अतीत से वर्तमान तक का सफर
प्रस्तुतकर्ता :प्रेम सागर सिंह
मैं मानता हूं कि
समय के साथ अतीत को भुलाकर लोग आगे बढ
सकते हैं लेकिन जीवन में सब कुछ भुलाया नहीं जा सकता। कुछ लमहे,
कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जिनके साथ हम
हमेशा जीना चाहते हैं। मेरे जीवन में भी कुछ
ऐसे लमहे एवं कुछ अवसर आएं हैं, जिन्हे मैं आज
तक कभी भी नहीं भुला पया।
बात सन 1984 की है। जब मैं सुरेंद्र नाथ सांध्य ला कॉलेज में “विधि
स्नातक”
के कोर्स में दाखिला लिया था। दाखिला मिलने के बाद मैं अपने दोस्तों एवं
रिश्तेदारों से यह कहते हुए अपने आपको बड़ा ही गर्वित महसूस करता था कि बाबू
राजेंद्र प्रसाद (भूतपूर्व राष्ट्रपति) भी इसी कालेज से ला (LL.B)
की परीक्षा पास किए थे। उन दिनों मैं “भारतीय वायु सेना”
में कार्यरत था। एक तो फौज की नौकरी और ऊपर से पढ़ाई का बोझ मुझे नीरस करता गया। मैं
अपने रिश्तेदारों एवं फौजी भाईयों के बीच चर्चा का विषय बनता गया और इस चर्चा,
कटाक्ष एवं उपहास ने मुझे कितना एकाग्रचित और गंभीर बना दिया था। इसे आज मैं उम्र
की इस दहलीज पर पहुंच कर सोचता हूं तो मन सिहर सा जाता है। उन
दिनों की यादें जीवन के हर एक पल में आज भी उसी तरह
रची बसी हैं, जैसे पहले थीं। देखते-देखते समय कब गुजर गया
पता ही नही चला। मैं भारतीय वायु सेना से रिटायर्ड होकर कोलकाता चला आया। यहां
हमारा पुस्तैनी मकान है जिसमे हम चार भाई उस समय साथ ही रहते थे एवं उनमें से मै
सबसे छोटा था।
विधि की विडंबना भी अजीब होती
है। मेरे सामने अब तीन बच्चों का भविष्य नजर आने लगा। कोलकाता जैसे महानगर में 15
साल बाद आने पर कुछ अजीब सा लगने लगा। मेरे कल्पना के अनुरूप परिस्थितियां विपरीत
निकली। दोस्त, सगे संबंधी सब बदले-बदले से नजर आने लगे। लेकिन मैं हतोत्साहित नही
हुआ एवं कुछ कर गुजरने का भाव मन में अहर्निश कौंधने लगा। इस विचार ने मुझे समुद्र
में खोए हुए नाविक की भांति किनारे की तलाश के लिए बेचैन कर दिया। लोवर कोर्ट
,बैंकशाल कोर्ट एवं हाई कोर्ट तक का सफर एक वकील के रूप में करीब चार वर्ष तक तय
करता रहा लेकिन जैसा चाहा था वैसा नही हुआ। एक बार मुझे महसूस हुआ कि मेरा शोषण
किया जा रहा है लेकिन इस बात को मैंने किसी से भी शेयर नही किया। मैंने अनुभव किया
कि इस पेशे में आने में बहुत देर हो गयी है। मेरी हालत सांप और छुछूदंदर जैसी हो
गयी थी।
निराशा और अवसाद के इन दिनों
में मैं अधीर सा हो गया था। मन ही मन इस पेशे से अलग होकर किसी दूसरे काम की तलाश
करने लगा। कहते है – “भाग्य भी बहादुर इंसान का साथ
देता है।“ वही मेरे साथ भी हुआ।
इंसपेक्टर ऑफ इनकम टैक्स से लेकर, एयर इंडिया एवं इंडियन एयरलाइंस की लिखित एवं
मौखिक परीक्षाएं भी पास करते गया। लेकिन विधाता ने इन नौकरियों को शायद मेरे भाग्य
में नही लिखा था। कहते हैं- “भाग्य में जो लिखा होता है,वही
मिलता है।“ मुझे भी विधाता ने वही दिया जो
मेरे भाग्य में लिखा था यानि कोलकाता स्थित भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय में
(आयुध निर्माणी बोर्ड, कोलकाता) हिंदी अनुवादक का
पद, जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर इस ढलती वय में प्रभु के आशीर्वाद के रूप में
ग्रहण किया। यहां से मैंने अपने जीवन को नए सिरे से जीना शुरू किया लेकिन यह सोचकर
मन कभी-कभी संत्रस्त हो जाता है कि यह सफर 31 मार्च, 2015
को शेष हो जाएगा। इतना कुछ सोचने के बाद भी आशान्वित रहता हूं कि मेरी कुंडली में
तीसरी सरकरी नौकरी लिखा है। काश!
