Wednesday, November 3, 2010

संस्मरण

थोड़ी सी जगह

प्रेम सागर सिंह

हर इंसान के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएँ होती है जो प्रायः उसे प्रत्‍यक्ष एवं अप्रत्‍यक्ष रूप से अहर्निश प्रभावित करती रहती हैं । कहा जाता है कि जिंदगी की कुछ अहम बातें समय और उमर के साथ जुड़ी होती है और यदि उमर बीत जाए एवं वे बातें अनकही रह जाएं तो उन्‍हें फिर कभी नहीं कहना होता । लेकिन आज वे सारी बातें भावनात्‍मक ज्‍वालामुखी के रूप में स्‍वतः सामने आ गई । कल्‍पना ने टेलिफोन द्वारा सूचित किया कि उसकी नियुक्ति दिल्‍ली के किसी मंत्रालय में विधि सलाहकार के पद पर हो गई है एवं वह कल दिल्‍ली जा रही है । शाम को घर आते हे मुझे उससे मिलने की उत्‍कट इच्‍छा जाग्रत होने लगी । उसके यहाँ से चले जाने की बात ने अचानक मुझे अतीत की स्‍मृतियों के विवर में झाँकने पर मजबूर कर दिया । मुझे 22 वर्ष पूर्व सुरेन्‍द्र नाथ ला कॉलेजके वे दिन याद आने लगे जहाँ से हम दोनों ने साथ-साथ तीन वर्ष की पढ़ाई पूरी कर विधि-स्‍नातक की डिग्री हासिल की थी ।

उन दिनों मैं वायु सेना में सीनियर नान-कमीशन्‍ड आफिसर के पद पर कार्यरत था एवं प्रोमोशन तथा आगे पढ़ने की इच्‍छा के कारण यह पाठ्यक्रम चुना था । प्रवेश फार्म लेते समय अचानक मेरी नजर एक लड़की पर पड़ी जो काउन्‍टर के पास खड़ी अन्‍य लोगों को अपलक नयनों से नीहार रही थी । उसकी भाव- भंगिमा एवं आँखें, लगता था कुछ कहना चाह रही हैं । फार्म लेने के बाद न जाने किन भावनाओं के वशीभूत होकर मेरे कदम अचानक उसकी ओर बढ़ गए थे । मैं आज तक इसे समझ नहीं पाया । पास पहुँचकर मैंने उससे पूछा क्‍या तुम फार्म नहीं लोगी?” इस पर उसकी आँखें नम हो गई थी एवं उन नम हुई आँखों में झांककर मैं जो कुछ पढ़ा, अनुभव किया, वह मुझे समझाने के लिए काफी था । कालेज कैम्‍पस में शोरगुल के कारण मैं उसे अति आग्रह के साथ बाहर लाया एवं एक चाय दुकान में बैठकर बातों का सिलसिला शुरू हुआ । दोनों ओर से परिचय का आदान-प्रदान हुआ एवं मैं यह जान पाया कि उसका नाम कल्‍पना है एवं बिहार की रहने वाली है । उसका स्‍वाभाव एवं बातचीत करने का ढंग प्रथम मुलाकात के दौरान ही मुझे इतना आत्‍मीय बना दिया जैसे कि हम दोनों वर्षों से एक दूसरे से परिचित हैं। उसने अपनी हालातों का वर्णन कुछ इस तरह से किया कि मैं भी उसके बारे में जानने के लिए जिज्ञासु हो उठा। उसने बताया कि उसके पिताजी टी.बी. के मरीज हैं। वे भी वायु सेना से बहुत पहले ही अवकाश प्राप्त कर पेंशनभोगी हैं। घर की आर्थिक स्थिति आपसी बँटवारा के कारण दयनीय हो गई है । पेंशन ही अब मात्र जीविका का सहारा है । मुझे बचपन से ही वकील बनने की तमन्‍ना थी किंतु खर्च का अनुमान एवं पैसे का इंतजाम संभव न होने के कारण मैं पूरी असमंजस की स्थिति में निर्णय नहीं ले पा रही हूँ ।

