Friday, March 29, 2013

उदात्त प्रेम का क्षैतिज स्वरूप


मेरे चिंतन फ्रेम में मोहन राकेश का नाटक आषाढ़ का एक दिन

                                                                   

प्रेम और विरह का अन्यान्योश्रित संबंध है। विरह की अग्नि में तपकर प्रेम स्वर्ण सा चमक उठता है। जीवन की समस्त वासनाएं, कलुष उस अग्नि में जलकर भस्मीभूत हो उठते हैं। वेदना की टीस और पीड़ा का साम्राज्य सहृदय पाठक के अंदर मार्मिक संवेदनाओं को जाग्रत कर देता है और उसे भावभूमि के उस लोक में प्रतिष्ठित कर देता है जहां उसका हृदय रागात्मक वृति की दिव्य भूमि पर उदभाषित हो उठता है। इन्ही परिस्थतियों के आलोक में इस उपन्यास की नायिका मल्लिका का स्मृतिजन्य वियोग उसके निश्छल प्रेम एवं समर्पण की ऐसी पराकाष्ठा है जिसमें उदात्त भावोर्मियां तरंगायित हो रही हैं। .. प्रेम सागर सिंह


आषाढ़ का एक दिन (1958) मोहन राकेश का पहला और सर्वोत्तम नाटक ही नही हिंदी नाटक की महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिसमें पावन प्रेम की परिकल्पना है और उत्सर्ग की भावना का चरमोत्कर्ष है, जीवन के परिस्पंदनों की अभिव्यक्ति है। सूक्ष्म अनुभूतियों एवं संवेदनाओं का आकृष्ट आवेग आषाढ़ का एक दिन को कालजयी बनाने में सार्थक सिद्ध हुआ है। एक सफल नाटककार होने के कारण मोहन राकेश  जी ने इस उपन्यास में युग-युगों से कुछ ज्वलंत प्रश्नों को ऐतिहासिक तथ्यों एवं परिवेश वाले चिंतन फ्रेम में संवारकर हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इसमें रेखांकित प्रेम का स्वरूप एवं विषय आधुनिक युग में भी अनुसंधान का विषय बना हुआ है। इस नाटक के हर खंड क अंत में "कालिदास मल्लिका को अकेला छोड़ जाता है: पहले जब वह अकेला उज्जयिनी चला जाता है; दूसरा जब वह गाँव आकर भी मल्लिका से जानबूझ कर नहीं मिलता; और तीसरा जब वह मल्लिका के घर से अचानक मुड़ के निकल जाता है।"यह खेल दर्शाता है कि कालिदास के महानता पाने के प्रयास की मल्लिका और कालिदास को कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है। जब कालिदास मल्लिका को छोड़कर उज्जयिनी में बस जाता है तो उसकी ख्याति और उसका रुतबा तो बढ़ता है लेकिन उसकी सृजनशक्ति चली जाती है। उसकी पत्नी,प्रियंगुमंजरी, इस प्रयास में जुटी रहती है कि उज्जयिनी में भी कालिदास के इर्द-गिर्द उसके गाँव जैसा वातावरण बना रहे "लेकिन वह स्वयं मल्लिका कभी नहीं बन पाती। नाटक के अंत में जब कालिदास की मल्लिका से अंतिम बार बात होती है तो वह क़ुबूल करता है कि "तुम्हारे सामने जो आदमी खड़ा है यह वह कालिदास नहीं जिसे तुम जानती थी।"

