Sunday, September 30, 2012

नवगीत: कुमार रवींद्र


नवगीत के विशिष्ट शिल्पकार कुमार रवींद्र जी अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत है। अब तक उनके पांच नवगीत संग्रहों के अतिरिक्त पांच काव्य नाटक, एक अंग्रेजी कविताओं और एक मुक्तछंद एवं लंबी कविताओं का संग्रह प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत है, उनका नवगीत दिन सुखी होगा


प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह


 दिन सुखी होगा


एक चुटकी नेह संग
सूरज भिगाओ ताल में
दिन सुखी होगा

बंधु, मानो
यही नुस्खा है गझिन मधुमास का
आरती करती हवाओं की
नई बू -बास का

नही बीजो वेदना
जो रही पिछले साल में
दिन सुखी होगा।

आम फूला
सगुनपाखी कर रहा रितुगान है
कहीं वंशी बजी
वह भी नेह का वरदान है

इन्हे साधो
काम आएँगे कठिन दुष्काल में
दिन सुखी होगा

देह में जो इंद्रधनुषी याचना है
उसे टेरो
व्यर्थ की चिंताओं की
भाई, सुमरिनी नही फेरो

हाट ने जो बुना जादू
मत फसो उस जाल में
दिन सुखी होगा



( www.premsarovar.blogspot.com)


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Friday, September 21, 2012

समय सरगम : कृष्णा सोबती


    
परंपरा और आधुनिकता का समन्वय ही समय सरगम है : कृष्णा सोबती


                           
                    प्रस्तुतकर्ता: प्रेम सागर सिंह

कृष्णा सोबती जी का उपन्यास जिंदगीनामा, डार से बिछुड़ी एवं मित्रों मरजानी पढ़ने के बाद एक बार इनका उपन्यास समय सरगम पढ़ने का अवसर मिला था एवं जो कुछ भी भाव मेरे मन में समा पाए उन्हे आप सबके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं। इस उपन्यास में उठे कुछ प्रश्नों की पृष्ठभूमि में यह कहना चाहूंगा कि आँचल में दूध और आँखों मे पानी लेकर स्त्री ने मातृत्व की महानता के बहुत परचम गाड़े पर जल्द ही उसे समझ आ गया कि यह केवल समाज को गतिमान रखने की प्रक्रिया है। महानता से इसका कोई लेना देना नही है। आज नई पीढ़ी के बच्चे आत्मनिर्भर होते ही माँ-बाप की जरूरत को महसूस नही करते। मातृ ऋण, पितृ ऋण चुकाने की झंझट में न पड़कर आत्म ऋण से सजग होकर वाद-विवाद करके माँ-बाप से पल्ला झाड़ लेते हैं। पैदा होने का अधिकार माँगते हैं। नई पीढ़ी के युवाओं का यह अतिप्रश्न मुझे उषा प्रियंवदा जी की कहानी वापसी के नायक गजाधर बाबू की मन;स्थितियों की बरबस ही याद दिला देती है, जब वे अपने अतीत को याद करते हुए डूबती और डबडबाती आँखों में आँसू लिए अपने ही घर से पराए होकर एक दूसरी दुनिया में पदार्पण करने के लिए बाहर निकल पड़ते हैं। इस पोस्ट के माध्यम से नई पीढ़ी के युवाओं से मेरा अनुरोध है कि वे कुछ इस तरह का संकल्प लें एवं आत्ममंथन करें कि किसी भी बाप को गजाधर बाबू न बनना पड़े अन्यथा उनकी भी वही हाल होगी जो गजाधर बाबू के साथ हुई थी।  - प्रेम सागर सिंह

