Sunday, October 30, 2011

अपनी पीढ़ी को शब्द दना मामूली काम नही हैः केदारनाथ सिंह

अपनी पीढी को शब्द देना मामूली बात नही हैः केदारनाथ सिंह

प्रेम सागर सिंह

अपने पिछले पोस्ट में मैंने भोजपुरी का संस्कारी पुरूष श्री मिथिलेश्वर जी के बारें चर्चा किया था एवं बलॉगर बंधुओं को यह पोस्ट अच्छा लगा था । इसी क्रम में आज मैं एक ऐसे कवि के बारे में बताने जा रहा हूँ जिनकी कविताएं साहित्य-जगत की अनमोल थाती सिद्ध होती जा रही हैं एवं उनके समकालीनों ने इसे स्वीकार्य भी किया है । ऐसे ही एक कवि हैं केदारनाथ सिंह जिनकी लेखनी का जादू जिस पर चल गया, वह उन्ही का होकर रह गया । सबमें से मैं भी एक हूँ जो उनकी रचनाओं के साथ जिया एवं उनके साथ अब तक जुड़ा रहा । कवि केदारनाथ को समझना एक बहुत बड़ी बात होगी क्योंकि उन्होंने वर्तमान युग के साहित्यकारों की पीढ़ी को अपनी अभिव्यक्ति के लिए शब्द दिया है । केदार नाथ सिंह के लिए कविता ठहरी हुई अथवा अपरिचित दान में मिली हुई जड़ वस्तु नही है । इसके ठीक विपरीत समय का पीछा करती हुई, उनके अमानवीय चेहरे को बेनकाब करती एक जीवंत प्रक्रिया है । इसके अंतर्गत शब्द अपना क्षितिज क्रमशः विस्तृत करते गए हैं । केदार समय के साथ लगातार जिरह करने वाले कवियों में रहे हैं । आधुनिक हिंदी कविता का विकास उन सारी परिस्थितियों से अलग नही है जिनमे हिंदी भाषा के क्षेत्र मे बीसवीं शताब्दी में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए और स्वभाविक ही उनकी गति बेहद तीब्र है। इन परिस्थितियों में समकालीन यथार्थ से हुई अंतर्क्रिया से हिंदी कविता को जो संघर्ष, जो दुविधाएं, जो सफलताएं, जो असफलताएं झेलनी पड़ी, उनको केदारनाथ सिंह की कविताएँ बेहद पारदर्शी रूप में व्यक्त करती है । आधुनिक समय में भारतीय कवियों को, जिनकी एक समृद्ध और हजारों वर्ष पुरानी दृढ़ परंपरा है, लगभग अचानक पाश्चात्य आधुनिकता से मुठभेड़ करनी पड़ी । इस मुठभेड़ में कुछ टूटा, कुछ बना, बहुत सारी चीजें बहुत उलझी हुई और धुंधली बनी रहीं । इन सबके बीच में एक स्पष्ट भारतीय आधुनिक कविता अर्जित करने की कोशिश एक आधुनिक भारतीय कवि की रही है। इस संदर्भ में केदारनाथ सिंह की कविताएँ एक आलोचक की तरह नही, एक युवा कवि की तरह जिसमे वे अपनी भाषा को कविता के साथ अतीत के संघर्ष को विश्लेषित करने की विनम्र कोशिश करते हैं । केदारनाथ सिंह की कविताएँ आज की वास्तविक स्थिति के कठोर साक्षात्कार की कविताएँ हैं- इसी दिशा में वे काव्य-प्रक्रिया की जटिलता को और उसके पीछे कार्यरत रचनात्मक संघर्ष को प्रमाणित करती है । कवि यह जानता है कि वर्तमान स्थितियों में श्रेयस्कर यही है कि समय और परिस्थिति के बारे में अपनी समझ को उन छोटे-छोटे मामूली सी दिखाई पड़ने वाले संदर्भों से जोड़ा जाए जिनमें व्यापक राजनीतिक आशय और अकथ मानवीय पीड़ा छिपी हुई है । उनकी कविताएं आज के आतंक की स्थिति में चारो ओर व्याप्त चुप्पी और समझौते की प्रवृति का संकेत करती है । उनमें अपने दौर के साथ होने की तीव्र ललक भी है । वे गीत लिखने के साथ-साथ यह भी सोचते रहे थे कि- आज न भटकूंगा उस शिरीष के रास्ते । वे उस तरह के कवि नही हैं जो यथार्थ से पलायन करते हैं, बल्कि उससे मुठभेड़ ही में उनकी खास रूचि है। वे स्वप्नद्रष्टा हैं, स्वप्नजीवी नही । केदारनाथ सिंह का युग-बोध अनिश्चयवादियों से भिन्न है । अनिश्चयवादी संकट का नारा लगाते हैं, संक्रांति की घोषणा करते हैं। मांझी के पुल कविता में पुल अजन्मे हैं लेकिन हवाओं में तैरते हैं । अर्थ यदि भविष्य है तो केदारनाथ सिंह के लिए कोई काल्पनिक स्वप्न नही बल्कि वर्तमान के बीच उदभाषित होने वाली रेखा है । इस अनिश्चय में भी उन्हे इतना निश्चय तो है ही कि वह आस-पास यहीं कहीं है । केदारनाथ सिंह अक्सर यथार्थ जगत में ऐसे अंतराल ढूढते हैं । जिस वस्तु को हम उपस्थित देख रहे हैं, उस पर उसके विगत का एक भयावह रूप लदा है, भविष्य में भी पुनः इस्तेमाल करने की प्रक्रिया में उसका अर्थ संकुचन हो जाएगा । केदार उन दो तीन कवियों में हैं जिन्होंने नई कविता को चलने योग्य नए शब्द दिए हैं और जिन्हे सचमुच ही समकालीनों ने अपना लिया । अपनी पीढ़ी को शब्द देना मामूली बात नही है । उनकी मान्यता है कि कविता का सीधा संबंध भाषा से है । भाषा प्रेषणीयता का सर्वसुलभ माध्यम है । लयविधान और छंद की दृष्टि से केदारनाथ सिंह का अपना निजी मुहावरा है । जिस पर लोक गीतों का प्रभाव दृष्टिगत होता है । भाषा की नयी अदा केदारनाथ जी की कविताओं में नयी ऊर्जा और तेवर देती हैं । यह नयापन केदार जी के जीवन के साथ जिंदा लगाव और अनुभवों की ताजगी से प्राप्त से प्राप्त किया है । इतना ही नही विभिन्न प्रकार के अनुभवों को वे अपनी रचना प्रक्रिया में समन्वित करते हैं, जिससे अलग-अलग सदियों की भाषा एक साथ होकर काव्य