ऐसा
संभव हो पाता।
बाबूघाट
वाले ऑफिस से घर लोटते वक्त जब भी बस से सियालदह स्टेशन पार करता हूं, मेरी यादें मुझे बहुत पीछे की ओर खींच ले जाती
हैं क्योंकि दाएं स्टेशन एवं बाएं मेरा “सुरेंद्र नाथ सांध्य ला कॉलेज” दिखता है। यहां पहुचते ही मेरा मन न जाने क्यूं उस अतीत से अनायास ही जुड़
जाता है जो कभी मेरे जीवन का अहम हिस्सा रहा है । उन दिनों मै बहुत खोया लेकिन
उससे अधिक पाया भी। कॉलेज के उन दिनों में मैं अपने दोस्तों के साथ-साथ निकटवर्ती
बाजारों में कभी–कभी
घूमने जाया करता था। शायद गर्मियों का दिन रहता था एवं कुछेक को स्टेशन तक भी छोड़ने जाता था।
सियालदह ओवरब्रिज पर ट्राफिक जाम के
कारण जब आस-पास नजर दौड़ाता था तो गुजरे 28 वर्षों पूर्व का दृश्य आँखों के सामने
बरबस ही खींचा चला आता है। अठाईस वर्षों के बाद गर्मियों की इस शाम की शुरूआत में
अपने शहर के पुराने चेहरे को याद करता हूं तो उसकी डूबती डबडबाती निगाहें सामने
याद आती हैं । इन वर्षों में यह शहर भी बदला है। मैं भी बदला हूं एवं .शायद हम सबके रिश्ते भी
बदल गए हैं। इन बदलते
परिस्थितियों में जब अपने आपको बीते वासर में ले जाता हू तो ऐसा लगता है कि बीते
वर्षों में मेरे बचपन के परिचित इलाकों के मकान टूटे हैं, पेड़ नष्ट हुए हैं,
गलियां गायब हुई हैं, वे लोग नही रहे है, जीवन शैलियां नही रही है। न जाने उस दिन
क्या हो गया था पता ही नही चला। तमाम कोशिशों के बावजूद भी अतीत की यादें पूर सफर
के दौरान मेरा पीछा करती ऱही। कभी अतीत में खो जाता था तो कभी शहर की जिंदगी से
जुड़ जाता था तो कभी सामाजिक राजनीतिक विषय मन में कौंधने लगते थे।
मैंने अनुभव किया कि किसी के भी जीवन में फिर कभी किसी शहर का ही जीवन क्यों न
हो अठाईस बरस कम नही होते हैं। पर अब भी इस शहर में ऐसे कितने ही इलाकों में ऐसा
कितना ही कुछ बचा है, जो मुझे मेरे बचपन के शहर का ही लगता है। जिससे मैं अपने शहर
को भी महसूस करता हूं और अपने बचपन को भी। इस ओवरब्रिज से देखने पर सियालदह स्टेशन
या निकटवर्ती बाजार का नजारा भी तो बदला है। क्या यह स्टेशन और बाजार उतना ही पुराना नही है ! कुछ बदलाओं को छोड़ कर। इन विगत वर्षों में देह ही
नही शहर की आत्मा भी बदला है। सोचता हूं, ये सब साथ-साथ ही बदलते होंगे। पुरानी गलियां नही रही और
उनसे गुजरते हुए, उसमें बतियाते हुए लोग नही रहे। घर या किसी क्लब के करीब के
चबूतरों पर बतियाते या खेलते हुए बूढ़े और बच्चे कम नजर आते हैं। लोगों की व्यवस्थाओं का