मैं उस सदी की पैदावार हूं जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया  यानि एक थी आजादी और एक था विभाजन । मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ अपनी लड़ाई नही लड़ता और न ही सिर्फ अपने दु:ख दर्द और खुशी का लेखा जोखा पेश करता है। लेखक को उगना होता है, भिड़ना होता है। हर मौसम और हर दौर से नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ. इतिहास के फ़ैसलों और फ़ासलों के साथ। मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया। जो मैने देखा जो मैने जिया वही मैंने लिखा ज़िंदगीनामा”, दिलोदानिश”, मित्रो मरजानी”, समय सरगम”,  यारों के यार में। सभी कृतियों के रंग अलग हैं । कहीं दोहराव नहीं। सोचती हूँ कि क्या मैंने कोई लड़ाई लड़ी है? तो पाती हूँ लड़ी भी और नहीं भी। लेखकों की दुनिया भी पुरूषों की  दुनिया है लेकिन जब मैंने लिखना शुरू किया तो छपा भी और पढ़ा भी गया। ये लड़ाई तो मैंने बिना लड़े ही जीत ली। कोई आंदोलन नहीं चलाया लेकिन संघर्षों की, संबंधों की, ख़ामोश भावनाओं की राख में दबी चिंगारियों को उभारा उन्हें हवा दी, ज़ुँबा दी ।. - कृष्णा सोबती

 हिंदी कथा साहित्य में चेतना संपन्न कई उपन्यासों की रचना हुई है, इसमें कृष्णा सोबती का नाम भी प्रसिद्धि प्राप्त है। एक नारी होने के नाते उन्होंने नारी मन को सही ढंग से समझाया है। अपने अनुभव जगत को रेखांकित करती वह अध्यात्मक तक पहुँची है। उनके साहित्य में जीवन की सच्चाई है। भारतीय सहित्य के परिदृश्य पर हिंदी के विश्वसनीय उपस्थिति के साथ वह अपनी संयमित अभिव्यक्ति और सुधरी रचनात्मकता के लिए जानी जाती हैं। उन्होंने अब तक नौ उपन्यासों की रचना की है, इनमें समय सरगम वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ। कृष्णा सोबती जी की यह विशेषता है कि वह हर बार एक नया विषय और भाषिक मिजाज लेकर आती है। उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में समय सरगम एकदम हटकर है। पुरानी और नई सदी के दो छोरों को समेटता प्रस्तुत उपन्यास जीए हुए अनुभव की तटस्थता और सामाजिक परिवर्तन से उभरा, उपजा एक अनूठा उपन्यास है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत की बुजुर्ग पीढियों का एक साथ नया पुराना आलदान और प्रत्याखान भी है। परंपरा और आधुनिकता का समन्वय ही समय सरगम है। हमे यह बात स्पष्ट पता है कि परंपरा ही हमें वह छत उपलब्ध कराती है जो हर वर्षा, धूप, जाड़े तूफान से रक्षा करती है और आधुनिकता वह सीमाहीन आकाश है जहां मनुष्य स्वच्छंद भाव से उड़ान भरता है और अपने स्व का लोहा मनवाता है। अब स्त्रियां परंपरा रक्षित उस घर में कैद रहना नही चाहती हैं जो उनके सुरक्षा के नाम पर बंदी बनाता है। इसीलिए द्वंद्व की यह स्थिति उत्पन्न होती है। उन्होंने समय सरगम लिखकर उल्लेखित द्वंद्व की स्थिति का समाधान किया है।  इस उपन्यास में आरण्या प्रमुख नारी पात्र है। वह पेशे से लेखिका है। उपन्यास के लगभग सभी पात्र जीवन के अंतिम दौर से गुजर रहे हैं। जीवन की सांध्य-वेला में मृत्यु, भय तथा पारिवारिक सामाजिक उपेक्षा को महसूस करते इन पात्रों में उदासी, अकेलापन, अविश्वास घर करते जा रहा है, ऐसे में आरण्या ही एकमात्र पात्र है, जो मृत्यु भय को भुलाकर जीवन के प्रति गहरी आस्था के लिए जी रही है। उनका विवाहित और अकेले रहने का फैसला इस उम्र में उसकी समस्या नही बल्कि स्वतंत्रता है। आज की नारी केवल माँ बनकर संतुष्ट नही है वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व की भाँति स्वयं को प्रतिष्ठित करना चाहती है। आरण्या ने परंपरा को चुनौती दी है। आज तक के हमारे साहित्य, धर्म, दर्शन में मातृत्व का इतना बढ-चढ कर वर्णन हुआ है कि मातृत्व प्राप्त स्त्री देवी के समान पवित्र एवं पूजनीय मानी जाती है। जितना उसका स्थान ऊंचा, पवित्र एवं वंदनीय है उतना ही अन्य रूप तिरस्कृत भी है।

