राही मासूम रजा की कविता
“मैं
एक फेरी बाला” से
साभार उद्धरित -
(राही मासूम रजा)
प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
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लाजवाब अभिवयक्ति , बहुत कुछ कहती एक शानदार रचना ।
ReplyDeleteनीम का पेंड़ याद आ गया।
ReplyDeleteमानवता को समर्पित ऐसी रचना और रचनाकार को प्रणाम साथ ही आपके सुखद प्रयास को भी नमन
ReplyDeleteराही मासूम रजा की कविता पढवाने के लिए आभार,,,,
ReplyDeleteRECENT POST...: शहीदों की याद में,,
वाह....
ReplyDeleteउद्वेलित करती रचना....
साझा करने का शुक्रिया प्रेमसरोवर जी.
सादर
अनु
"कविता" समाज में धर्मवाद के दंश को जी रहे मन की गहरी अभिव्यक्ति है. और ये चोट करती है, आज के समाज के उस सोच को जिसमें 'धर्म' 'मानवता' से बड़ा हो जाता है.
ReplyDeleteबहुत सही कहा है आपने..।
Deleteमन को झकझोर देने वाली कविता .... इसे यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार
ReplyDeleteधन्यवाद ।
Deleteमहादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ReplyDeleteये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
एक सच्चे भारतीय का आक्रोश !
बेहद सशक्त भाव लिए उत्कृष्ट प्रस्तुति।
ReplyDeleteसशक्त भाव.
ReplyDeleteसाझा करने का शुक्रिया.
राही मासूम रजा की यह कविता कठमुल्लापन अर्थात अंधश्रद्धा की हकीकत बयां करती है.
ReplyDeleteप्रस्तुति के लिए साधुवाद.
आपकी बातों में दम है, रावत जी ।
Deleteबेहद सशक्त अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteगहरी भावमयी रचना..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार प्रेम सरोवर जी .
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