Tuesday, June 7, 2011







अज्ञेय जी को सादर नमन
अज्ञेय जी की निम्नलिखित रचना मन के किसी कोने मे स्थायी भाव के रूप में अहर्निश झकझोर कर चली जाती थी।आप सबको यह रचना कितनी आंदोलित कर गयी,यह तो आप सबके प्रतिक्रिया से ही समझा जा सकता है।यदि यह रचना आपके मन के किसी भी कोने में थोड़ी सी जगह पाने मे समर्थ हुई हो तो अपनी काबिले-तारीफ प्रतिक्रिया देने की कोशिश करें-


ब्राह्म-मुहुर्त

उस प्यार में जियो
जो मैंने तुम्हे दिया है,
उस दु:ख में नही जिसे
बेझिझक मैं ने पिया है।

उस गान में जियो
जो मैंने तुम्हे सुनाया है,
उस आह में नही जिसे
मैने तुमसे छिपाया है।

उस द्वार से गुजरो
जो मैने तुम्हारे लिए खोला है,
उस अंधकार से नही
जिसकी गहराई को
बार-बार मैने तुम्हारी रक्षा की
भावना से टटोला है।

वह छादन तुम्हारा घर हो
जिसे मैं आशीशों से बुनता हूं,बुनुँगा:
वे काँटे-गोखरू तो मेरे हैं
जिन्हे मैं राह से चुनता हूँ,चुनुँगा।

वह पथ तुम्हारा हो
जिसे मैं तुम्हारे हित बनाता हूँ,बनाता रहूँगा:
मैं जो रोड़ा हूँ, उसे हथौड़े से तोड़-तोड़
मैं जो कारीगर हूँ, करीने से
सँवारता सजाता हूँ, सजाता रहूँगा।
सागर के किनारे तक
तुम्हे पहुँचाने का
उदार उद्यम ही मेरा हो:
फिर वहाँ जो लहर हो, तारा हो,
सोन-तरी हो, अरूण सवेरा हो,
वह सब, ओ मेरे वर्य!
तुम्हारा हो, तुम्हारा हो, तुम्हारा हो।
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5 comments:

  1. आपके भाई के निधन का समाचार पढ़ा. ईश्वर आपको हिम्मत दे..दुख सहन करने की..

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  2. प्रेम बाबू! अज्ञेय जी की कविता के विषय में कुछ भी कहना अपने छोटेपन का परिचय देना है.. अतः आभार आपका कि यह कविता हमारे समक्ष प्रस्तुत की!

    पुनश्च: बिटिया के विवाह की सूचना तो थी किन्तु भाई साहब के निधन का समाचार देखकर आघात लगा! हमारी संवेदना स्वीकार करें!इश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे!

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  3. अज्ञेय जी की कविता प्रस्तुत करने के लिए आभार....

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  4. अज्ञेय जी को पढ़वाने के लिए आभार..

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  5. अज्ञेय जी की कविता यहाँ पढवाने का बहुत बहुत आभार.

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