उपन्यास मे आरण्या जीवन के अंतिम पड़ाव पर खड़ी एक ऐसी स्त्री है जो नाती पोतों के गुंजार से अलग एकाकी होने के एहसास को जी रही है पर उसमें अकेलेपन की व्यथा नही है, जीवन को भरपूर जीने का संदेश है। घर परिवार के लिए होम होती रहने वाली आलोच्य उपन्यास की दमयंती और कैरियर के लिए परिवार के झंझट से दूर रहने वाली कामिनी, दोनों का एक जैसा त्रासद अंत इस तथ्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि उद्देश्य की प्रधानता के साथ मानव अस्तित्व की कोई और भी सार्थकता है। आरण्या ने अन्य स्त्रियों के माध्यम से इस बात का अनुभव किया है। वह अपने व्यक्तित्व की पुनर्रचना करती जिंदगी के हर पल को जीना चाहती है दुख, दर्द एवं पीड़ा से वह दूर रहना चाहती है। इस उपन्यास के सभी पात्र मृत्यु भय से इतने अधिक त्रस्त हैं कि अनजाने ही मृत्यु को भोग रहे हैं। इन सबकी सोच, व्यवहार, प्रत्येक क्रिया कलाप के मूल में कहीं न कहीं मृत्यु भय है। इस उपन्यास में लेखिका ने नायक की अवधारणा को बदला है। नायक कभी-कभी खलनायक लगने लगता है। समाज की स्थिति में जबरदस्त परिवर्तन ने साहित्य में भी परिवर्तन कर दिया है। साहित्य में पुरूष जब तक महिमामंडित था,मानवीय गरिमा से संयुक्त था परंतु स्त्री को तमाम अतींद्रिय शक्तियों को खोना पड़ा है। वह शासित और प्रताड़ित महसूस करने लगी है। आरण्या का व्यक्तित्व जिस तरह उपन्यास में खुलकर सामने आया है, उसकी आजादी, स्वतंत्रता एवं मुक्त जीवन के कई उदाहरणों को स्पष्ट करता है। ये सारे उदाहरण सिर्फ आरण्या के जिंदगी के नही बल्कि वर्तमान स्त्री जीवन की अस्मिता एवं उसकी सामाजिक रूझान की क्षमता को प्रकट करते हैं। इस उपन्यास आरण्या और ईशान ऐसे ही चरित्र हैं, जो एक उम्र जी चुके हैं। लेखिका ने बुजुर्गों की कथा के माध्यम से जीवन के अंतिम छोर पर जी रहे लोगों की उलझनों, मानसिक द्वंद्वों, जीवन-शैली, मृत्युमय आदि कई विषयों पर दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही नारी जीवन की बदलती सोच एवं अपने अधिकारों के प्रति सजगता को भी रेखांकित किया है। सार संक्षेप यह है कि इस उपन्यास में सोबती जी ने स्त्री चरित्र की नई भाषिक सृष्टि के आयाम को एक संवेदनशील रचनाकार के रूप में अपने मनोभावों के आयाम को विस्त़ृत करने का जोरदार प्रयास किया है।


जन्म- 18 फरवरी, 1925, पंजाब के शहर गुजरात में (अब पाकिस्तान में)
पचास के दशक से लेखन, पहली कहानी 'लामा' 1950 में प्रकाशित

मुख्य कृतियाँ-- डार से बिछुड़ी, ज़िंदगीनामा, ए लड़की,  मित्रो मरजानी,  हमहशमत,  दिलो दानिश, समय सरगम.

