा दी है। प्रभूत लेखन के बावजूद प्राय: उनकी कलावादी प्रवृतियों के कारण उनके प्रति खास तरह के नकार का भाव भी साहित्यकारों में जड़ जमाए रहा है.परंतु प्रयोगवादी कविता को कोसते हुए अक्सर आलोचक इस तथ्य को नकार जाते हैं कि विषम परिस्थितियों में भी अज्ञेय ने प्रयोगवादी कविता की एक नयी जमीन तैयार की। छायावादी रूढ़ियों को तोड़ कर एक नयी लीक बनायी। हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार करना होगा कि प्रयोगवादी कविता अपने वस्तु और रूप में पर्याप्त नयापन लेकर सामने आयी, यह और बात है कि प्रयोगवाद की भी अपनी सीमाएं थीं और अज्ञेय की भी। उनका कहना था कि आज की कविता का मुहावरा वक्तव्यप्रधान रहा है, जिसे साठोत्तर कविता के नायक धूमिल ने सार्थक काव्य-परिणति दी । सदैव बहसों के केन्द्र में रहे अज्ञेय के व्यक्तित्व की कृतियाँ नि:सदेह लोगों को आकृष्ट करती रही हैं। उनकी काव्य-यात्रा के साथ-साथ साहित्यिक सांस्कृतिक अंतर्यात्राएं-साहित्यिक गतिविधियाँ नवोन्मेष का परिचायक हैं। उनके अंतिम दिनों की कविता में एक खुलापन दिखाई देता है। अज्ञेय ने अपने अंतिम संकलन ऐसा कोई घर आपने देखा है”–इस ओर संकेत भी किय़ा है।

मैं सभी ओर से खुला हूँ,

वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ,

शब्दों में मेरी समाई नही होगी,

मैं सन्नाटे का छंद हूँ।

अज्ञेय जैसे कवि युग की धरोहर हैं। युग का तापमान हैं। ऐसे कवि कभी मरते नही । वे तो बस दूसरा शरीर धारण करते हैं । अज्ञेय ने काल पर अपनी एक ऐसी सनातन छाप छोड़ी है जो सदियों तक मिटने वाली नही है । वे निरंतर अपने शिल्प को तोड़ कर आगे बढते हैं, यहाँ तक की जटिलता तथा नव्यतम प्रयोगों से भरी पूरी उनकी कविता ऐसा कोई घर आपने देखा है-के कुछ अंश नीचे दिए गए हैं।

फिर आउंगा मै भी

लिए झोली में अग्निबीज

धारेगी जिसको धरा

ताप से होगी रत्नप्रसू।.

उनकी एक कविता कलगी बाजरे की का नीचे दिया गया एक अंश उनके सप्तरंगी उदगार को कितना प्रभावित कर जाता हैं-

अगर मैं तुमको ललाती साँझ की नभ की अकेली तारिका

अब नही कहता,

या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,

टटकी कली चंपे की, वगैरह तो

नही कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गए हैं।

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच।

अज्ञेय के जीवन काल से ही उन्हे और मुक्तिबोध को आमने-सामने खड़ा कर देखने की कोशिशें की जाती हैं। यह सच है कि मुक्तिबोध की आलोचनात्मक स्थापनाएं साहसिक एवं सामयिक हैं तथा उनकी कविताओं में युगीन विसंगतियों का प्रभाव देखने को मिलता है। उन्होंने अपने हर अनुभव को वागर्थ की मार्मिकता से संपन्न करना चाहा है, अर्थ के नए स्तरों को स्पर्श करना चाहा है तथा ऐसा कर पाने में वे सफल रहे हैं। अज्ञेय इस भववादी संसार में जीवन के आखिरी छोर पर पहुँच कर ऐसे अद्वितीय, अज्ञेय प्रश्नों से टकराने लगे थे, जिनके उत्तर सहजता से पाए नही जा सकते। एक महाकाव्य की तरह फैले अज्ञेय के जीवन और रचना फलक की भले ही आज अनदेखी की जा रही हो, यह सच है कि अज्ञेय के रचना संसार ने एक ऐसा अद्वितीय अनुभव-लोक रचा है जिसकी प्रासंगिता सदैव रहेगी । बस और ज्यादा क्या लिखना है, मन में जब कभी भी साहित्य के इन जैसे पुजारियों की याद आती है तो आँखे भर आती हैं, मन थक सा जाता है अंतर्मन की आंतरिक उच्छवास बाहर निकल कर कहती है जब याद आए, बहुत याद आए..............।

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