को अधिक असरदार बना देती है । केदारनाथ सिंह की कविताएं समय के साथ संवाद करती हुई कविताएँ हैं । उनकी कविताओं में एक तरह की प्रश्नाकुलता दिखाई देती है । ऐसी प्रश्नाकुलता जो कहीं गहरे पैठ कर पाठक को बेचैन कर देती है । इनके काव्योदधि में जितने गहरे तक डूबने का प्रयास किया जाए, उतने श्रेष्ठ मौक्तिकों से अपनी संबेदना को समृद्ध किया जा सकता है । इनकी कविता के सौंदर्यात्मक सत्य के उदघाटन के लिए पाठक को अपने संवेदनात्मक धरातल को उस ऊचाई तक ऊठाना पड़ता है, जहाँ वह कवि की संवेदना से मिल जाता है और पूर्ण विश्व की संवेदना से एकाकार हो जाता है। केदारजी की कविताएँ उनके निजी परिवेश और जमीनी जुड़ा़व की ऊपज है । जिनमे तो एक तरफ धूल-मिट्टी है, खेत, खलिहान, बाग, बगीचा, गा्म्य-लोककथा, नदी, कछार, अपनों का सामीप्य और गांव से जुड़े तमाम समृति बिंब घुले मिले हैं जिनमें कवि के व्यक्तित्व का निर्माण हुआ । वे पिछले दो दशकों के कुछ कवियों में हैं जिन्होंने मानवद्रोही तथा रूग्ण पाखंडों से अपनी कविता को मुक्त रखा है । उनकी कविताएँ इसलिए आदमी की आदमीयत की खोज, उसमें गहरी आस्था और उसके प्रति अदम्य प्रतिबद्धता की कविताएँ हैं । केदारनाथ सिंह आधुनिक कवियों में सर्वाधिक तीक्ष्ण संवेदना के एवं पारदर्शी कवि हैं । ये पारदर्शी इस अर्थ में हैं कि ये हमें सपने में उलझाते नही हैं और हमें कविता की सप्रेष्य वस्तु तक ले जाते हैं । केदार जी में जो मानवता है, उनमें जो तीक्ष्ण संवेदना है, उनमें जो बिंबों का रचाव है, वह उन्हे शमशेर बहादुर के बाद हिंदी का दूसरा अत्यंत विशिष्ट कवि बनाता है । शमशेर की ही तरह उनकी कविताएँ हिंदी आलोचना के लिए चुनौती है । मेरा अटल विश्वास है कि आप सब भी इनकी कृतियों के साथ न्याय करेंगे । आज नई कविता के बारे में जितना भी कुछ कहा जाए, केदारनाथ सिंह के योगदान को हाशिए पर रखे जाने की हिम्मत किसी भी आलोचक के लिए एक कठिन कार्य होगा । यह मेरी अपनी अभिव्यक्ति है एवं किसी के आलोचना एवं टिप्पणी के लिए किसी भी विंदु पर किसी को वाध्य नही करती है । अनुरोध है कि इन कथ्यों के साथ अपने विचारों को खंगालकर अपनी टिप्पणी देने की कृपा करें ताकि भविष्य में मैं कुछ इन जैसे कवियों के बारे में जो भी ज्ञान मेर पास है, उसे आप सबके समक्ष प्रस्तुत कर सकूँ । आप सबके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । धन्यवाद

