Saturday, April 30, 2011

अभिशप्त जिंदगी

अतीत की किसी सुखद स्मृति की अनुभूति कभी-कभी मन में खिन्न्ता और आनंद का सृजन कर जाती है। इससे जीवन में रागात्मक लगाव अभिव्यक्ति के लिए बेचैन हो उठता है,फलस्वरूप मानव-दृदय की जटिलताएं प्रश्न चिह्न बनकर खड़ी हो जाती हैं। परंतु यह चिर शाश्वत सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य इसके बीच भी एक अलौकिक आनंद का अनुभव करते हुए ब्रह्मानंद सहोदर रस से अपने भावों को सिंचित करने का प्रयास करता है। इनके वशीभूत होकर मैं भी रागात्मक संबंधों से अमान्य रिश्ता जोड़कर एक पृथक जीवन की तलाश में अपनी भाव तरंगों को घनीभूत करन का प्रयास किया है जो शायद मेरी अभिव्यक्क्ति की भाव-भूमि को स्पर्श कर मन की असीम वेदना को मूर्त रूप प्रदान कर सके। कुछ ऐसी ही भावों को वयां करती मेरी यह कविता आप सबके समक्ष प्रस्तुत है।
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तुम्हारे सामीप्य-बोध एवं
सौदर्य-पान के वृत मे
सतत परिक्रमा करते-करते
ब्यर्थ कर दी मैंने,
न जाने कितनी उपलब्धियां।
तुसे दुराव बनाए रखना
मेरा स्वांग ही था, महज।
तुम वचनबद्ध होकर भी,
प्रवेश नही करोगी मेरे जीवन में,
फिर भी मैं चिर प्रतीक्षारत रहूं।
इस अप्रत्याशित अनुबंध में,
अंतर्निहित परिभाषित प्रेम की,
आशावादी मान्यताओं का
पुनर्जन्म कैसे होता चिरंजिवी।
जीवन की सर्वोत्तम कृतियों
एवं उपलब्धियों से,
चिर काल तक विमुख होकर
मात्र प्रेमपरक संबंधों के लिए,
केवल जीना भी
एक स्वांग ही तो है
तुम ही कहो-
प्रणय-सूत्र में बंधने के बाद
इस सत्य से उन्मुक्त हो पाओगी,
और सुनाओगी प्रियतम से कभी,
इस अविस्मरणीय इतिवृत को,
जिसका मूल अंश कभी-कभी,
कौंध उठता है, मन में।
बहुत ही अप्रिय और आशावादी लगती हो,
जब पश्चाताप में स्वीकार करती हो,
कि अब असाधारण विलंब हो चुका है।
मेरा अपनी मान्यता है-
उतना भी विलंब नही हुआ है
कि तमाम सामाजिक वर्जनाओं को त्याग कर,
हम जा न पाएं किसी देवालय के द्वार पर
और
उस पवित्र परिसर को अपवित्र करने के अपराध में,
हम दोनों जी न सकें,
एक अभिशप्त जिंदगी ही सही
मगर साथ-साथ...............

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Tuesday, April 19, 2011

मेरी कविताएं तो होंगी

मेरे उस दिन न होने पर भी
मेरी कविताएं तो होंगी!
गीत होंगे !
सूरज की ओर मुंह किए खड़ा
कनैल का झाड़ तो होगा!
प्यार के दिनों में भींगी
पुरानी चिट्ठियां
पसंद के कपडे़ की तरह
सहेजी हुई होंगी तो !
मैं उस दिन न होउं तो भी
होंगी तो मेरी कविताएं!
पढ़ाई की मेज पर
मेरी प्रिय कविताएं
करीने से सजाई हुई होंगी
पहले की तरह
दोनों आंखों को स्पर्श करा देना
मेरी कविता को मेरी कापी को ।
तब धीरे ,बहुत धीरे
तुम्हारे हृदय से
बह चलेगी सुरभित हवा
मैं उस दिन होंउँ तो भी
होंगी मेरी कविताएं
मेरे गीत।
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Friday, April 8, 2011

जिंदगी

काफिला मिल गया था मुझे-

कुछ अक्लमंदों का

और तब से साल रहा है मुझे

यह गम

कि जिंदगी बड़ी बेहिसाबी से मैंने

खर्च कर डाली है

पर जाने कौन आकर

हवा के पंखों पर

चिड़ियों की चहचहाहट में

मुझे कह जाता है-

जिंदगी का हिसाब तुम भी अगर करने लगे

तो जिंदगी किस को बिठाकर अपने पास

बड़े प्यार से

महुआई जाम पिलाएगी !

किसके साथ रचाएगी वह होली

सतरंगी गुलाल की !

किसके पास बेचारी तब

दुख-दर्द अपना लेकर जाएगी !

कह जाता है मुझे कोई रोज

चुपके-चुपके, सुबह-सुबह।

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