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित

                            
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Saturday, September 15, 2012

एक मुलाकात :अमृता प्रीतम



मुझे शुरू से ही अमृता प्रीतम जी की कविताओं को पढ़ने का मन करता है और जब भी उनकी किसी भी कविता से मुलाकात होती है तो न जाने क्यूं उसमें गुंफित भाव आत्मीय से लगने लगते है। सोच की दशा और दिशा कविता का अर्थ खोजने के बजाय साहिर से प्रत्य़क्ष या कहें तो परोक्ष रूप में संवाद करते से महसूस होते हैं। कुछ ऐसे ही चिंतन के साथ प्रस्तुत है उनकी कविता एक मुलाकात ”……..

                       प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह

 एक मुलाकात

मैं चुप शान्त और अडोल खड़ी थी
सिर्फ पास बहते समुंद्र में तूफान था……फिर समुंद्र को खुदा जाने
क्या ख्याल आया
उसने तूफान की एक पोटली सी बांधी
मेरे हाथों में थमाई
और हंस कर कुछ दूर हो गया
हैरान थी….
पर उसका चमत्कार ले लिया
पता था कि इस प्रकार की घटना
कभी सदियों में होती है…..
लाखों ख्याल आये
माथे में झिलमिलाये
पर खड़ी रह गयी कि उसको उठा कर
अब अपने शहर में कैसे जाऊंगी?
मेरे शहर की हर गली संकरी
मेरे शहर की हर छत नीची
मेरे शहर की हर दीवार चुगली
सोचा कि अगर तू कहीं मिले
तो समुन्द्र की तरह
इसे छाती पर रख कर
हम दो किनारों की तरह हंस सकते थे
और नीची छतों
और संकरी गलियों
के शहर में बस सकते थे….
पर सारी दोपहर तुझे ढूंढते बीती
और अपनी आग का मैंने
आप ही घूंट पिया
मैं अकेला किनारा
किनारे को गिरा दिया
और जब दिन ढलने को था
समुंद्र का तूफान
समुंद्र को लौटा दिया….
अब रात घिरने लगी तो तूं मिला है
तूं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
मैं भी उदास, चुप, शान्त और अडोल
सिर्फ - दूर बहते समुंद्र में तूफान है…..

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Sunday, September 9, 2012

तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने की परंपरा आत्मघाती है



   तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने की परंपरा आत्मघाती है।


 
                                              प्रस्तुतकर्ता:प्रेम सागर सिंह

  
(हमारी मान्यता बन चुकी है कि हमारी दृष्टि वैसी नही होनी चाहिए जैसा कि सत्य है; बल्कि सत्य ही वैसा होना चाहिए जैसै कि दृष्टि है। आश्चर्य होता है कि इतने बड़े वैज्ञानिक, तथ्यात्मक तथा प्रामाणिक युग में रहकर भी हम अपनी मान्यताएं सुधार नही पाते हैं) - डॉ. अनेकांत कुमार जैन

18 सितंबर,1949 को संविधान सभा की कार्यवाही में हरि कृष्ण कामथ ने अपने भाषण में भारत, हिदू भारतभूमि, भारतवर्ष आदि नामों का सुझाव देते हुए दुष्यंत पुत्र भरत की कथा भारत का उल्लेख किया था । हृदय नारायण दीक्षित जी ने दैनिक जागरण 10 अगस्त,2004 के संपादकीय पृष्ठ पर भारत क्यों हो गया इंडिया नामक अपने लेख में लिखा है किसंविधान सभा ने भारत को इंडिया नाम देकर अच्छा नही किया। जो भारत है उसका नाम ही भारत है। यह इंडिया जो भारत है को पारित करवा कर उस समय सत्तारूढ़ दल ने एक नए राष्ट्र के रूप, स्वरूप, दशा, दिशा, नवनिर्माण, भविष्य और नाम को लेकर दो धाराएं जारी की। एक धारा भारतीय दूसरी इंडियन। महात्मा गांधी, डाक्टर राममनोहर लोहिया, डॉ हेडगवार, बंकिमचंद्र और सुभाषचंद्र बोस भारतीय धारा के अग्रज हैं। पं.जवाहर लाल नेहरू पर सम्मोहित धारा इंडियावादी है।