मैं उसकी बातों को सुनकर एकदम भावुक हो उठा । उसे मदद करने की बेचैनी की एक असहनीय वेदना मुझे प्रभावित करने लगी । मैं इस निष्‍कर्ष पर पहुँचा कि इस दुनिया में कौन इसकी अंतहीन व्‍यथा को सुनेगा, कौन है जो इसके सुख-दुख में समभागी बनेगा । लाखों लोगों के अपने-अपने अरमान होते है क्‍या सब लोगों के अरमान पूरे होते हैं ? कितने लोग आगे बढ़कर ऐसे लोगों की मदद करते हैं? मैं सोचने लगा कि मनुष्‍य का मनुष्‍य के प्रति काम आ जाना ही सही संदर्भों में जिंदगी जीना होता है । अपने बारे में तो सभी सोचते हैं अपना भविष्‍य निर्माण करते हैं घर बसाते हैं, लेकिन इंसानियत यही कहती है कि यदि दूसरों के बारे में भी कुछ ऐसा ही सोचा जाए तो इंसानियत का अर्थ एक नए रूप में उभरकर सामने आता है

अचानक मैं कह बैठा-कल्‍पना, मैं विश्‍वास दिलाता हूँ कि हर रूप में तुम्‍हारी मदद करूँगा । सारे खर्च वहन करूँगा । तुम इसे अन्‍य रूप में न लेना । यदि तुम राजी हो जाओगी तो जिदंगी का परम सुख मुझे मिल जाएगा। यह सुनकर वह अवाक नजरों से, मुझे देखती रही । मैंने अनुभव किया कि उसके चेहरे पर आशा और विश्‍वास की हल्‍की रेखाएँ उभरने लगी थी । गंभीर मुद्रा से निकल कर एक हल्‍की मुस्‍कान के साथ उसने कहा-पिताजी से सारी बातें कहूँगी एवं यदि वे आज्ञा देते हैं तो मैं आपके प्रस्‍ताव को स्‍वीकार कर लूंगी । अगले दिन पुनः कॉलेज में मिलने का वादा कर हम अपने अपने घर चले आए थे । दूसरे दिन निर्धारित समय पर वह कॉलेज आ गई थी । मैं मुख्‍य द्वार पर बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था । आते ही उसनें मेरा हाथ अपनी हाथों में पकड़ कर उसी दुकान की तरफ ले गई जहाँ हम दोनों पहली बार मिले थे । कुछ नाश्‍ता पानी के बाद उसने कहा- पिताजी आपसे मिलना चाहते हैं । आप भी वायुसेना में कार्यरत हैं एवं वे भी इसी सेना में थे सो लगता है यह आकर्षण उन्‍हें कुछ हद तक आपके उपर विश्‍वास का कार्य कर रहा है।

इसके पूर्व कि कुछ कहूँ उसने कुछ भी सुनने से इंकार किया एवं अपने घर बेलघरिया चलने के लिए मुझे मजबुर कर दिया ।