इस उपन्यास की नायिका मल्लिका प्रेम की साक्षात प्रतिमा है जिसके अंदर दलित द्राक्षा के समान सभी कुछ निस्वार्थ भाव से समर्पित कर देने की अबाध भाव-राशि तरंगायित हो रही है। वह अपने कवि कालिदास के व्यक्तित्व के विकास के लिए जीवन के समस्त क्षुद्र स्वार्थों को त्याग कर अपने अभावों की कटु विभीषिका में पल-पल मरती हुई अपने आपको होम कर देती है। वह प्रेम मार्ग पर चलने वाली अनन्य साधिका है। न जाने वह कितनी बार आषाढ के प्रथम चरण में भींगी है, न जाने कितनी बार उसके साथ आँखों की पालकी में स्वप्निल चित्र बसाए हैं। समस्त ग्राम प्रांतर में, वही अकेली है जो कालिदास को समझती है, उसकी मर्म वेदना का संधान कर सकती है। जब उसकी माँ अम्बिका लोक अपवाद से ग्रस्त होकर मल्लिका को सचेत करते हुए कालिदास से विवाह करने के लिए कहती है तब वह स्पष्ट शब्दों में अपनी माँ को प्रतिउत्तर देते हुए कहती है –“तुम जानती हो मैं विवाह करना नही चाहती ; फिर उसके लिए प्रयास क्यों करती हो। वह प्रेम को अलौकिक एवं अनुभूतिगम्य मानते हुए कहती है – “मैंने भावना का वरण किया है, मेरे लिए वह संबंध और संबंधों से बड़ा है। मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूं, जो पवित्र है ,अनश्वर है, कोमल है। वह जीवन की स्थूल आवश्यकताओं को ही जीवन का प्राप्य नही मानती बल्कि उसके अनुसार मनुष्य की इन आवश्यकताओं से परे भी इतना कुछ है जिसकी अनुभूति हम कर सकते हैं। उसके साथ अपनी भावनाओं का तादाम्य स्थापित कर सकते हैं।
मल्लिका की माँ उसके भविष्य को लेकर अपनी स्वभाविक चिंता, अपने अंतर्द्वद्व को व्यक्त करते हुए उससे कहती है – “ वह व्यक्ति आत्मनिष्ठ है। संसार में अपने सिवाय किसी से मोह नही करता । मैं भी चाहती हूं

तुम आज समझ लो। तुम कहती हो तुम्हारा उससे भावना का संबंध है। वह भावना क्या है ! यदि वास्तव में उसका तुमसे भावना का संबंध है तो वह क्यों तुमसे विवाह करना नही चाहता ! मैं ऐसे व्यक्ति को अच्छी तरह से समझती हूं। उसका तुम्हारे साथ इतना ही संबंध है कि तुम एक उपादान हो, जिसके आश्रय में वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता है। पर क्या तुम सजीव व्यक्ति नही हो ! तुम्हारे प्रति उसका या तुम्हारा कोई कर्तव्य नही है। वह इस प्रश्न का बिना विचलित हुए एक आदर्श प्रेमिका के औदात्य का स्पर्श करते हुए स्पष्ट एवं अत्यंत दृढता के साथ उत्तर देते हुए कहती है – “तुम उनके प्रति अनुदार नही रही हो। माँ तुम जानती हो उनका जीवन परिस्थितियों की कैसी विडंवना में बीता है। मातुल के घर में उनकी क्या दशा रही है। इस साधनहीन एवं अभावग्रस्त जीवन में विवाह की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। माँ आज तक का जीवन किसी तरह बीता ही है, आगे का भी बीत ही जाएगा। आज जब उनका जीवन नई दिशा ग्रहण कर रहा है, मैं उनके सामने अपने स्वार्थ की घोषणा नही करना चाहती। निश्चय ही उसका यह कथन उसके उदात्त व्यक्तित्व का द्योतक है जो कि प्रेम की शुचिता, उसकी पवित्रता एवं उत्सर्ग का संसर्ग उसे स्वर्णिमता प्रदान करता है।

