सपनों की भी उम्र होती है
( प्रेम सागर सिंह)
आज मेरे मन का समुद्र,
बहुत शांत और अडोल
है-
मेरे भीतर का आक्रोश और शोर भी,
बिल्कुल थम सा गया है-
यानि,
मैं मुकम्मल समुद्र हो गया हूँ,
मेरे भीतर का आक्रोश और शोर भी,
बिल्कुल थम सा गया है-
यानि,
मैं मुकम्मल समुद्र हो गया हूँ,
अभी - इस वक्त।
मैं उन संगमर्मरी पत्थरों पे,
बैठ तो गया हूँ -
जिन पे बैठ कर मैं,
भविष्य के सपने तराशा करता था।
मैं उन संगमर्मरी पत्थरों पे,
बैठ तो गया हूँ -
जिन पे बैठ कर मैं,
भविष्य के सपने तराशा करता था।
पर,
मुझे उन सपनों के
तराशे हुये कतरे,
कहीं नहीं दिख रहे।
इसे देख कर महसूस हो रहा है,
तराशे हुये कतरे,
कहीं नहीं दिख रहे।
इसे देख कर महसूस हो रहा है,
शायद,
सपनों की भी उम्र होती है।
सपनों की भी उम्र होती है।
इस वय में सपनों को निहारता हूं,
तो कई सवाल जहन में उतर जाते हैं,
और उतर जाता है एक मीठा सा दर्द,
जिसे अब चुपचाप सहते रहना,
मेरी नीयत सी बन गई है।
दिन उतरते ही सुहानी शाम उतर आती है,
नैराश्य भाव से उजाले को याद करते-करते,
जब मेरी निगाहें आकाश की ओर उठती हैं,
तब कविता का रंग खिलता नजर आता है,
डूब जाता है मन अतीत के समुद्र में,
और कविता मेरे माथे का पसीना पोछ देती है।
ऐसा लगता है
साँझ के बाद सुबह आने की
उम्मीद,
पिघल कर मन के समुद्र में,
धीरे-धीरे घुलती सी जा रही है.
कुछ देर तक यह एहसास सालता रहता है
और-
फिर अहले सुबह की उम्मीद में,
कि
पिघल कर मन के समुद्र में,
धीरे-धीरे घुलती सी जा रही है.
कुछ देर तक यह एहसास सालता रहता है
और-
फिर अहले सुबह की उम्मीद में,
कि
सूरज की लालिमा में कविता का वजूद,
थके मन
को सहारा देगा,
और मेरी
कल्पना को प्राणवान करेगा।
बस – अकेले ही, मन ही मन
यूँ ही मैं गुनगुना रहा था,
और....
मेरी कविता बुनती जा रही थी,
और....
मेरी कविता बुनती जा रही थी,
बहती जा रही थी,
मझदार में फंसती जा रही थी
मेरी मजबूरी सिर्फ यह थी
कि
उस समय चाह कर भी मैं,
अपनी कविता को
बचा पाने में काफी कमजोर था,
क्योंकि जमाने की अनगिनत चाहतों के सामने,
मेरी चाहत की कद कुछ छोटी पड़ गई थी।
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देखीं प्रेम बाबू! आज राउर पोस्ट हमार फ़ीड पर देखाई दे ताs अऊर हम कमेण्ट कर रहल बानीं! कमाल के कबिता बा... एकेदम अंतर्मन से से निकलल आत्मालाप कह सक तानीं! कोनो कोनो जगह टाइपिंग के गड़्बड़ बुझाता.. जैसे नियति के रउआ नीयत लिखले बानीं! बाकी त सब एक्के बार मन में उतर जा ला!!
ReplyDeleteसलील भाई जी, रऊआ हमार भावना के समझनी, ई बात हमरा खातिर बहुत बड़ थाती बा । बहुत दिन बाद आपसे मुलाकात एही बहाने भईल इहे काफी बा। 31-03-2015 के हमहूं सेवानिवृत हो जाईब। सुप्रभात।
Deleteकल्पना यथासंभव व यथाशक्ति पोषित रहें, शुभकामनायें।
ReplyDeleteकविता बाहर भले न बच पायी हो पर भीतर वह उतनी ही ताजा है किसी और ऐसे ही पल की प्रतीक्षा में..