आधुनिक शोधों और खोजों का परिणाम आया है कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा और इससे पूर्व ऋषभदेव के पिता नाभिराय के नाम पर इस देश का नाम अजनाभवर्ष था। इस खोज से इस मान्यता पर पुर्नविचार करना पड़ सकता है कि दुष्यंत पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। यह बात नही है कि दुष्यंत पुत्र भरत का नाम शास्त्रों में है नही।

महाभारत एवं एकाध पुराणों में इस संबंधी श्लोक भी है किंतु उन्ही पुराणों में एक नही बल्कि दर्जनों श्लोक ऐसे भी हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि ऋषभपुत्र भरत के नाम पर इस देश को भारत नाम मिला। दरअसल, भरत के नाम से चार प्रमुख व्यक्तित्व भारतीय परंपरा में जाने जाते हैं:--

1.तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत
2.राजा रामचंद्र के अनुज भरत
3.राजा दुष्यंत का पुत्र भरत
4.नाट्यशास्त्र के रचयिता भऱत
इन चार विकल्पों में से प्रथम विकल्प के ही शिलालेखीय तथा शास्त्रीय साक्ष्य प्राप्त है। अग्निपुराण भारतीय विद्याओं का विश्वकोश कहा जाता है, उसमें स्पष्ट लिखा है:--
ऋषभो मरूदेव्य च ऋषभाद् भरतोभवत्।
ऋषभोदात् श्री शाल्यग्रामे हरिंगत:
भरताद् भारतं वर्ष भरतात् सुमतिस्त्वभूत।।

आईए, अब चलते है इस समस्या पर जब यह प्रश्न उठने लगा कि भारत का नाम क्या होना चाहिए। इसे जब नेहरू जी के सामने ऱखा गया तो उन्होंने यह घोषणा की कि हमें शिलालेखीय साक्ष्य जो मिलेंगे हम उसे ही स्वीकार करेंगे। तब उडीसा में उदयगिरि-खण्डगिरि के शिलालेख जिसे प्रसिद्ध जैन सम्राट खारवेल ने खुदवाया था, में भरधवश(प्राकृत भाषा में तथा ब्राह्मी लिपि में) अर्थात भारतवर्ष का उल्लेख प्राप्त हो गया। इस ऐतिहासिक शिलालेख ने चक्रवर्ती भरत के काल से लेकर खारवेल के युग तक देश के भारत वर्ष नामकरण को प्रमाणित कर दिया।

पद्मभूषण बलदेव उपाध्याय ने प्राकृतविद्या में लिखा है- जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है कि इन्ही प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से देश का नामकरण भारतवर्ष इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इस तरह के प्रमाणों से उन लोगों की आंखें खुल जानी चाहिए अर्थात वे भ्रांतियां मिट जानी चाहिए, जो दुष्यंत पुत्र भरत या अन्य को इस देश के नामकरण से संबद्ध करते हैं तथा विद्यालयों, कॉलेजों के पाठ्यक्रम में निर्धारित इतिहास की पुस्तकों में इससे संबंधित भ्रर्मों का संशोधन करके इतिहास की सच्चाई से अवगत कराना बहुत आवश्यक है।