इस उपन्यास का नायक कालिदास राजाश्रय पाने एवं मल्लिका के प्रेम के प्रति अपने को विरक्त पाने की स्थित में नही जान पड़ता है। वह सम्मान पाने के लिए उज्जयिनी जाने को मना करता है, मल्लिका बार- बार उससे उज्जयिनी जाने की जिद करती है जिससे उसकी प्रतिभा का सही - सही मूल्यांकन हो सके, वह जो अधूरा रह गया है उसके पूर्णत्व के लिए। कालिदास मल्लिका को लेकर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए कहता है  फिर एक बार सोच मल्लिका। प्रश्न सम्मान और राजाश्रय पाने का नही है। इससे कहीं बड़ा प्रश्न मेरे सामने है। मल्लिका कालिदास के चिंतातुर हृदय को अवलंब प्रदान करते हुए अपने भावों को उत्कट शब्दों में व्यक्त करते हुए कहती है  और वह प्रश्न मैं हूं .. हूं न ! तुम समझते हो कि तुम अवसर को ठुकराकर यहां रह जाओगे, तो मुझे सुख होगा ! मैं जानती हूं कि तुम्हारे चले जाने से मेरे अंतर को एक रिक्तता छा लेगी। बाहर भी संभवत:बहुत सूना प्रतीत होगा फिर भी मैं अपने साथ छल नही कर रही। मैं हृदय से कहती हूं तुम्हे जाना चाहिए। मेरी आँखें इसीलिए गीली हैं कि तुम मेरी बात नही समझ रहे हो। तुम यहां से जाकर भी मुझसे दूर नही हो सकते हो ! यहाँ ग्राम प्रांतर में रहकर तुम्हारी प्रतिभा को विकसित होने का अवसर कहां मिलेगा ! यहां लोग तुम्हे समझ नही पाते। वे सामान्य की कसौटी पर तुम्हारी परीक्षा करना चाहते हैं। विश्वास करते हो न कि मैं तुम्हे जानती हूं ! जानती हूं कि कोई भी रेखा तुम्हे घेर ले तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हे घेरना नही चाहती हूं इसलिए कहती हूं जाओ। इस भूमि से जो तुम ग्रहण कर सकते थे कर चुके हो, तुम्हे आज नई भूमि की आवश्यता है जो तुम्हारे व्यक्तित्व को अधिक पूर्ण बना दे।

मल्लिका के इस आश्वासन से प्रभावित होकर कालिदास चला जाता है, लेकिन वियोग का प्रभाव हर संवेदनशील दृदय को झकझोर देता है। ऐसा ही कुछ मल्लिका के साथ भी हुआ। कालिदास के चले जाने के पर रोती हुई मल्लिका को आश्वासन देते हुए अंबिका कहती है -रोओ मत मल्लिका, तब मल्लिका का कथन उसके उदात्त व्यक्तित्व को उजागर करता है। - मैं रो नही रही हूं माँ ! मेरी आँखों में जो बरस रहा है वह दुख नही है। यह सुख है माँ, सुख।

कालिदास को उज्जयिनी भेजने में निक्षेप अपने आपको दोषी मानते हुए सोचता हुआ पश्चाताप की अग्नि में जलता है। वह अपने आप को मल्लिका का अपराधी मानते हुए कहता है  कई बार लगता है दोष मेरा है। मेंने आशा ही नही की थी कि उज्जयिनी जाकर कालिदास वहीं के होकर रह जाएंगे। सुना यह भी था कि गुप्तवंश की दुहिता से उनका विवाह हो गया । मल्लिका बिना विचलित हुए बहुत ही दृढ़ता से उत्तर देते हुए कहती है - “तो इसमें बुरा क्या है !” उसके प्रसंग में मेरी बात कहीं भी नही ठहरती। मैं अनेकानेक व्यक्तियों में से हूं। उन्हे अपने जीवन में असाधारण का ही साथ होना चाहिए था। सुना है राजदुहिता बहुत विदुषी है। इसके विपरीत मुझे अपने से ग्लानि होती है कि यह ऐसी मैं, उनकी प्रगति में बाधा भी बन सकती थी। आपके कहने से उन्हे जाने के लिए प्रेरित करती तो कितनी बड़ी क्षति होती।