ReplyDeleteशायद कितने ही सपने बस सपने भर रह जाते हैं
ReplyDeleteपर बिना सपनों के जीवन नीरस है
बहुत ही सुन्दर रचना
सादर !
सपने और कल्पनाएँ ही जीवन को जीवन बनाए रखती हैं .....उसमे रंग और रस भरती हैं
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
athhaah Saagar!
ReplyDeleteक्योंकि जमाने की अनगिनत चाहतों के सामने,
ReplyDeleteमेरी चाहत की कद कुछ छोटी पड़ गई थी।
...वाह...सपनों के संसार में ले जाती बहुत सुन्दर और संवेदनशील रचना..
धन्यवाद , जी।
Deleteशायद कितने ही सपने बस सपने भर रह जाते हैं
ReplyDeleteपर बिना सपनों के जीवन नीरस है
बहुत ही सुन्दर रचना
मन के अनकहे भाव को कविता में बाँध देना अच्छा लगा बहुत बढ़िया ,स्वप्न और कल्पनाएँ ना हो तो भाव कहाँ और कविता कहाँ.
ReplyDeleteसपने तो सपने होते हैं
ReplyDeleteकब होते हैं अपने
बहुत सुंदर.
bahut hi sundar
ReplyDeleteसुन्दर ढंग से अभिव्यक्त किया है ..
ReplyDeleteसुंदर प्रवाह कविता का .....!!
ReplyDeleteसपना और कल्पना जीवन के दो सुंदर पहलू में से.... निराशा में कविता उम्मीद की एक किरण ...
सूंदर प्रस्तुति।।।
ReplyDeleteबेहतरीन पंक्तियाँ
ReplyDeleteVery heart touching my kavita..
ReplyDeleteबेमिसाल अभिव्यक्ति
ReplyDeleteजो होता है अच्छे के लिए होता है
सुन्दर रचना ।।
ReplyDeleteनई कड़ियाँ : भारत कोकिला सरोजिनी नायडू
क्या हिन्दी ब्लॉगजगत में पाठकों की कमी है ?
सच इस नश्वर संसार में सबकी एक उम्र निश्चित है ..
ReplyDeleteमनोभाव का सुन्दर गहन अनुभवभरा प्रस्तुतीकरण ..
बेहतरीन पंक्तियाँ..सुन्दर गहन...
ReplyDeletewah bhai Prem ji bahut sundar likha apne
ReplyDeleteBahut sunder bhaav...
ReplyDeleteBshut
ReplyDeleteBahut hi sundar prashtuti..
Bshut
ReplyDeleteBahut hi sundar prashtuti..
सपने की भी उम्र होती है .. अच्छा शीर्षक ... वास्तविकता जैसी लगती है यथार्थ भाव लिए हुए
ReplyDeleteप्रभावशाली अभिव्यक्ति !! बधाई आपको !
ReplyDeleteबेहतरीन पंक्तियाँ..सुन्दर गहन...
ReplyDeleteसंजय भास्कर
RECENT POST .........खुशकिस्मत हूँ मैं
ati sundar ,behad pasand aai aapki rachna
ReplyDeleteउम्र के साथ सपने भी बदल जाते हैं...
ReplyDeleteकविता और सपने बाहरी दुनियाँ की वस्तु हैं भी कहाँ ,और मनो-लोक में उम्र की बाधा टिकती नहीं .यही है बाहर और अंतर का द्वंद्व !
ReplyDeleteबहुत सुंदर कविता .....अन्तर्द्वन्दों की सार्थक अभिव्यक्ति.....
ReplyDeleteसूरज की लालिमा में कविता का वजूद,
ReplyDeleteथके मन को सहारा देगा,
और मेरी कल्पना को प्राणवान करेगा।........................बहुत खूब आदरणीय!