घर पहुँचते ही मुझे ऐसा एहसास हुआ कि जो भी उसने कहा सब सच है । उसने मुझे एक कमरे में बैठाकर चाय पानी दिया एवं स्‍वयं दूसरे कमरे में चली गई जहाँ उसे पिताजी रोग-शैया पर पड़े जिंदगी के शेष दिन गिनती कर रहे थे । थोड़ी देर बाद वह आई एवं मुझे पिताजी के कमरे में लेकर गई । मैंने उनका चरण-स्‍पर्श किया एवं ज्‍योंहि कुर्सी पर बैठा तो देखा उनकी आँखों से आसूँ निकल रहे थे । मैं निर्णय नहीं कर पा रहा था कि ये खुशी के आँसू थे या दुख के । एक संक्षिप्‍त परिचय के बाद जब उन्‍हें ध्‍यान से देखा तो मेरे पैर तले की धरती खिसकती नजर आने लगी और मुझे याद आया कि ये तो जैसलमेरयूनिट के मास्‍टर वारंट आफिसर अशो‍क सिंह थे जिनके अधीन मैं एक जुनियर अधिकारी था । उन्‍होंने भी मुझे पहचान लिया एवं कहा- सर्जेंट प्रेम सागर सिंह, तुम आज भी बदले नहीं । मुझे गर्व है कि तुम पहले की तरही आज भी सक्रिय, सफल एवं कुशल इंसान हो। मुझे याद आया कि ये वही वांरट आफिसर थे जिन्‍होंने फील्‍ड एरिया से मेरी छुट्टी मुख्‍यालय तक दौड़ लगा कर कराई थी । मेरी माँ का निधन हो गया था एवं जैसलमेर (राजस्‍थान) जैसे संवेदनशील जगह पर तैनात रहने के कारण छुट्टी देना अधिकारियों के लिए आसान काम नहीं था। ज्‍यों-ज्‍यों श्राद्ध का दिन नजदीक आता गया मैं उदास होता चला गया एवं एक दिन अचानक उन्‍होंने मेरी छुट्टी काफी दिक्‍कतों के बाद मंजूर कराकर रेलवे वारंट एवं अन्‍य कागजात मेरे हाथों में सौंप कर कहा था सर्जेंट, नाऊ यू कैन प्रोसीड आन लीव। मरे खुशी का ठिकाना नहीं रहा-मैं उनका चरण स्‍पर्श करना चाहा तो उन्‍होंने कहा था कि एक सीनियर होने के नाते मैंने अपना कर्तव्‍य किया है कोई एहसान नहीं । आखिर, मैं भी तो मनुष्‍य हूँ एवं मनुष्‍य होकर एक दूसरे के सुख-दुख को समझना उसे सुलझाना ही सही मायने में इंसानियत की सच्‍ची तस्‍वीर होती है सो मैंने किया है । बातों का सिलसिला जारी रहा । उन्‍होंने मेरे बारे भी पूछा, परिवार, रिश्‍ते सभी चर्चा के विषय रहे । वायु सेना में साथ-साथ काम करना एवं स्‍वजातीय आकर्षण के कारण उन्‍होंने मेरे परामर्श को स्‍वीकार कर लिया । एक विश्‍वास एवं आत्‍मीय लहजे में उन्‍होंने कहा- प्रेम, कल्‍पना का भविष्‍य, मेरे अरमान, इज्‍जत सब तुम्‍हारे हाथों सौंप रहा हूँ । आज के इस युग में तुम्‍हारे जैसा इंसान मिलना संभव नहीं । तुम से मिलकर मुझे आज जो खुशी मिली है इसका इजहार करने के लिए मेरे पास कोई शब्‍द नहीं है । कुछ दिन तक तो घर में रिश्‍तेदारों का अपने जाने का क्रम जारी रहा किंतु आर्थिक स्थिति अच्‍छी नहीं हाने के कारण आज बहुत दिन हो गए अब काई आता जाता नहीं है । ऐसे समय में तुम्‍हारा आगमन मेरे लिए ईश्‍वरीय उपहार है । लगता है हमारा, तुम्‍हारा एवं कल्‍पना का जन्‍म-जन्‍मांतर का संबंध है । यह कहते हुए वे बहुत भावुक हो गए थे, कल्‍पना भी बगल में बैठी थी । मैं उन्‍हं आश्‍वासन देकर विदा लेने लगा तो उन्‍होंने कहा – “कल्‍पना को कल कॉलेज भेज दूँगा एवं जो भी संभव हो करना. भगवान तुम्‍हें सदा सुखी रखें ।

दूसरे दिन कल्‍पना निर्धारित समय पर कॉलेज पहुँच कर मेरा इंतजार कर रही थी । फार्म लेकर वहीं भरा गया एवं फीस वगैरह जमा करने के बाद मुझे काफी प्रसन्‍नता हुई । कल्‍पना का मुख-मंडल भी एक अप्रत्‍याशित खुशी से अत्‍यधिक कांतिमय हो गया था । इसके बाद पुस्‍तक सूची में दिए गए किताबों को खरीद कर उसे दे दिया । समय काफी हो चुका था । अतः हम अपने-अपने घर के लिए रवाना हो गए ।

सोमवार से प्रथम वर्ष का क्‍लास प्रारंभ हुआ । मैं और कल्‍पना एक ही साथ बैठते थे। वह बहुत ही तेजस्‍वी छात्रा निकली । कभी-कभी जो विषय प्रोफेसर साहब के समझाने पर भी मुझे समझ में नहीं आता था उसका स्पष्टीकरण वह बडी ही सहजता से मुझे समझा देती थी। कहा जाता है- समय और ज्वार-भाटा किसी का इंतजार नहीं करता। ठीक वैसा ही हुआ। समय के प्रवाह के साथ हम दोनों अच्छे नम्बरों से प्रथम,द्वितीय.एवं तृतीय वर्ष पास कर गए। अंतिम वर्ष के समाप्त होने के कुछ महीने पूर्व हमारी दूरियां,एक पवित्र रिश्ते की सुगंध एवं उसके पिताजी का मेरे ऊपर अटूट विश्वास की मजबूत नींव लगा कि धाराशायी हो जाएगी किंतु मन तो एक ही होता है.दस बीस तो होता नही। मै भी कुछ परेशान सा रहने लगा था।गहन चिंतन के बावजूद ऐसा महसूस हुआ कि हम दोनों अपनेअपने लक्ष्य से भटक रहे हैं। मेरी आत्मा भी मुझे कोसने लगी एवं मै खुद एक ऐसी स्थिति में पहुच गया था जहां से किसी भी व्यक्ति के लिए वापस लौटना एक सहज एवं स्वाभाविक प्रक्रिया से होकर गुजरने में ही संभव था। इधर कुछ महीनों से अनुभव कर रहा था कि वह तमाम सामाजिक वर्जनाओं को तोड देना चाहती थी। हम दोनों एक दूसरे के प्रति अत्यंत सम्मोहित होने लगे थे।एक दिन उसने अति साहस एवं विश्वास के साथ कहा- प्रेम,मै तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करती रही कि तुम मेरे लिए जो कुछ भी किए हो उसके एवज में मुझसे कुछ आशा रखते होगे किंतु तुमने कभी भी ऐसा कुछ महसूस नही होने दिया लेकिन अब मै, सोचती हू कि तुम्हारे लिए अपने आप को समर्पित कर- एक बार ही सही, तमाम सामाजिक वर्जनाओँ को तोडकर, तम्हे एक अप्रत्याशित एवं अनिर्वचनीय सुख की पराकाष्ठा पर पहुंचाकर अपने आप को उऋणी कर लूं। इसका निर्णय अब तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है । मैं किसी भी दिशा में चलने के लिए राजी हूं।