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Tuesday, October 25, 2011

भोजपुरी दुनिया का संस्कारी पुरूष: :मिथिलेश्वर

भोजपुरी दुनिया का संस्कारी पुरूष : मिथिलेश्वर

प्रेम सागर सिंह

भोजपुरी साहित्य एवं समाज की बात करते समय कभी शिवपूजन सहाय की रचना देहाती दुनिया का स्मरण आने लगता है एवं उनके बीच जो नाम मन पर असर कर जाता है, वह नाम है मिथिलेश्वर । ये समय और समाज के आंतरिक संबंधों के जटिल रूपाकार को खंगालने एवं जनवादी सरोकारों से संपृक्ति रखने वाले महत्वपूर्ण रचनाकार हैं । अपने वृहत उपन्यासों में कथा-विन्यास की अदभुत बुनावट एवं वैचारिक प्रखरता के तालमेल के कारण उनकी कृतियाँ पठनीय होने के साथ-साथ जनचेतना का भी प्रतिधिनित्व करती हैं । यही कारण है कि अपनी नवीनतम पुस्तक भोजपुरी लोककथा एवं जमुनी के सृजन कार्य से भाषा और प्रस्तुति के स्तर पर भोजपुरी लोककथाओं को अपनी सहज-सरल, संवेदना से न केवल परिपुष्ट करते हैं, बल्कि लोकभाषा की प्रकृति व संस्कृति को साबित भी करते हैं । ग्राम्य जीवन और जनसमाज की विकट समस्याओं व जमीनी सच्चाईयों को आधार बना कर लिखी गयी इस संग्रह की लोककथाएं कोरी उपदेशपरकता के बजाए अपनी विलक्षण किस्सागोई से अपना विश्वसनीय रूपाकार ग्रहण करती हैं। भोजपुरी लोककथाओं से अपना जमीनी जुड़ाव रखने वाले मिथिलेश्वर प्रचलित लोककथाओं के मूल कथ्य को सुरक्षित रखते हुए उनकी रचना में ऐसी चमक पैदा करते हैं कि वे प्रदेश विशेष तक सीमित न रहते हुए सर्वग्राही बन जाती हैं । संग्रह में शामिल बुद्धि की कमाई चिट्ठी बँटवारा अंधेरपुर नगरी बटेर और कौआ राजा और घूसखोर चार चोर लकड़हारा और साँपचापलूस दरबारी आदि लोककथाओं में भोजपुरी की लोक संस्कृति की वास्तविक पहचान व जीवन-जगत की सार्थक व्याख्या तथा जमीनी सच्चाईयों को करीब से महसूस किया जा सकता है । वे अपने जमीनी जुड़ाव के चलते भोजपुरी की इन लोककथाओं की सृजनशीलता में बोली की मिठास और भावाभिव्यक्ति में विचित्र रसात्मकता का मिश्रण करते हैं । भोजपुरी लोककथाओं की विश्वसनीयता तथा सर्वग्राही शक्ति को प्रमाणित करते हुए लेखक की मान्यता है कि इस अनुभव ने मुझे सुखद रूप में में चमत्कृत कर दिया कि वगैर लिखित हुए सिर्फ वाचिक परंपरा में ही हमारी लोककथाएं सदियों से ही जीवित बनी हुई हैं । सचमुच यह बहुत बड़ी बात है । लोककथाओं की कालजयिता की पहचान भी । निस्संदेह इस तथ्य को अनदेखा नही किया जा सकता कि लोककथाएं महज मनोरंजन नही करती, बल्कि मानवतावादी मूल्यों की पक्षधरता को बुनियादी सरोकारों से सींचते हुए ठोस व्यावहारिक पहलुओं को व्याख्यायित करती है। मिट्टी की सोंधी सुगंध से संपृक्ति रखते हुए मिथिलेश्वर न केवल पुस्तक की भूमिका के माध्यम से, बल्कि इस संग्रह की लगभग सभी कथाओं की जीवनी शक्ति व लोक रस के महत्व को रेखांकित करते हैं। भोजपुरी साहित्य एवं हिंदी के प्रतिष्ठित कलाकार मिथिलेश्वर की हर रचना भोजपुरी लोकजीवन के विविध रंगों को रूपायित करने के साथ-साथ भोजपुरी समाज के रीति-रिवाज, आचार-व्यवहार तथा संस्कृतिक चेतना को रोचक किस्सागोई से सजाकर हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है । वे अपनी प्राय: सभी कृतियों में भारत की सबसे बड़ी लोकभाषा भोजपुरी की लोककथाओं के माध्यम से भोजपुरी संस्कृति की वास्तविक पहचान करवाते हैं । इसके साथ-साथ इनकी हर कृति भोजपुरी समाज के गतिशील-जीवंत जीवन मूल्यों को जमीनी संस्कृति से जोड़कर देखने की पहल भी करता है । बिहार राज्य के आरा जिले के अंतर्गत बैसाडीह गांव में जन्मे मिथिलेश्वर भोजपुरी साहित्य को जिस मुकाम पर लाकर खड़ा किए हैं, उसके लिए मेरी और से उन्हे बहुत-बहुत धन्यबाद । भोजपुरी जनजीवन की लोक परंपराओं एवं बहुआयामी ज्ञान की पिपासा को बढ़ाने के लिए उनकी हाल ही में प्रकाशित कृति जमुनी अवश्य पढें । आज के साहित्यकार जिस रूप से साहित्य-सृजन की बुनियाद को नित नए आयाम दे रहे हैं, उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में इन चेहरों के घने जंगल में क्या मिथिलेश्वर को ढूढ़ पाना संभव हो पाएगा !

Saturday, October 15, 2011

मुझे मेरे गांव में गांव का निशाँ नही मिलता


मुझे मेरे गाँव में गांव का निशाँ नही मिलता

प्रेम सागर सिंह

(हृदयकुंज में वापसी)

