Saturday, December 24, 2011

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जुड़े में

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े मेंसाहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी

तुम्हारी आँख मुसर्रत से झुकती जाती है

न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ

ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं

तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं

मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे

तुम्हें गुमान है कि हम मिलके भी पराये हैं।

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,

अदाए-अज्ज़ो-करम से उठ रही हो तुम

सुहाग-रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,

दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम

तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं


वे लमहे कितने दिलकश थे वे घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,

वे सहरे कितने नाज़ुक थे वे लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं


बस्ती को हर-एक शादाब गली, रुवाबों का जज़ीरा थी गोया

हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया


नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं

बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं


तामीर के रोशन चेहरे पर तखरीब का बादल फैल गया

हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया


मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये

इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये


खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनाबें गड़ने लगीं

मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं


फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं

जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं


इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ

चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे


बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे

जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे ।

******************************************************

12 comments:

  1. आभार साहिर जी की इस अनोखी गजल प्रस्तुतिहरण के लिए.

    ReplyDelete
  2. साहिर लुधियानवी साहब की रचना प्रस्तुत करने के लिए आभार।

    ReplyDelete
  3. बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
    जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे ।

    साहिर लुधियानवी जी की , रचना की एक अच्छी प्रस्तुती.... :)

    ReplyDelete
  4. दुनिया ने तजुर्बातो हवादिश की शक्ल में
    जो कुछ मुझे दिया लौटा रहा हूँ मैं………।

    महबूब शायर साहिर को सलाम

    ReplyDelete
  5. बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे

    जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे ।अच्छी प्रस्तुती.

    ReplyDelete
  6. प्रेमपुर्ण रचना

    साधु-साधु

    ReplyDelete
  7. बहुत ही सुन्दर रचना साहिर साहब की।

    ReplyDelete
  8. बहुत अच्छी लगी

    ReplyDelete
  9. साहिर साहब की सुन्दर रचना पढवाने के लिए आभार..

    ReplyDelete