इन सारी बातों को सुनकर मुझे ऐसा लगा था कि हजार बिच्छुओं ने मुझे एक साथ काट लिया हो। मेरा अन्तर्मन एक गहरी व्यथा से आंन्दोलित हो गया था।लगा था कि ऐसा कुछ करके मै अपने आप को बहुत ही छोटा महसूस करने लगूंगा। मैने प्रण किया कि जिस विश्वास के सहारे उसके पिताजी ने उसको मेरे ऊपर छोडा था एवं जिन पवित्र भावनाओं एवं इन्सानियत के मजबूत रिश्ते के वशीभूत होकर आज तक जो कुछ भी किया, उसे शर्मशार नही करुँगा।

अपने आप को इस अग्निपरीक्षा की प्रत्येक कसौटी पर रखने के बाद मेरी अभिव्यक्ति को एक सार्थक रुप मिला। मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि मै किसी प्रिय वस्तु को जानबूझकर खो रहा हूं किंतु दूसरे ही पल पर संयम रखते हुए मैनं कहा था- कल्पना,आज तक तुम्हे मै उस रुप में कभी भी न देखा, न चाहा न कल्पना ही किया

है। मै तुम्हारी मंजिल नही था बल्कि तुम हमारी मंजिल थी- मै तुम्हारा भाग्य-विधाता नही था, तुम मेरी भाग्य विधाता रही हो एवं मेरी जीवन यात्रा का अंतिम पडाव तुम ही तो हो। तुम्हारी कल्पना साकार हो गयी यही मेरे जीवन का परमानंद है, मंजिल है, उद्देश्य है तुम्हारी हर खुशी में मेरी अपनी खुशी छिपी हुई है। इन बातों को सुनकर वह अवाक सी रह गई। शायद प्रेम शब्द की व्याख्या से अपरिचित होने के कारण उसने इसे एक सहज रूप में लिया था। उसे समझाया, कुछ सोचनें पर मजबूर किया एवं इस बात का एहसास दिलाया कि तुमने जो कुछ भी सोचा एवं चाहा यह मेरे जीवन की अनमोल धरोहर रहेगी। वह एकाएक लगा किसी निंद्रा से उठकर कहने लगी- आज के युग में तुम्हारे जैसे लोग विरले ही मिलते हैं एवं आज तुम मेरे मन मंदिर में अराध्य- देव की जगह बस गए हो। तुम सर्वदा पूजनीय रहोगे-यह मेरा वादा रहा। इसके बाद वह बोली-प्रेम, तुम थोडा इंतजार करो। मै दस मिनट आ रही हूं। थोडी देर के बाद एक छोटा सा पैकेट लिए वह वापस आ गयी और मुझे उस पैकेट को हाँथ में देते हुए मेरे दोनों हाथ अपने हाथों में,बहुत देर तक पकडी रही और कहा-तुम्हे यह एक सौगात के रूप में दे रही हूं, अस्वीकार न करना। इसके बाद उस दिन से हम दोनों के परस्पर मिलते रहने की प्रक्रिया का भी अंत हो गया। बस में चढते समय उसके आंसू मुझे भी उसी तरह आंदोलित कर गए थे। घर आने के बाद उसकी हर बात याद आती रही - क्या खोया. क्या पाया सोचते- सोचते न जाने कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला । दूसरे दिन का सबेरा आज उतना मोहक नहीं लग रहा था। रोशनी के बाद भी लगता था कि इस सूर्य की रोशनी में बेनूर अंधेरा है ।