स्वरूप भी बदला है, उनकी जीवन शैलियां और दृष्टियां भी बदली हैं। भोजपुरियन लोगों
की भाषा में भी बदलाव आया है। अब मेरे पड़ोस
के बिहारी लोगों के अधिकांश घरों में लोग भोजपुरी की जगह खड़ी हिंदी का प्रयोग
करते हैं। उनके बच्चे भी भोजपुरी भाषा भूलते जा रहे हैं। सोचता हूं, इसमें उन
मासूम बच्चों का क्या दोष है! कभी-कभी यह भी लगता है कि पिछले अठाईस वर्षों में समाज की जगह सिकुड़ी
है,व्यक्ति की जगह फैली है पर यह फासला वैसा फासला नही है जिसकी मानवीय आकांक्षाओं
को कभी गढ़ा गया था। पुरानी पीढ़ी के बीच ये फासले और भी कम हुए हैं। बूढ़ों और
बच्चों के बीच का पुराना संवाद, संबंध और सदभाव भी कम हुआ है। अन्यान्य कारणों से
लोग अब अपना जितना समय सचमुच में परिवार के बीच बिताते हैं, बिताना चाहते हैं, उसमें
गिरावट आई है। लगता है कि आदमी का अपने से भी संबंध कम होता गया है।
इसके
बाद मेरी चिंतन धारा को एक नया आयाम मिला। अपने बारे में, अपने परिवार के संबंध
में जब सोचने लगा तब मन बड़ा ही विकल हो उठा एवं आंखे नम होने लगी। बड़े भैया का
निधन (2009) उसके करीब एक साल बाद (2010) मां जैसा प्यार और दुलार तथा वटवृक्ष की
तरह शीतल छाया प्रदान करने वाली बड़ी भाभी का गुजर जाना एवं (2011) में मझले भाई की अप्रत्याशित निधन के कारण मेरे
अपने घर की ही धारणा और प्रभा भी बिखरती गयी है। मेरे घर के साथ-साथ पुराने घरों
में व्याप्त सक्रियताएं, पारस्परिक संवाद और लगावों में भी बहुत कमी आई है। घर की
अपनी जगह भी सिकुड़ती जा रही है। घर का अपना आत्म भी आहत हुआ है। क्या यह संभव हो
सकता है कि आहत आत्म के घर में बसे हुए आदमी की अपनी आत्मा साबूत, स्थित और
तनावहीन बनी रहे। लेकिन मेरे बचपन की बस्ती में पास-पड़ोस में मनुष्य की जितनी
आवाजें सुनाई पड़ती थी अब उतनी नही । उन दिनों में एक आदमी दूसरे आदमी की, एक घर
दूसरे घर की, एक परिवार दूसरे परिवार की चिंताओं और व्यथाओं से कम से कम निम्न
मध्यवर्गीय इलाकों में तो जुड़ा हुआ रहता ही था। इन दिनों टेलिविजन और इंटरनेट नही
हुआ करते थे। इनमें से टेलिविजन ने एक किस्म के लगाव को जन्म दिया है तो एक प्रकार
के अलगाव को भी।
राग और विराग भले ही विपरीत दिशाओं में रहें पर शायद चलते साथ-साथ हैं। अपनी
निगाहों से घरों, परिवारों में बढी हुई संवादहीनता को देखता हूं तब यह भी ख्याल
आता है कि इस संवादहीनता के चलते या इसके कारण भी मानवीय सक्रियता का अभाव बढ़ता
गया है। प्रतिरोध की राजनीति प्रभावित हुई है। परिवर्तन की आवाज सर्वत्र गुंजरित