यह बात मुझे उन दिनों खटकी थी जब स्टार प्लस के सुप्रसिद्ध कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति (प्रथम) में अमिताभ बच्चन ने हॉट सीट पर बैठे किसी प्रतियोगी से प्रश्न पूछा था कि इस देश का नाम भरत किसके नाम पर पड़ा! तो ऋषभपुत्र भरत के नाम पर जैसा कोई विकल्प उनके चार विकल्पों में था ही नही। जबकि यही सही उत्तर है। प्रतियोगी को उन चारो गलत उत्तरों में से एक को चुनना पड़ा। हमें प्रयास करना चाहिए कि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, ज्ञान और अध्यात्म की श्रीवृद्धि में जिस परंपरा का योगदान जैसा रहा है उसे वैसा महत्व और श्रेय दिया जाना चाहिए। तथ्यों तथा प्रमाणों को छुपाने या उन्हे जैसे-तैसे अपने पक्ष में सिद्ध करने की परंपरा आत्मघाती है। विचारों का जो नया उन्मेष भारत में जगा है वह यही है कि हमारा कोई भी चिंतन आग्रही न बने। हम दुराग्रह को छोड़कर सत्याग्रही बनें; शायद हम तभी भारत को समझ सकते हैं।

नोट:- अपने किसी भी पोस्ट की पृष्ठभूमि में मेरा यह प्रयास रहता है कि इस मंच से सूचनापरक साहित्य,अपने थोड़े से ज्ञान एवं कतिपय संकलित तथ्यों को आप सबके समक्ष सटीक रूप में प्रस्तुत करता रहूं किंतु मैं अपने प्रयास एवं परिश्रम में कहां तक सफल हुआ इसे तो आपकी प्रतिक्रिया ही बता पाएगी। इस पोस्ट को अत्यधिक रूचिकर एवं सार्थक बनाने में आपके सहयोग की तहे-दिल से प्रतीक्षा रहेगी। आपके सुझाव मुझे अभिप्रेरित करने की दिशा में सहायक सिद्ध होंगे। धन्यवाद सहित- आपका प्रेम सागर सिंह
          
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Sunday, September 2, 2012

किसी देश की युवा पीढ़ी उस देश की रीढ़ होती है


    
   किसी देश की युवा पीढ़ी उस देश की रीढ़ होती है


  
               
            प्रस्तुतकर्ता : प्रेम सागर सिंह


समय अनमोल है इसका मूल्य निर्धारण नही किया जा सकता। समय जो बीत गया सो बीत गया। लाखो करोड़ो रूपये खर्च करने पर भी बीता हुआ समय वापस नही आता। आज का समय तमाम बीती हुई सदियों के कठिन समय में से है जहां मनुष्य की परंपराएं, उसके मूल्य उसके आचरण और उसका अपना जीवन शैली ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहां से निकल पाने की कोई राह आसान दिखाई नही पड़ती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और साधु-संतों, सनातन धर्म का विपुल भंडार इस समाज के सामने भी आज का समय बहुत चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय मे शत्रु और मित्र पकड़ में नही आते। हर चमकती हुई चीज स्वर्ण नही होती है यानि किसी पर विश्वास करना उतना आसान नही है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में बहुत जटिल नजर आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है, बदला हुआ नजरिया है।