रोज की तरह आज भी आसमान में बादल छाए हुए थे । मन स्‍वस्‍थ एवं चिंताहीन रहता है तो प्रकृति का दृश्‍य एवं मौसम भी सुहावना लगता है । कल तक जो हवाएं एक सुखद एहसास, स्‍फूर्ति एवं नव-जीवन का संचार करती थी, आज वही बेदर्द हवाएं तन को कष्‍ट पहुंचा रही थी । न्‍यूज पेपर पढ़ते-पढ़ते अचानक कई विचार एक साथ मन में आने लगे थे । कुछ हद तक दार्शनिक भाव से प्रभावित होने लगा था । सोचने लगा था कि जिंदगी के कई रंग होते है एवं हर रंग अलग-अलग महत्‍व रखते हैं जो भी अपने आप को जिस रूप एवं शैली में चाहा रंग लिया लेकिन अफसोस होता है कि इंद्रधनुष में समाहित सात रंगों में से कोई भी रंग न मुझे रंग पाया न कल्‍पना को ही । इस हसीन और रंगीन दुनिया में ही हम दोनों चाह कर भी बेरंग रह गए थे । आज कालका मेल से कल्‍पना दिल्‍ली जा रही थी । मैं नियत समय पर हावड़ा स्‍टेशन पहुंच गया था । कल्‍पना और उसके सगे-संबंधी सभी लोग पहुंच गए थे । निर्धारित समय पर गाड़ी प्‍लेटफार्म पर आ गई थी । सभी लोग सवार होने लगे थे । मै एक मूक दर्शक एवं वियोग की विषम वेदना से व्यथित कुछ कहने सुनने की स्थिति में नही था। कल्पना का सारा सामान ट्रेन के अंदर रखा जा चुका था। धीरे-धीरे मै भी कंपार्टमेंट के नजदीक आ गया। कल्पना ने आगे बढ कर मेरा चरण स्पर्श किया। मेरा भी मन एक सुखद एहसास की अनुभूति से पुलकित हो उठा। वियोग की इस घडी मे मेरी चिंतन शक्ति, संवेदना, अभिव्यक्ति सभी बेजान सी हो गयी थी। इंसान चाहे जैसा भी हो उसके अंतर्मन में एक कोमल भावुकता अपना स्थायी रूप सुरक्षित रखती है। उसकी अभिव्यक्तियां,मानसिक संवेदनाएं सभी भाव शून्य हो जाती हैं। मन अधीर हो जाता है।मैं भी शायद इन सभी कारकों का शिकार हो गया था।गाडी खुलने का समय हो गया था।मैं खिडकी के पास खडा अपने आप पर नियंत्रण बनाए रखा था किंतु वियोग की अंतिम बेला में जो काम शब्द नहीं कर पाते आँसू कर जाते हैं। ऐसा मेरे साथ भी हुआ एवं चाहकर भी मैं आँसुओँ के पारावार को रोक न सका। इसके पूर्व कि मैं उन अविरल प्रवाहित आँसूओँ को पोछने के लिए अपना रूमाल निकालता- कल्पना ने बडे ही आत्मीय भाव से अपने दोनों हाँथों से मेरी आँखों से बहते हुए आँसुओं को पोंछ डाला। गाडी़ धीरे- धीरे प्लेटफार्म छोडने लगी थी। मैं भी खिडकी को पकडे आगे बढ रहा था-अचानक कल्पना ने अपने दोनों हाथों से मेरा हाँथ पकडकर डबडबाई आखों से कहा था-प्रेम जब कभी दिल्ली आना, मुझसे जरूर मिलनामै आजीवन तुम्हारा इंतजार करूंगी और अपने दिल में थोडी सी जगह तुम्हरी स्मृर्ति के रूप में अहर्निश सुरक्षित रखूँगी। गाडी चली गयी एवं

एक अंतहीन व्यथा को मन में लिए मैं घऱ वापस आ गया था। सोते समय अचानक मेरी नजर कल्पना द्वारा दिए गए पैकेट पर पडी- जिज्ञासाभाव से खोला तो देखा कि उसमें एक बेहतरीन रूमाल, लव बर्डस तथा दो सुंदर गुलाब के फूल थे जो आज भी मूल रूप घर के शो केश में वैसे ही पडे़ है।

इक बार तुझे अक्ल ने चाहा था भुलाना.

सौ बार रब ने तेरी तस्बीर दिखा दी।

प्रेम सागर सिंह

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