अपने पिछले पोस्ट में मैने मुझे मेरे गांव में गाँव का निशा नही मिलता में बचपन की यादों एवं गांव के बदलते स्वरूप को चित्रित किया था, किंतु यह चित्रण अपनी समग्रता में पू्र्ण नही था । मेरी अक्षत स्मृतियों के पिटारे में कुछ ऐसी विगत स्मृतियां हैं जो अभिव्यक्ति के लिए सर्वदा बेचैन रहती हैं । आज अचानक एक छोटी सी स्मृति ने झकझोर दिया एवं मन अभिव्यक्ति के लिए बेचैन हो उठा । अपने जीवन की स्मृतियों को खोलने लगा तो बचपन में बटबृक्ष की तरह स्नेहमयी शीतल छाया प्रदान करने वाली मां का अतिम दिन याद आने लगा । उस समय मैं गांव पर ही पढ़ता था । मेरा गांव डुमरांव स्टेशन से करीब 3 कि.मी. दक्षिण दिशा की ओर है । हमसे तीन बड़े भाई कलकत्ता में रहते थे । मां एवं बाबूजी से बहुत जिद करता था कि मैं भी कलकत्ता मे पढ़ूंगा लेकिन उम्र में छोटा होने के कारण मुझे इसकी इजाजत न मिल सकी । बचपन में मुझे किसी भी चीज का अभाव नही हुआ, जो चाहा उसे मां और बाबूजी ने दिया । एक दिन मां बीमार पड़ गयी । सावन का महीना था । गांव के चारो तरफ पानी भर गया था एवं बरसात थमने का नाम नही ले रहा था । जब से मां बीमार पड़ी थी, ऐसा प्रतीत होता था कि किसी ने मेरा बचपन मुझसे छीन लिया है । थोड़े समय हमउम्र लड़कों के साथ खेलता एवं मां की याद आते ही खेल को बीच में ही छोड़ कर उनके पास आ जाता था । जिस भाव से मां आपना हाथ मेरे सिर पर रखती थी मुझे आज एहसास होता है कि चारपाई पर रूग्णावस्था मे पड़ी मां के लिए यह बड़ा ही दुष्कर कार्य था । मुझे देख कर बहुत रोती थी. मैं भी रोने लगता था । आज इस उम्र की दहलीज पर पहुंच कर ऐसा लगता है कि अपनी असहनीय पीड़ा को अनुभव कर मां के मन में शायद यह बात घर कर गयी होगी कि अब वह नही बचेगी । जब दिन-प्रति दिन शोचनीय अवस्था होती गयी तो पड़ोस के गांव से डॉक्टर को बुलाया गया था । मां को देखने के बाद उन्होंने कहा कि इन्हे टेटनस हो गया है एवं गुलजारबाग टेटनस हॉस्पीटल (बिहार) में भर्ती करवाना अति आवश्यक है, नही तो कुछ भी हो सकता है । उसी दिन बाबूजी मुझे मां एवं गांव के कुछ लोगों के साथ गुलजार बाग के लिए ट्रेन पकड़ाने के लिए स्टेशन तक आए थे । ट्रेन आने वाली थी, मां ने बाबूजी का हाथ पकड़ कर दबे आवाज मे कहा था- मेरे सिर पर हाथ रख दीजिए। बाबूजी ने ठीक वैसा ही किया एवं अपने आंखों से निकलते हुए आंसू को रोक नही पाए । उस समय मेर बाल-मन में क्या बीत रही थी, उसकी याद आते ही अब ऐसा प्रतीत होता है कि मां की अवस्था ने मुझे उस समय अपनी उम्र के हिसाब से बड़ा और परिपक्व कर दिया था ।समय का खेल भी बड़ा विचित्र होता है।