भारत बहुरंगी संस्कृतियों के इंद्रधनुषी सौदर्य से संपूर्ण विविधता में एकता को प्रतिष्ठित करने वाला देश है। इस धरती में वह एक समय था जहां त्याग और बलिदान के एक नही अनेक दृष्टांत मौजूद हैं। त्याग का नितांत उदाहरण मर्यादा पुरूषोत्तम राम, त्याग और अहिंसा का संदेश देने वाले महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध की अमर वाणी, श्री कृष्ण का कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदचनम का संदेश कभी भुलाया नही जा सकता। परंतु भारतीय परंपरा आज के समय में बहुत संकुचित दिखाई दे रही है। हमारी उज्जवल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के वावजूद हम अपने आप को कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वसनीयता का ही समय है। इस समय ने हमें प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं। एक जमाना था कि भारत में सूई तक नही बनती थी किंतु आज उपग्रह का भी सफल निर्माण हो रहा है। अनेक ग्रहों को नापती मनुष्य की आकांक्षाएं, चांद पर घर बनाने की लालसाएं, बड़े-बड़े मेगामाल्स, सैकड़ों चैनलों वाला टी.वी. विशाल होते भवन, कारों के नए मॉडल, ये सारी चीजें भी हमें कोई ताकत नही दे पाती। विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी ताकत से अधिक पाने की लालच में जिंदगी की खुशी नही समेट पा रही है। सब कुछ रहते हुए भी वे दुखी रहते हैं, कृत्रिम हसी हसते हैं एवं उधार की जिंदगी जीते हैं।

इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने वाली नई जमाने की पीढ़ी बहुत कम समय में अधिक पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को आत्मसमर्पित करना पड़े, तो कोई हिचक नही है। इस बदलते जमाने ने हमें ऐसे युवा पीढ़ी के दर्शन कराएं हैं जो बदहवस है। उनके प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। आज की युवा पीढ़ी में दिन-प्रतिदिन बढ़ रही नशाखोरी सभी के लिए गंभीर चिंता का विषय है। युवाओं में आवेग अधिक होता जा रहा है। उन्हे सपने देखने की आदत होती है। जब वो सपना पूरा नही होता है तो वे टूट जाते हैं नशे के गुलाम बन जाते हैं। सपनों के टूटने और बिखरने के सिलसिले में लोग गलत रास्ते पर चल रहे हैं। यह समय उन सपनों के गढ़ने का है,जो सपने पूरे तो होते हैं लेकिन उसके पीछे तमाम लोगों के सपने दफन हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है। किसी देश की युवा पीढ़ी उस देश की रीढ़ होती है और रीढ़ ही मजबूत न होगी तो देश, समाज, मानवता के स्थायित्व की संभावना केवल कल्पना बन कर रह जाएगी एवं आदर्श इसका मजाक उड़ाएगा।

आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को संस्कार और समय किसी की समझ नही दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढाने वाली साबित हुई है। अपनी चीजों को कमतर करके देखना और बाहरी सुखों की तलाश करना इस जमाने को और विकृत कर रहा है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज जमाने के ही मूल्य है। अविभक्त परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, अनाथ माता-पिता, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, नौकरों, दाईयों एवं ड्राईवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी हमें क्या संदेश दे रही है! यह बिखरते परिवारों का भी जमाना है। इस जमाने ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा है। बदलते समय ने लोगों को ऐसे खोखले प्रतिष्ठा में डूबो दिया है जहां अपनी मातृभाषा में बोलने पर कम प्रतिष्ठावान और अंग्रेजी में बोलने पर प्रतिष्ठा बढ़ने का एहसास दिलाता है। माता-पिता के इच्छा के विरूद्ध अपनी बिरादरी को छोड़कर अन्य विरादरी में मनपसंद लोगों को चुनते हैं एवं शान से कहते हैं कि MERA LOVE MARRIAGE है। हो सकता है मेरा यह कथन किसी को अच्छा न लगे लेकिन इस सत्य से हम विमुख तो नही हो सकते कि आज भी कुछ सामाजिक वर्जनाएं हमारे समक्ष प्राचीर बनकर खड़ी हैं।

बदलते काल चक्र ने हमारे साहित्य को, धार्मिक ग्रंथों को, हमारी कविताओं को पुस्तकालयों में बंद कर दिया है, जहां ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। हम इस बदलती सदी के कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्ते आत्मविश्वास के साथ हमें उन बीते हुए समयों की ओर देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। यह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है। यह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की ऐसी विधा है जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं। भारतीय चेतन में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है। आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। हमें नई पीढ़ी को एक नई दिशा और दशा देनी होगी।

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