कालिदास फिर लौट आते हैं। उनके साथ उसका सामीप्य बोध एवं कथोपकथन बहुत ही संवेदनशील हो उठता है । कालिदास को संबोधित करते हुए कहती है – “आज वर्षों बाद तुम लौट आए हो। सोचती थी तुम आओगे तो उसी प्रकार मेघ घिरे होंगे, वैसा ही अंधेरा सा दिन होगा, वैसे ही एक बार वर्षा में भींगूगी और तुमसे कहूंगी कि देखो मैंने तुम्हारी सब रचनाएं पढी हैं।  उज्जयनी  की ओर जाने वाले व्यवसायियों से कितना-कितना कहकर मैंने तुम्हारी रचनाएं मंगवाई है। सोचती थी तुम्हे मेघदूत की पक्तियां गा-गाकर सुनाऊंगी और यह भेंट तुम्हारे हाथों में रख दूंगी और कहूंगी कि देखो ये तुम्हारी नई रचना के लिए ये कोरे पृष्ठ मैंने अपने हाथों से बनाकर सिए हैं, इन पर जब भी तुम लिखोगे, उसमें अनुभव होगा कि मैं भी कहीं हूं, मेरा भी कुछ है। परंतु आज तुम आए हो तो सारा वातावरण ही और है और नही सोच पा रही हूं कि तुम वही हो या कोई दूसरा। कालिदास से फिर कहती है  मैंने अपने भाव कोष्ट को रिक्त नही होने दिया परंतु मेरे अभाव की पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो। तुमने लिखा था कि एक दोष गुणों के समूह  में भी उसी तरह छिप जाता है, जैसे चांद की किरणों में कलंक परंतु दारिद्रय नही छिपता। सौ-सौ गुणों में भी नही छिपता। नही छिपता ही नही, सौ-सौ गुणों को छा लेता है  एक-एक को नष्ट कर देता है, परंतु मैंने यह सब सह लिया इसीलिए कि मैं टूटकर भी अनुभव करती रही कि तुम बन रहे हो क्योंकि मैं अपने को अपने में देखकर तुममें देखती थी और आज मैं यह सुन रही हूं कि तुम संन्यास ले रहे हो।
यह नाटक कवि कालिदास के जीवन पर आधरित है लेकिन कालिदास के कवि रूप में प्रसिद्ध होने के बाद उतना नही है जितना एक बनते हुए कवि और फिर प्रसिद्धि के चरम शिखर पर पहुंचने वाले कवि का है। मल्लिका के समक्ष कालिदास की स्वीकारोक्ति कि अभिज्ञान शाकुन्तलम में शकुन्तला के रूप में तुम्ही मेरे सामने थी। मैंने जब-जब लिखने का प्रयास किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया और जब उससे अलग होकर लिखना चाहा तो रचना प्राणवान न हुई, उसके असीम प्रेम को दर्शाने में सहायक सिद्ध हुआ है।

नोट:- संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1959 में पुरस्कृत किया गया तथा फिल्मफेयर पुरस्कार से भी विभूषित किया गया। अंत में आप सबका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहूंगा कि इस उपन्यास की अंतर्वस्तु कालिदास के जीवन पर केंद्रित जो 100 ईस्वी पू. से 500 ईस्वी के अनुमानित काल में व्यतीत हुआ था  इनके द्वारा रचित दो नाटक आधे अधूरे एवं लहरों के राजहंस भी काफी ख्याति प्राप्त कर चुकें हैं।

(पोस्ट कुछ लंबा हो गया है, आशा करता हूं कि सुधी मित्रगण इसे अन्यथा न लेंगे। धन्यवाद।)
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                

6 comments:

  1. पोस्ट लंबा अवश्य है पर बेहद रोचक ....
    इस कालजयी नाटक की इससे अच्छी व्याख्या और क्या होगी...
    आभार

    सादर
    अनु

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  2. बेहतरीन नाटक की बहुत उम्दा व्याख्या ,,,,,,बधाई प्रेम सरोवर जी,,,

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  3. इतनी रोचक और सशक्त रचना के लिए बधाई।

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