हम सब मां को लेकर गुलजार बाग हॉस्पीटल पहुँच गए एवं उनको दाखिला करा दिया गया । सब कुछ जाँचने के बाद डॉक्टरों ने कहा कि उपचार शुरू हुआ है, भगवान करेंगे तो कुछ दिनों में स्वस्थ हो जाएगी । हर कोई जैसा सोचता है वैसा ही होने लगे तो दुख किस बात का रहता । मां ने कहा था बबुआ मैं ठीक हो जाउंगी । कल तुम्हारे बाबूजी आएंगे तो हम लोग उन्ही के साथ वापस गांव चले जाएंगे । शायद मेरी उनींदी आंखों को देखकर उन्होंने कहा कि तुम सो जाओ । गांव के लोग बाहर बैठकर बातें कर रहे थे एवं मैं हॉस्पीटल में ही उनके बेड के पास ही जमीन पर सो गया था । थोड़ी देर बाद कुछ गजब सी आवाज ने मुझे जगा दिया, देखा तो हमसे बड़े भाई एवं गांव के कुछ लोग मां के बेड के पास खड़े थे । दो डॉक्टर भी उनका परीक्षण कर रहे थे । कुछ देर मौन रहने के बाद डाक्टरों ने भैया की ओर देखते हुए कहा- सॉरी, आपकी मां अब इस दुनिया में न रही । जहाँ तक मुझे याद है उस समय रात के करीब दो बज रहे थे । उसी रात कार का इंतजाम हुआ एवं मां के मृत शरीर को लेकर हम लोग गांव के लिए प्रस्थान कर दिए । सुबह होने के पहले ही गांव के बाहर कार पहुंच चुकी थी । हम सबको देख कर आस-पास के लोग कार के पास आने लगे एवं मां की मृत्यु का समाचार पूरे गांव मे आग की तरह फैल गया । उस समय पूरा गांव ही शोक-संतप्त हो गया था । उम्र मे बहुत छोटा होने के कारण बाबूजी ने मुझे कार के पास रहने नही दिया और मुझे किसी के जरिए घर पर भेज दिया । उस रात पूरे गांव में किसी के घर खाना नही बना था । एक गजब सा सन्नाटा छा गया था । सभी लोग मेरी देख-भाल में लगे थे । चाचा,चाची और सगे संबंधी एक मिनट के लिए मुझे अकेले नही छोड़ते थे । एक गजब सी गमगीन हालत हो गई थी । दाह-संस्कार के लिए बक्सर ले जाया गया किंतु मुझे जाने के लिए सबने मना कर दिया । दाह संस्कार के बाद सब लोग गांव आ गए थे । मैं बाबूजी के पास अधिक समय व्यतीत करने लगा । कुछ दिनों बाद बाबूजी मुझे कलकत्ता लेकर आ गए । मेरी बचपन की यादें मेरी स्मृतियों के पिटारें में यही तक रह गयी । कभीकभी यही सोचता हूँ कि आज बह गांव नही रहा जहाँ एक आदमी का सुख-दुख सबका सुख-दुख हुआ करता था, जब भी कोई बहन, बेटी ससुराल से आती थी तो पास-पड़ोस के लोग उससे गले मिलकर रोते थे, लेकिन आज वे संवेदनाएं नही दिखती । किसी की मृत्यु, शादी या कोई भी चीज आज महज खबर बन कर ही रह जाती है । आज गांव में महज औपचारिकता का ही निर्वाह हो रहा है । मन में आया लिख दिया एवं दिल पर जो यादें बोझ बन गयी थी, उन्हें थोड़ा सा हल्का कर लिया । मेरी बचपन की यादें ,बस मेरे लिए एक धरोहर बन कर रह गयी हैं। आज उम्र की इस दहलीज पर भगवान से यही विनती करता ङूँ कि मां को स्वर्ग में भी सुखी रखें । अब मैं अपने बचपन की करूण कहानी को यहीं विराम देता हूँ ।