होने लगी है। सहयोग, मानवीय संवेदनाओं एव पीड़ा में निरंतर ह्वास देखने को मिल रहा
है। सहयोग के धर्म का स्खलन हुआ है। मैं सोचता हूं कि संवाद, सहयोग और सक्रियता के
भी अपने अंतर्संबंध होते होंगे। ये तीनों जब अपना संतुलन बना पाते होंगे तब समाज में
सुख का जन्म होता होगा, शांति के दिनों में इतना विचारणीय और विवेकशील बना हुआ था,
वही समाज इन तनावपूर्ण और हिंसक दिनों में कैसे इतना विचारहीन हो जाता है ।
इन्ही विचारों में डूबता उतराता रहा एवं बस कंडक्टर की कर्कश आवाज ने मुझे
अचंभित कर दिया। इसके आगे मैं कुछ सोच पाता, उसकी आवाज इस बार काफी तेज थी। उसने बांगला
भाषा में कहा –ओ,
दादा कोताय नामबेन ( ओ भाई, कहां उतरिएगा)। बाहर झांक कर देखा तो मेरा बस स्टॉपेज
आने वाला था। स्टॉपेज आने पर मैं बस से उतर तो गया लेकिन ऐसा लग रहा था कि बस के
भीतर बैठे सभी यात्रियों की निगाहें मेरी ओर ही थी। पैदल चलते-चलते मन ही मन यही
सोचता रहा कि अपने अतीत को, बीते दिनों के
संघर्ष को कभी भुलाना नहीं चाहिए, लेकिन उसमें इतना
भी नहीं खोना चाहिए कि वे यादें भविष्य के लिए बेडियों का काम करने लगें।
भावनात्मक जुडाव तो होता है, लेकिन उससे
निकलकर आगे भी तो बढना है। अतीत से जुडाव
तो हमेशा ही रहता है, क्योंकि यह एक पेड की
तरह है, जिसकी जडें हमेशा जमीन के अंदर होती हैं और जडें
गहरी हैं- तभी पेड जिंदा है। अगर जडें ही मिट गई तो उसका अस्तित्व मिट जाता है।
अब मैं अतीत से निकल कर वर्तमान में आ गया हूं, जहां हर चीज अपनी पूर्णावस्था में
परिलक्षित होती है।
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यह प्रयास बहुत ही अच्छा लगा । आशा है भविष्य में भी इस प्रकार के पोस्ट पाठकों को पढ़ने के लिए मिलते रहेंगे।
ReplyDeleteआपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है। धन्यवाद।
Deleteसंघर्ष ही जीवन है, आप हमेशा सफल रहे यही शुभकामनाएं हैं।
ReplyDeleteजीवन संघर्ष से निखरे तो सोने सा हो जाता है..
ReplyDeleteदुनिया में हम आये है जीना ही पडेगा,
ReplyDeleteजीवन अगर जहर तो पीना ही पडेगा,,,,,,
संघर्ष ही जीवन है,,,,
RECENT POST...: दोहे,,,,
हार्दिक शुभकामनायें...
ReplyDeleteजीवन में संघर्ष अंतिम समय तक चलता है .... आपके जीवन से परिचय मिला ॥आभार
ReplyDeleteहर संघर्ष में सफल रहिये....
ReplyDeleteशुभकामनाए....
:-)
जीवन एक संघर्ष है जिसमें आप सदैव सफल हों...शुभकामनायें !
ReplyDeleteधन्यवाद।
Deleteसंघर्षों के बगैर जीवन निष्प्राण है..