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Friday, October 14, 2011

हर पल यहाँ जी भर जियो

हर पल यहाँ जी भर जियो

प्रेम सागर सिंह

हम सबके जीवन में प्रेम एक बहता नीर है । मानव मन जिस साँचे में ढलता है उसका आकार भी वैसा ही बन जाता है । जिंदगी के हर मोड़ पर कही धूप, कहीं छाँव, कभी त्याग, कभी तृष्णा और कभी सहनशीलता का सामना करना पडता है। शमाँ के लिए परवाने मर जाते हैं पर शमाँ को इसका जरा सा भी अफसोस नही होता है पर आधुनिक समाज में आपसी सामंजस्य एवं गुणा-गणित के बीच प्रेम जैसी गहन अनुभूति कहीं सो गई है, मानव संवेदनाएं विलुप्ति के कगार पर बढ़ती चली जा रही है। बचपन कब पीछे छुट जाता है, पता ही नही चलता । जबानी कब मुंह चुराकर निकल जाती है, इसका एहसास हमें तब होता है, जब जिंदगी के बेशकीमती लमहे गुजर गए होते हैं । जब जिंदगी का हिसाब करने लगते हैं हमारे हिस्से में आते हैं, पहले केरियर फिर पोजिसन एवं अंतत: पैसा......जिंदगी का मकसद बस यही है क्या ! कसी के दुख में रोए नही, अपनी खुशियाँ किसी से बाँटी नही, किसी के काम नही आए, किसी के लिए एक पल के लिए ही सही जिया नही, किसी को हंसना नही सिखाया तो क्या मजा है इस जिंदगी का ! मशीन की तरह काम किया और जिंदगी बिता दिया । इस दुनिया की दुनियादारी भी गजब की चीज है । इसमें भावनाओं के लिए कोई जगह नही होता । लोग उम्र बेचकर पैसे कमाते हैं और जिंदगी की बैलेंस शीट में हासिल सिफर रह जाता है । अंत में दुनिया को अलविदा करते बक्त यह सोचकर अफसोस करते हैं कि यार पैसे तो बहुत कमा लिए, लेकिन खुशियाँ न कमा सके । मकान तो बहुत ही सुंदर बना लिया पर उसे घर न बना सके । यह सोचकर मन एक असीम व्यथा से भर जाएगा कि इच्छाएं तो बहुत पूरी की , लेकिन जो संतोष अंतरंग साथी की सहज शोहबत में मिलता उससे वंचित रह गए । रही इस दुनिया की बात तो वह भी ठीक वैसे ही है जैसी हर जमाने की दुनिया । लोग दिल की बात सुनने से परहेज करते हैं और जो सुनते भी हैं तो उन्हे परवाना कहा जाता है । दिल की सुनने की बात का मतलब है इंसान का इंसान बने रहना, उस आवाज को सुनते रहना, जो यह बताती है कि आपके अपनी जिंदगी में क्या करना अच्छा लगेगा । इतिहास साक्षी है कि कोई समाज चाहे कितना ही विकास क्यों न कर ले और सभ्यताएं और संस्कृतियां कितनी उठान पर हों पर जब दिल की बात चलती है तो सब कुछ सूना-सूना सा लगता है । चाहे हर किसी के दिल में मोहब्बत की टीस उठती हो, लेकिन समाज ने कभी भी दिल की बातों को मुख्यधारा में जोड़ने की इजाजत नही दी । समाज हमेशा मुनाफे के गुणा गणित से चलते आए हैं । आज की बात हो या सदियों पहले की, अपने देश की कहानी हो या विदेश की कहानी एक ही है हर जगह, हर समय । लोग मोहब्बत करते हैं, लेकिन जब समाज की वर्जनाएं प्राचीर बनकर खड़ी हो जाती हैं तो अक्सर होता वही है, जो दुनियादारी के व्याकरण में सही माना जाता है । काश ! हम जैसै दिल कहता है वैसे ही जी पाते । हम कमसे कम अपने आपको फुरसत में यह समझा पाते कि अच्छी या बुरी, जैसी भी हो, जिंदगी मैंने खुलकर जी है । मेरी भी मान्यता है कि जिंदगी बड़ी बेहिसाबी से खर्च करनी चाहिए और - हर पल यहाँ जी भर जियो । आपके क्या विचार हैं बंधुगण !