ReplyDeleteसुन्दर संस्मरण
धन्यवाद, अंजनि कुमार जी।
Deletesir---
ReplyDeleteaapne bilkul sahi likha hai.ateet ki kuchh baaten taumra saath rahtihain jine bhulna bahut hi mushkil hota hai par in sangharshhon se hi hame aage badhne ki prerna bhi milti hai jinhe aapne apne housle se kayam rakkha.aapki jivani se kafi prerna bhi mili.
aapki hi tarah sangharshhon ko jitne ki himmat sabme ho----
inhi shubh- kanao ke saath
sadar naman
poonam
sir---
ReplyDeleteaapne bilkul sahi likha hai.ateet ki kuchh baaten taumra saath rahtihain jine bhulna bahut hi mushkil hota hai par in sangharshhon se hi hame aage badhne ki prerna bhi milti hai jinhe aapne apne housle se kayam rakkha.aapki jivani se kafi prerna bhi mili.
aapki hi tarah sangharshhon ko jitne ki himmat sabme ho----
inhi shubh- kanao ke saath
sadar naman
poonam
संघर्ष ही जीवन है किन्तु समय के साथ जो अपना अस्तित्व बचा लेते हैं वे ही कालपुरुष कहलाते हैं ,,,,,
ReplyDeleteVery nice post.....
ReplyDeleteAabhar!
Mere blog pr padhare.
आपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है। धन्यवाद।
Deletejeena esi ka naam hai....
ReplyDeleteआपका अपने पुश्तैनी गाव से संपर्क या सरोकार बना हुआ है या नहीं इस बारे में विशेष चर्चा नहीं की
ReplyDeleteआदरणीय राजेश सिंह जी,
Deleteशायद आप मेरा प्रोफाईल नही देखें हैं। मेरा गांव बिहार के बक्सर जिले कें अंतर्गत डुमरांव स्टेशन से करीब 3 कि.मी. की दूरी पर दक्षिण दिशा में स्थित है। हमारा जगह जमीन वहां पर भी है । भगवान की कृपा से हम आज भी बिहार की माटी, सभ्यता एवं संस्कृति से जुड़े हैं। यह पोस्ट लिखते समय गांव की स्मृतियां मन में न ऊभर पायी थी। अत:वहां की अक्षय स्मृतियां इसमें स्थान न पा सकीं। धन्यवाद।
हर संघर्ष के पीछे सफलता छिपी होती है..सुन्दर संस्मरण..आभार..
ReplyDeleteआपके आगमन से मेरा मनोबल बढ़ा है। धन्यवाद शास्त्री जी।
ReplyDeleteसंघर्ष का दूसरा नाम जीवन है, और कठिन परीक्षाओं की आग में तपकर यह कुंदन की तरह निखर जाता है, आप हमेशा सफल हों यही शुभकामनाये हैं... आभार
ReplyDeleteधन्वाद सध्या शर्मा जी ।
ReplyDeleteअपने अतीत को, बीते दिनों के संघर्ष को कभी भुलाना नहीं चाहिए, लेकिन उसमें इतना भी नहीं खोना चाहिए कि वे यादें भविष्य के लिए बेडियों का काम करने लगें। भावनात्मक जुडाव तो होता है, sahi bat hai atit ko bhulana khud ko bhulane jaisa hai....
ReplyDeleteपूंजीवाद मे रिश्तो की कोई जगह नही होती । समय पैसा है । जब हर चीज की किमत तय हो गई है तो कौन कमबख्त मुफ़्त मे रिश्ते निभायेगा । समयाभाव भी है क्योंकि वह पैसा है । कहने को आठ घंटे लेकिन कंपनी की प्रतिष्ठा आपकी प्रतिष्ठा , सोलह घंटे काम करेंगे तो कंपनी बचेगी । कंपनी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए नककाल दिये जायेंगे । अगर हम वापस नही लौटे तो आनेवाले समय मे सिर्फ़ रिश्तों की दaकन होगी ।
ReplyDeletebeete hue lamhon kee kasak sath to hogi..khawon me hee ho chahe mulakat to hogi..bahut achhi prastuti..sadar badhayee ke sath
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा,डॉ. आशुतोष जी. आभार ।
Deleteबहुत ही सुंदर
ReplyDeletemujhe lagta hai ki atit hi hame aage badhne ki prerna deta hai.bahut hi ummda likha hai aapne
ReplyDeleterachana
सही कहा है आप ने - ये तो अतीत ही है जो हमें वास्तविक जिंदगी से जोड़ता है। यदि इसे किसी के जीवन से निकाल दिया जाए तो उस व्यक्ति के पास अपना कहने के लिए कुछ भी शेष नही रह जाता है। आपके आगमन से मेरी अभिव्यक्ति को एक नया आयाम मिला है। आभार।
Deleteआपका लेख अत्यंत रोचक व पठनीय है पहले वायु सेना, फिर वकील, फिर हिंदी अनुवादक और अब भी आप काम करना चाहते है...बहुत बहुत शुभकामनायें..