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Thursday, October 6, 2011

मुझे अपने गांव में गांव का निशाँ नही मिलता


मुझे अपने गांव में गांव का निशाँ नही मिलता

प्रेम सागर सिंह

मनुष्य इस सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है तो इस लिए कि उसके पास स्मृति का अक्षत कोष चिरसंचित है । वह अपन विगत से स्वगत की यात्रा में अविरत तल्लीनप्राय रहता है । स्मृति का खेल भी बड़ा ही अदभुत है । वह इस सृष्टि में सबसे बड़ी संपादक है । उसका संपादन कार्य सतत चलता ही रहता है । वह बड़ी से बड़ी घटना की उपेक्षा कर सकता है और छोटी सी छोटी बात व्योरेवार याद रख सकती है । मेरे ख्याल से स्मृतियाँ सिर्फ अतीत का अनुभव मात्र नहीं, बल्कि साक्षात्कार भी हैं । परंपरा भी तो एक तरह से स्मृति ही है। इन्ही स्मृतियों के बल पर व्यक्तित्व बनता है । रचनाकार व्यक्तित्व का मूल संबल ही है स्मृतियाँ । एक रचनाकार ,जिसके पास स्मृतियों की निधि नही है, जब भी लिखता है, उसके सतही उदगार होते हैं ।ब उम्र की इस दहलीज पर मुड़ कर देखता हूँ तो स्मृतियाँ एक अजीब रूप में बदली हुई दिखती हैं । बचपन की कई घटनाएं मानस पटल पर आती हैं एवं बुलबुले की भाँति क्षण भर में गायब सी हो जाती हैं। बचपन में मेरी आदत थी कि जब भी अपने गांव मे बाबूजी के साथ घूमने जाता, तब हर एक खेत की चौहद्दी बार-बार पूछता, और यदि गांव के बाहर जाता तो हर एक गांव की चौहद्दी बार-बार जानने की उत्सुकता दिखलाता । मेरे बाबूजी पुराने विचारों के आदमी थे । इसका मतनब यह नही कि वे पढ़े लिखे नही थे, जितना अच्छा अंग्रेजी बोलते थे कि सुनने वाले हक्का-बक्का रह जाते थे। आस-पास के गावों में उनकी काफी मान थी । किसी भी तरह का पंचायत क्यूं न हो उन्हे झगड़ा सुलझाने के लिए बुलाया जाता था। पहले लोग कोर्ट कचहरी के चक्कर में नही पड़ना चाहते थे । छोटी-छोटी समस्याओं का हल दो चार लोग बैठ कर निकाल लेते । जमीन जायदाद का बँटवारा होने पर ही किसी दूसरे आदमी को बुलाया जाता था । गांव चाहे कोई भी हो, वह अपने होने में ही मनोहारी होता है। वहाँ के लोगों में कई अपनी तरह के रीति-रिवाज और लोक प्रचलन होते हैं । जीवन जीने का उनका एक नजरिया है । एक अपनी पूरी संस्कृति है । इसको ही हम शहराती लोग लोक संस्कृति कहते हैं। मेरा थोड़ा सा बचपन इसी संस्कृति की आबोहवा में बीता । उस मधुर बचपन की कई छवियां मानस पटल पर स्मृति के बुलबुलों के रूप में उभरती हैं । न जाने कितनी स्मृतियां श्वांस बन कर कानों के पास अपना पदचाप छोड़ देतीं, न जाने कितने दृश्य छाया अभिनय करते हुए चले जाते और न जाने किते प्रकार की अनुगूँज भरती और बीतती चली जाती हैं । मैं अब कभी कभी .यही सोचते रहता हूँ कि स्मृति का भी कोई लेखा- जोखा होता तो कितना अच्छा होता । लेकिन एक रचनाकार मन इन्ही सस्मृतियों को पाथेय-रूप में लेकर अपनी साहित्यिक यात्रा पर निकलता है । अगर स्मृतियों की पोटली उसके पास न हो तो वह बहुत दूर तक नही जा सकता । यह जानते हुए कि आज का गांव बचपन का गांव नही है पर उस गांव की संभावना भविष्य के लिए कुछ नए आयाम जितनी आज दे सकती है उतनी मेरे बचपन के समय नही दे सकती थी क्योंकि उस समय विश्व मानव गांव के मर्म को समझ नही सकता था। आज दुनिया बदल रही है । गांवों के साथ ग्रामीण संवेदना में भी भारी परिवर्तन आया है । पहले गांव की बात इंसानियत का रंग लेकर की जाती थी लेकिन आज गांव के मन की बात विश्व की समकालीन परिस्थिति की उपेक्षा के रूप में की जाती है । जीवन में कई अवसर आए हैं जब गांव पर जाना पड़ा है एवं हर बार गांव का रूप बदला-बदला सा नजर आया । लोग बदल गए, खेत-खलिहान, ताल-तलैया, पोखरा सब कुछ तो वैसा नही रहा जैसा हम बचपन में छोड़ कर आए थे । पुराने लोग तो रहे नही, अब उनके बच्चों को परिचय देना पड़ता है। कभीकभी ऐसा लगता है कि गांव का अस्तित्व भी नही रहेगा। गांव का दृश्य आने वाली पीढ़ी तस्वीरों में ही देख पाएगी । इतना कुछ होने के बाद भी गांव से चलते वक्त मन अधीर हो जाता है।

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