ReplyDeleteअनीता जी,
Deleteआपके आशीर्वाद का आकांक्षी रहूंगा। मेरा मनोबल बढ़ाने के सिए आपका विशेष आभार।
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteइस संस्मरण में आपकी संवेदनशीलता ,कर्मठता व आशावादिता मुखर है । आगे चलते जाना ही जिन्दगी है जिसे आप सही तरीके से जी रहे हैं । आगे भी ऐसा ही रहे ।
ReplyDeleteअतीत के बारे में पढ़ना, याने जीना उस बीते हुए वक्त को....
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा....
बहुत पहले भी आपने एक पोस्ट ऐसी ही लिखी थी...आपने युवावस्था के दिनों की..
आभार
अनु
शायद वह मेरा संस्मरण 'थोड़ी सी जगह" हो सकता है। आज भी popular post पर click करने से पढ़ा जा सकता है। अनु जी,आपकी स्मृति काविले-तारीफ है । धन्यवाद।
ReplyDeleteateet se vartman tak yaden ek setu hoti hai aur unhe bakhoobi sanjoya hai aapne.. abhar
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी । आभार।
ReplyDeleteapke lekhan dwara apki jeewani se ru-b-ru hue. aise sansmaran dwara hi ek dusre ko jana samjha ja sakta hai. sach kaha aapne TV aur Net ki duniya ne hame hamare aas-pas ke samaj se bahut door kar diya hai jo bahut hi dukhad hai aur itna hi nahi ghar k members k sath bhi samwaad khatam hote ja rahe hain. ham ye sab apne gharon me bhi mehsoos karte hain lekin usme sudhaar nahi late jo bahut galat hai. hame is vishay par gambheerta se sochna chaahiye. ham badal rahe hain to apne aas-pas walo par kaisa dosh? aur badlaav to avashyambhavi hai lekin jitne tak hamari pahunch hai un rishto ki pragadhta banye rakhne ki hame koshish karni chaahiye. tabhi jindgi saras ho sakti hai. varna vo din door nahi ki insan aur pashu me koi fark nahi rah jayega.
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया बहुत अच्छी लगी। मन के भीतर बहुत दिनों से पल रहे भाव को इस मंच द्वारा प्रस्तुत करके अपने अंदर कुछ हल्कापन महसूस करने का प्रयास किया हूं। आपके आगमन से मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई । धन्यवाद।
Deletejivan sanghrsh achchi lagi prastuti atit ko bhulna kaphi mushkil hota hai
ReplyDeleteआपका आभार.
Delete@ यह सोचकर मन कभी-कभी संत्रस्त हो जाता है कि यह सफर 31 मार्च, 2015 को शेष हो जाएगा।
ReplyDeleteभविष्य की चिंता अभी से न करें ....
aage भी raste खुद बी खुद निकलते चले आयेंगे .....
जिंदगी जब बोलती है तो ह्रदय को झकोरती है..आपकी जिजीविषा को नमन..
ReplyDeleteहरिबंश राय बच्चन जी ने कहा है - मन का हो जाय तो अच्छा, न हो तो ज्यादा अच्छा. क्योंकि वो ईश्वर की इच्छा होती है और वह मानव का सबसे बड़ा हितैषी है.
ReplyDelete